पिछली पुण्यतिथि के बाद धोने-पोंछने का यह पहला अवसर आया है। प्रत्येक वर्ष ऐसा ही होता है, जयंती और पुण्यतिथि के बीच की अवधि में गांधीजी के साथ कोई नहीं होता है। कड़वी बात तो यह है कि बचे-खुचे गांधीवादी भी नहीं। वे गांधीजी का साथ दे भी नहीं सकते हैं क्योंकि जरूरतों और परिस्थितियों ने उन्हें भी सिखा दिया है कि गांधी बनने से केवल प्रताड़ना मिल सकती है, संपदा, संपत्ति नहीं।
वैचारिक धरातल में यह खोखलापन एक दिन या एक माह या एक वर्ष में नहीं आ गया। जान-बूझकर धीरे-धीरे और योजनाबद्ध ढंग से गांधी सिद्धांतों को मिटाया जा रहा है क्योंकि यह मौजूदा स्वार्थों में सबसे बड़े बाधक हैं। गांधी सिद्धांतों को मिटाने की इस गतिविधि को देखा नहीं गया, ऐसा नहीं है। सब चुप हैं क्योंकि अपना-अपना लाभ सभी को चुप रहने के लिए प्रेरित कर रहा है।
आमतौर पर जन्मदिन या जयंती के दिन आस्था के फूल अर्पित करने की परंपरा है। इस दिन कड़वी बातों को कहने का रिवाज नहीं है। यदि इस रिवाज को तोड़ा जा रहा है, तो मजबूरी के दबाव को समझे जाने की आवश्यकता है। यह राष्ट्र नेताओं को महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर कीचड़ उछालने की अनुमति कैसे दे रहा है, क्यों दे रहा है? यह कैसी सहिष्णुता है जो राष्ट्र की बुनियादी विचारधारा को मटियामेट करने पर आमादा है?
इसलिए ही गांधीजी की जरूरत आज पहले से कहीं अधिक है। इस जरूरत को पूरा करने की सामर्थ्य वाला व्यक्तित्व दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। हर कोई चाहता है कि आदर्श और मूल्य इतिहास में बने रहें और इतिहास को वह पूजता भी रहेगा। परंतु अपने वर्तमान को वह इस इतिहास से बचाकर रखना चाहता है। अपने लालच की रक्षा में वह गांधी की रोज हत्या कर रहा है, पल-पल उन्हें मार रहा है और राष्ट्र भीड़ की तरह तमाशबीन बनकर चुपचाप उसे देख रहा है। शायद कल उनमें से किसी को यही करना पड़े! अपने हितों की विरोधी चीजों को इतिहास में बदल देने में भारतीयता आजादी के बाद माहिर हो चुकी है। वर्तमान और इतिहास की इस लड़ाई में वर्तमान ही जीतता आ रहा है क्योंकि इतिहास की तरफ से लड़ने वाले शेष नहीं हैं।
गांधीजी की प्रतिमा के सामने आंख मूंदकर कुछ क्षण खड़े रहने वाले क्या यह पश्चाताप कर रहे होंगे कि वे गांधीजी के बताए रास्तों पर क्यों नहीं चल रहे हैं? नहीं, वे यह कतई नहीं सोच रहे होंगे। तब वे मन ही मन क्या कह रहे होंगे? सोचिए और उस पर मनन कीजिए। गांधी जयंती पर यही बड़ा काम होगा।
सोचिए कि क्यों गांधीवादी अन्ना को आंदोलन को विराम देना पड़ा? यह भी एक खामोश हत्या है गांधी की!!!