संपर्कभाषा का मनोवैज्ञानिक स्वरूप और राजभाषा

hindi 1जब किसी देश-विशेष में वहाँ की मूल भाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा का प्रचलन होता है अथवा जब वहाँ विविध भाषाओं का प्रयोग होता है जिस कारण किसी एक प्रदेश में दूसरे प्रदेश की प्रचलित भाषा के कारण नागरिकों को संवाद-संपर्क स्थापित करने में बड़ी कठिनाई होती है तो उस देश की किसी एक भाषा को संपर्कभाषा बनाया जाना अनिवार्य हो जाता है। यही स्थिति हमारे देश की है। यह आश्चर्यजनक बात है कि प्राकृतिक और भौगोलिक कारकों के बजाए भाषाओं के आधार पर ही यहाँ राज्यों का विभाजन हुआ जैसा लगता है। यहाँ तक कि राज्यों के नाम भी भाषाओं के अनुसार किए गए हैं। इस तरह यह प्रमाणित होता है कि इस देश की क्षेत्रीय भाषाएं महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इन भाषाई विभाजनों को चुनौती भी नहीं दी जा सकती है।
भाषाई बाधाएँ कभी-कभी इतनी असमाधेय सी लगती हैं कि हम किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। प्राय: दूसरे प्रांतों में जाकर हमें अपनी आवश्यकताएं इशारों में बतानी पड़ती हैं। यदि यह कहा जाए कि हम वहाँ अंग्रेज़ी के माध्यम से काम चला सकते हैं तो यह भी निरर्थक और हास्यास्पद-सा लगता है क्योंकि गाँवों और दूर-दराज की अधिकांश जनता तो अभी भी अंगूठा-छाप है। ऐसे में, उनसे अंग्रेज़ी में संपर्क स्थापित करना तो बिल्कुल उनसे पहेली बुझाने जैसा है। इसलिए भारत में एक सहज और सुग्राह्य संपर्कभाषा का होना अति आवश्यक है और इस भूमिका में तो हिंदी को ही रखना श्रेयष्कर होगा। हिंदी के प्रचार में अग्रणी भूमिका निभाने वाले महाराष्ट्र के काका कालेलकर ने हिंदी में संपर्कभाषा के सभी गुण देखे थे। उन्होंने तर्क देते हुए कहा था:
“हम हिंदी का ही माध्यम पसंद करते हैं। इसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि यह माध्यम स्वदेशी है। करोड़ों भारतवासियों की जनभाषा हिंदी ही है। दूसरा कारण यह है कि सब प्रांतों के संत कवियों ने सदियों से हिंदी को अपनाया है। यात्रा के लिए जब लोग जाते हैं तो हिंदी का ही सहारा लेते हैं। परदेशी लोग जब भारत भ्रमण करते हैं तब उन्होंने देख लिया कि हिंदी के ही सहारे वे इस देश को पहचान सकते हैं। असल में तो हिंदी भाषा है ही लचीली, तन्दुरुस्त बच्चे की तरह बढऩे वाली और इसकी सर्व संग्राहक शक्ति तथा समन्वय शक्ति भी असीम है”[1]
सामान्यतया, किसी भाषा का मूल प्रयोजन किसी अभिकरण अथवा व्यक्ति के साथ सहजता से संपर्क स्थापित करना है–चाहे वह पत्राचार के माध्यम से हो या प्रत्यक्ष वार्तालाप के माध्यम से। इस प्रयोजन को पूरा करने वाली भाषा ही संपर्कभाषा बन सकती है। इसका मतलब यह है कि संपर्कभाषा का सिफऱ् औपचारिक उद्देश्य होता है। यह भी ध्यातव्य है कि चूँकि संपर्कभाषा लोकाचार के सभी पक्षों में आम आदमी की अभिव्यक्ति का प्रमुख साधन होती है, इसलिए इसका स्वरूप पूर्ण रूप से मनोवैज्ञानिक है। एक महत्वपूर्ण बात और है कि संपर्कभाषा को मनुष्य के स्वभाव के अनुसार मानवीय आवश्यकताओं की आपूर्ति में सहायक होना चाहिए। संपर्कभाषा का दावा करनेवाली एक सफल भाषा में यह क्षमता होनी चाहिए कि वह इस प्रयोजन को पूरा करे। यदि वह ऐसा नहीं कर पाती है तो उसे संपर्कभाषा के रूप में स्थापित करने का निर्णय लेना गलत होगा। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संपर्कभाषा में निम्नलिखित गुण होने ही चाहिएं:
*उसका व्याकरण और वाक्य-संरचना जटिल न हो;
