*स्थानकवासी धर्म के जीर्णोद्वारक थे,वीर लोकशाह: गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि*

संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि महावीर प्रभु की मंगलमय जीवन गाथा में प्रसंग चल रहा था कि प्रभु का समवशरण मध्य अपापा में लगा हुआ था।और प्रभु को परास्त करने की भावना से इंद्रभूति गौतम अपने 500 शिष्यों के साथ आते हैं।प्रभु ने शांत भाव से जब इंद्रभूति जी के मन में चल रही शंका का समाधान किया तो वह आश्चर्यचकित हो गए कि जिस शंका को आज दिन तक मैंने किसी को बताया नहीं, उसको उन्होंने कैसे जाना?क्या महावीर सर्वज्ञ है? चिंतन किया तो लगा कि हां यह सर्वज्ञ है. और इन्हीं के चरणों में मेरा कल्याण हो सकता है। तब अपने आप को प्रभु के चरणों में समर्पित कर दिया। फिर अग्निभूति वायुभूति आदि 11 ही विद्वान आए। मगर सब प्रभु के ही होकर रह गए। कोशम्बी नरेश के साथ चंदन वाला भी पहुंच गई। तब योग्य परिषदा देखकर प्रभु ने त्रिपदी का संदेश फरमाया।और फिर तीर्थ की स्थापना की।
फिर भगवान ब्राह्मणकुंड ग्राम में पधारे ।तब भगवान के मुख से देवानंदा और ऋषभदत्त ने समाधान पाया कि वह उन्ही की संतान है, तब उन्होंने विचार किया कि अब हमें भी संसार का त्याग करके अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहिए। उन्होंने भी भगवान के चरणों में संयम स्वीकार कर अपनी आत्मा का कल्याण किया।
भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात 500 साल बाद ही संघ में विकृतियां चालू हो गई। 1500 वर्ष बाद जब विकृतिया और ज्यादा बढ़ गई तब वर्धमान सूरीजी ने संघ की व्यवस्थाओं को संभालने का कार्य किया।
उसके बाद अहमदाबाद के पास अरहटवाड़ा में जन्मे बालक लोकचंद्र जो बड़ा प्रतिभाशाली था।वह जब बड़ा हुआ तब उसकी लेखनी सुंदर होने के कारण यति द्वारा उन्हें आगम लेखन का काम सोपा गया। आगमो को पढ़कर उनके मन में विचार आया कि आगम अलग कह रहे हैं और आज के साधुओं की जीवन शैली अलग चल रही है। शुद्ध धर्म गौण होता जा रहा है।तब उस समय उन्होंने अपने लिए आगमों की एक प्रतिलिपि अलग से तैयार की।जब यति जी को यह पता चला तो आगे आगम लेखन का काम देना बंद कर दिया। उस समय तक उनके पास 32 आगम लिखे जा चुके थे। अब उन्होंने अहिंसा व शुद्ध धर्म की क्रांति का शंखनाद किया। भाण जी आदि 45 नर पुंगवो को उन्होंने जिन धर्म की शुद्ध प्रभावना के लिए तैयार किया। उन्होंने महाराष्ट्र,गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली आदि क्षेत्रों में क्रांति की।उनका बढ़ता प्रभाव देखकर विरोधियों द्वारा उनको भोजन में जहर दे दिया गया। शुद्ध धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। आज जो भी स्थानकवासी धर्म हमारे सामने है वह धर्मप्राण वीर लोकाशाह की देन माना जाता है। हम उनके जन्म जयंती के अवसर पर उनके प्रति हृदय से कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।
चातुर्मास समाप्ति पर गुरु गुणगान सहित संघ द्वारा क्षमायाचना की गई।
गुरुदेव श्री ने भी सभी से क्षमायाचना सहित सभी के प्रति मंगल भावना प्रदान की।
गुरुदेव का मंगलमय विहार कल सुबह 8.15 बजे होगा।
धर्म सभा को पूज्य श्री विरागदर्शन जी महाराज ने भी संबोधित किया।
धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेड़ा एवं बलवीर पीपाड़ा ने किया।
पदमचंद जैन
*मनीष पाटनी,अजमेर*

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