मैं हूं खरमोर, वोट मांगू मोर

लुप्तप्राय पक्षी खरमोर को बचाने के लिए प्रशासन की अनूठी पहल
बनाया चुनाव जागरूकता का शुभंकर, होगा जिले का भी मैस्कॉट

अजमेर, 15 मार्च। जिला निर्वाचन विभाग ने आगामी 29 अप्रेल को होने वाले लोकसभा चुनाव में मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए अभियान की शुरूआत कर दी। इस बार मतदान जागरूकता के लिए आयोजित की जा रही स्वीप गतिविधियों की थीम अजमेर जिले में पाए जाने वाले लुप्तप्राय पक्षी खरमोर की रहेगी। चुनाव गतिविधियों के लिए खरमोर के शुभंकर, पोस्टर बैनर एवं अन्य प्रचार सामग्री के जरिए मतदान की अपील की जाएगी। प्रशासन इसके जरिए खरमोर के संरक्षण की भी अपील करेगा। खरमोर को अजमेर जिले का मैस्कॉट पक्षी भी चुना गया है।
जिला निर्वाचन अधिकारी श्री विश्व मोहन शर्मा ने आज उप वन संरक्षक श्रीमती सुदीप कौर और जिला परिषद के अतिरिक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी श्री गजेन्द्र सिंह राठौड़ के साथ खरमोर को जिले की स्वीप गतिविधियों का शुभंकर घोषित किया। उन्होंने खरमोर द्वारा वोट अपील के पोस्टर का भी विमोचन किया।
इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रम को संबोधित करते हुए जिला निर्वाचन अधिकारी श्री शर्मा ने कहा कि खरमोर एक बहुत ऊर्जावान पक्षी है। निर्वाचन विभाग इसके जरिए संदेश देना चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति आगामी 29 अप्रेल को इसी तरह ऊर्जा के साथ मतदान करे एवं सभी लोगों को प्रेरित करे। यह खरमोर पक्षी अजमेर जिले के शोकलिया क्षेत्र में अरवड़, गोयला एवं खिरियां सहित आसपास के क्षेत्र में पाया जाता है। इसकी संख्या बेहद कम बची है। प्रत्येक व्यक्ति को इसके संरक्षण के प्रति जागरूक करना भी जिला प्रशासन का उद्देश्य है।
कार्यक्रम में उप वन संरक्षक श्रीमती सुदीप कौर ने कहा कि खरमोर एक बड़े आकार का लम्बी टाँगों वाला भारतीय पक्षी है। इसे तिलोर, लैसर फलोरीकन, चीनीमोर या केरमोर भी कहते हैं। यह मुख्यतः उत्तर-पश्चिमी महाराष्ट्र,नासिक,अहमदनगर से लेकर पश्चिमी घाट तक के भारतीय क्षेत्र में पाया जाता है किन्तु वर्षा ऋतु में यह मध्य प्रदेश,राजस्थान,गुजरात तक फैल जाता है। कभी कभार यह दिल्ली और उत्तर प्रदेश के कुछ पश्चिमी भागों तक भी पहुँच जाता है। भारत में रतलाम,सरदारपुर सहित कई स्थानों पर खरमोर के अभयारण्य हैं।
राजस्थान में अजमेर, भीलवाड़ा, नागौर, टोंक, प्रतापगढ़ में पाया जाता है। अजमेर के शोकलिया वनखंड (सरवाड़ रेंज) में अरवड़, गोयला एवं खिरिया गांवों में बरसात के मौसम में दिखाई देता है। वन विभाग अजमेर द्वारा खरमोर के संरक्षण हेतु 843.67 हैक्टेयर क्षेत्र प्रोजेक्ट लैसर फलोरीकन प्रस्तावित किया गया है। इस अवसर पर अतिरिक्त जिला कलक्टर प्रथम श्री आनन्दी लाल वैष्णव, अतिरिक्त जिला कलक्टर शहर श्री अरविंद सेंगवा, उपखण्ड अधिकारी अर्तिका शुक्ला सहित अन्य अधिकारी एवं स्वीप टीम उपस्थित थी।

जुलाई से अक्टूबर तक दिखायी देते है खरमोर
उप वन संरक्षक श्रीमती सुदीप कौर ने बताया कि नर और मादा बहुत कुछ एक से ही होते हैं। इसके सिर, गर्दन और नीचे का भाग काला और ऊपरी हिस्सा हलका सफेद और तीर सदृश काले चित्तियों से भरा रहता है। कान के पीछे कुछ पंख बढ़े हुए रहते हैं। प्रणय ऋतु में नर बहुत चमकीला काले रंग का हो जाता है और सिर पर एक सुंदर कलँगी निकल आती है। मादा नर से कुछ बड़ी होती है। नर का जाड़ों में और मादा का पूरे वर्ष ऊपरी और बगल का भाग काले चिन्हों युक्त हलका बादामी रहता है।
इस पक्षी को ऊबड़ खाबड़ और झाड़ियों से भरे मैदान बहुत पसंद हैं; जाड़ों में इसे खेतों में भी देखा जा सकता है। इसका मुख्य भोजन घासपात, जंगली फल, पौधों की जड़ें, नए कल्ले एवं कीड़े मकोड़े हैं।
ये प्रवासी पक्षी जुलाई के आखरी पखवाड़े से मध्य अक्टूबर तक ये पक्षी मेहमान बनकर आते है और फिर वापिस उड़ जाते है। ये खास तौर से यहां प्रणय के लिए ही आते हैं। ये बहुत शर्मीले होते है और जरा सी आहट पाते ही उड़ जाते है। यहां पहुचने के करीग महीने भर बाद मादा खरमोर अंडे देती है और नर -मादा दोनो उन्हें सहेजते है। सात दिन बाद इन अण्डों से बच्चे निकल आते हैं।

प्रवास
खरमोर पक्षी कश्मीर की वादियों से प्रजनन के लिए सैलाना आ जाते हैं। वर्षाकाल में इस क्षेत्र की जलवायु इन्हें रास आती है। जुलाई के सुहाने मौसम में इनका आगमन शुरू होता है और अक्टूबर अन्त तक ये बच्चों समेत उड़ककर पुनः अपने घरों को लौट जाते हैं।
बेहद शांत और जरा-सी आहट से घास-बीड़ में छुप जाने वाला नर खरमोर मादा को आर्कषित करने के लिए तेज विशेष प्रकार की टर्र-टर्र की आवाज निकालता है और एक ही स्थान पर खड़े रहकर उछल-कूद करता है। उसकी आवाज और उछल-कूद की क्षमता मादा खरमोर को आर्कषित व प्रजनन के लिए आमंत्रित करती है।

विलुप्ति का संकट
एक शताब्दी पहले तक खरमोर पूरे भारत में हिमालय से लेकर दक्षिण तट पर पाए जाते थे। घास के मैदानों में ही पाए जाने वाले खरमोर की संख्या अब धीरे-धीरे कम होने लगी है। 1980 के बाद तो लगभग विलुप्त से होने लगे खरमोर पर पक्षी विशेषज्ञों व सरकारों का ध्यान गया। खरमोर के कम होने की वजह अभयारण्य के आसपास खेती में भारी मात्रा में रसायनिक खाद और किटनाशकों का उपयोग है।

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