*उसकी शब्दावलियाँ इतनी आसान और उच्चारण में सहज हों कि उन्हें केवल सुनकर कंठस्थ किया जा सके;
*उसे विभिन्न सांस्कृतिक, व्यावसायिक, राजनीतिक आदि परिवेश में क्रिया-व्यापार के अनुकूल ढाला जा सके;
*उसमें अन्य भाषाओं के सहज शब्दों को अपनाने की स्वाभाविक क्षमता हो;
*वह अपने-आप लोगों के बीच लोकप्रिय हो सके;
*भारत जैसे बहु-भाषी देश में वह विभिन्न तबकों के लोगों द्वारा नि:संकोच रूप से स्वीकार्यता प्राप्त कर सके;
*संपर्कभाषा बोलने और सुनने में आत्मीय और प्रिय हो; तथा
*इसके माध्यम से संक्षेप में संप्रेषण किया जा सके।
अंग्रेज़ी को विश्वभर में अल्पाधिक रूप से संपर्कभाषा के रूप में सफल बनाने में प्राय: उपर्युक्त गुणों का ही योगदान रहा है। एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि संपर्कभाषा अपना विस्तार स्वयं करती है। फ्रांस की कबीलाई भाषा इंगलिश (अंग्रेज़ी) इंग्लैंड में अपने-आप फैलती गई। कहीं किसी व्यवस्था-तंत्र ने इसको संपर्कभाषा घोषित करके इसके व्यापीकरण में मदद नहीं की थी। आज अंग्रेज़ी को महिमामंडित करने वाले अफवाहों की स्थिति चाहे जो भी हो, यह विश्व की संपर्कभाषा के रूप में अपनी पहचान बना चुकी है भले ही भारत जैसे देश में उसकी सर्वग्राह्यता स्पष्ट न हो। किंतु, जहाँ तक भारत में राजभाषा हिंदी को संपर्कभाषा के रूप में स्थापित करने का प्रश्न है, इसका कमोवेश विस्तार स्वाभाविक रूप से पूरे देश में होने के बावज़ूद जब इसे संपर्कभाषा के रूप में लाने की बात कही जाती है तो इस कार्रवाई को भाषा लादने की संज्ञा दी जाती है। यह स्थिति अत्यंत हास्यास्पद और विरोधाभासपूर्ण है।
यह बात नहीं है कि राजभाषा हिंदी में सार्वभौमिकता के गुण नहीं हैं। या, इसमें सहज संप्रेषणीयता नहीं है। बल्कि यह तो पहले से ही जनमानस में अपनी पैठ बनाए हुए है। या, यों कहा जाना चाहिए कि इसमें यह गुण अंग्रेज़ी से कहीं ज़्यादा है। जहाँ तक हिंदी के स्वरूप का संबंध है, यह अत्यंत लचीली है–व्याकरण और सरल शब्दावलियों की दृष्टि से। यह सुनने में कर्णप्रिय है क्योंकि इसमें सरल लोकजीवन का संपुट है। यह देश की अन्य भाषाओं की शब्दावलियाँ अपनाकर सभी राज्यों में अपने-आप लोकप्रिय होती जा रही है। यह भी सिद्ध हो चुका है कि यह केवल साहित्य की ही बहु-प्रयुक्त भाषा न होकर दर्शन, धर्म, राजनीति, व्यवसाय, विज्ञान आदि में भी लोकप्रिय होती जा रही है।
सूचना माध्यमों में इसका प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। ध्यातव्य है कि दूरदर्शन के जिन चैनलों पर अंग्रेज़ी के स्थान पर हिंदी के सीरियल, विज्ञापन, विदेशी फिल्मों की हिंदी में रूपांतरित फिल्में आदि प्रसारित किए जा रहे हैं, उनकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। पाकिस्तान, रूस, ईरान, इराक, नेपाल, थाईलैंड, म्यांमार, बांग्लादेश और यहाँ तक कि सुदूर चीन, जापान और कोरिया में न केवल हिंदी फिल्में देखने का चाव बढ़ता जा रहा है बल्कि उन फिल्मों में पात्रों द्वारा प्रयुक्त जुमलों और चुटीले संवाद-अंशों को बात-बात में सुनाने का रिवाज़ भी जोर पकड़ता जा रहा है। यूरोपीय और अमरीकी देश भी इसके अपवाद नहीं हैं। बंबई के दलाल स्ट्रीट पर तथा देश के शेयर बाज़ारों में हिंदी का प्रयोग जोर पकड़ता जा रहा है। जहाँ इन स्थानों पर पहले केवल अंग्रेज़ी में ही वार्तालाप हुआ करता था, आज अंग्रेज़ी-मिश्रित हिंदी के प्रयोग का फैशन बढ़़ता जा रहा है और इस तरह प्रयोग की जा रही भाषा को हिंगलिश की संज्ञा दी जा रही है.
– डा. मनोज श्रीवास्तव

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