भगवान दयालु नहीं?

एक कहावत है कि जो होता है, वह अच्छे के लिए होता है अथवा जो होगा, वह अच्छे के लिए होगा। मैं इससे तनिक असहमत हूं। मेरी नजर में हमारे साथ वह होता है, जो उचित होता है। उसकी वजह ये है कि प्रकृति अथवा जगत नियंता को इससे कोई प्रयोजन नहीं कि हमारा अच्छा हो रहा है या बुरा। प्रकृति तो वही करती है, जो हमारे कर्मों व प्रारब्ध के अनुसार उचित होता है। अच्छा या बुरा तो हमारा दृष्टिकोण है। जो हमारे अनुकूल होता है, उसे हम अच्छा मानते हैं और जो प्रतिकूल होता है, उसे बुरा मानते हैं।
वस्तुतः प्रकृति निरपेक्ष भाव से काम करती है। जैसे सूरज की रोशनी अमीर पर भी उतनी ही गिरती है, जितनी की गरीब पर। सज्जन पर भी उतनी ही, जितनी दुष्ट पर। इसी प्रकार बारिश न तो महल देखती है और झोंपड़ी, वह तो सब पर समान रूप से गिरती है।
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जिन भी विद्वानों ने उपर्युक्त कहावत कही है, उसके पीछे हमें सकारात्मकता बनाए रखने का प्रयोजन है। अगर बुरा भी हो रहा होता है तो, जो कि उचित होता है, उसमें अच्छाई पर ही नजर रखने की प्रेरणा है। यह सही भी है कि अच्छाई व बुराई का जोड़ा है, जो अच्छा है, उसमें कुछ बुरा भी होता है और जो बुरा होता है, उसमें भी कुछ अच्छा होता है। हम निराश न हों, इसलिए कहा जाता है कि भगवान जो कर रहे हैं, उसमें जरूर हमारी भलाई है। यह सिर्फ मन को समझाने का प्रयास है। आपने यह उक्ति भी सुनी होगी- जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये। अर्थात प्रकृति जो कर रही है, उसमें राजी रहें, वही हमारी नियति है, चूंकि उसके अतिरिक्त हमारे पास कोई चारा भी नहीं है। बेहतर ये है कि हम उसे हमारे लिए उचित मान कर स्वीकार कर लें।
इसी कड़ी में यह बात जोड़ देता हूं। वो यह कि यह बात भी गलत है कि भगवान कृपा के सागर है, दयालु हैं। वे तो कर्म के अनुसार फल देते हैं। यदि बुरे कर्म करेंगे तो बुरा फल देंगे और अगर हम कर्म अच्छे करते हैं तो वह उसके अनुरूप अच्छा फल देने को प्रतिबद्ध हैं। दयालु तो तब मानते, जब कि हम कर्म तो बुरे करें और भगवान की कृपा से फल अच्छा मिले। ऐसे में कर्म का सिद्धांत झूठा हो जाता। पुनः दोहराता हूं कि परम सत्ता निरपेक्ष है। दया व क्रोध को वहां कोई स्थान नहीं। हां, इतना जरूर है कि चूंकि हमें कर्म करने की स्वतंत्रता मिली हुई है, इस कारण हम अच्छे कर्म करके बुरे कर्मों के प्रभाव को कम कर सकते हैं।
मेरे ख्याल में एक बात और है। सही या गलत, पता नहीं। वो यह कि यदि हम बुरा कर्म कर चुके हैं और उसके बाद भगवान की भक्ति करते हैं, अनुनय-विनय करते हैं, माफी मांगते हैं, तो प्रायश्चित करने के उस भाव की वजह से, सच्चे दिल से गलती मानने से, कदाचित बुरे कर्म का बंधन कुछ कट जाने का भी सिद्धांत हो, जिसकी वजह से बुरे कर्म का उतना बुरा फल न मिलता हो, इस कारण भगवान को दयालु बताया जाता हो।
कुल जमा बात ये है कि यदि हम हमारा भला चाहते हैं तो अच्छे कर्म करें, बुरे कर्म करके ऐसी नौबत ही क्यों लाएं कि माफी की अर्जी लगानी पडें।

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