छात्राओं का हंगामा : क्या यह अराजकता का आगाज है?

सावित्री स्कूल की छात्राओं द्वारा गत दिवस स्कूल का समय बदलने के विरोध में किए गए हंगामे के साथ यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि कहीं लोकतंत्र में अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए हम अराजकता की ओर तो नहीं बढ़ रहे? क्या यह ऐसी जागरुकता है, जो हमें पूरी व्यवस्था को छिन्न भिन्न करने को प्रेरित कर रही है? क्या हम व्यवस्था से इतने तंग आ चुके हैं कि उसे नष्ट करने के लिए किसी भी स्तर पर जाने को तैयार हैं?
ये सवाल इसलिए उठते हैं क्योंकि जिस ढंग से अचानक अनियंत्रित विरोध प्रदर्शन हुआ, वह किसी सोची समझी रणनीति का ही हिस्सा प्रतीत होता है। अंदाजा लगाइये कि जिस स्कूल का अस्तित्व खतरे में था, छात्राओं का भविष्य अंधकार में था, तब उसका अधिग्रहण करने की मांग को लेकर छात्राओं ने कोई खास भूमिका अदा नहीं की और मात्र समय बदलने पर इतना बड़ा हंगामा खड़ा कर दिया। छात्राओं के स्वप्रेरित आंदोलन किए जाने की बात तो कत्तई गले नहीं उतरती। हालांकि यह प्रशासनिक जांच से ही स्पष्ट हो पाएगा कि इस हंगामें के पीछे कौन था, मगर चर्चा यही है कि इसमें कहीं न कहीं स्कूल स्टाफ की भूमिका रही होगी। हालांकि स्कूल की प्रिंसिपल रंजू पारीक कहती हैं कि इसमें शिक्षिकाओं का तो कोई रोल नहीं है, लेकिन मगर ऐसा प्रतीत होता कि स्टाफ से टकराव मोल न लेने की वजह से उन्होंने इस प्रकार का बयान दिया है। स्कूल की शिक्षिकाओं की भूमिका का संदेह इसी कारण उत्पन्न हुआ है क्योंकि छात्राओं ने ट्यूशन के समय का जो बहाना बनया है, वह शिक्षिकाओं की सुविधा से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है।
रहा सवाल बाहरी तत्त्वों के हस्तक्षेप का तो कम से कम अभिभावकों द्वारा इस प्रकार की हरकत करने की संभावना तो कम ही नजर आती है। उसमें सीधे तौर पर आईएसी की अजमेर प्रभारी श्रीमती कीर्ति पाठक थीं और साथ ही थे उनके कुछ कार्यकर्ता। इसकी पुष्टि वीडियो फुटेज के साथ ही रंजू पारीक भी कर रहीं हैं कि लाल रंग की साड़ी पहनी हुई महिला इन छात्राओं का नेतृत्व कर रही थी, मगर उन्हें इसका पता ही नहीं लग पाया कि आंदोलन का ताना बाना किसने बुना? कैसी विडंबना है कि एक स्कूल प्रधान को यह पता ही नहीं लगा कि कीर्ति पाठक ने छात्राओं को उकसाया या फिर उकसाया तो किसी और ने तथा कीर्ति पाठक को बाद में बुलाया गया। इससे रंजू पारीक की प्रशासनिक सूझबूझ का खुलासा खुद ब खुद हो रहा है। उधर खुद कीर्ति पाठक का कहना है कि सविता नामक छात्रा ने उन्हें टेलीफोन कर उनकी मदद करने के लिए बुलाया था। वे स्कूल पहुंची तब जाम लगा हुआ था। छात्राएं स्कूल का समय यथावत रखने के लिए कलेक्टर को ज्ञापन देना चाहती थीं, उन्होंने उनकी मदद की इसमें हर्ज क्या है? उनके इस बयान से यह तो समझ में आता है कि वे ऐन वक्त पर वहां पहुंची, पहले से रची गई साजिश का उन्हें कुछ पता नहीं था। जैसे ही उन्हें नेतागिरी करने का निमंत्रण मिला वे दौड़ी दौड़ी चली आईं। प्रदर्शन के दौरान उत्पन्न हालात की उन्हें कल्पना ही नहीं थीं, इसी कारण पूरा ठीकरा अपने ऊपर फूटने के डर से अपनी भागीदारी को जायज ठहराने की कोशिश कर रही हैं। मगर साथ ही उनका यह कहना कि छात्राएं अपने हक के लिए लडऩा सीख रही हैं, से यह सवाल उठता है कि जिन छात्राओं को अभी अपने कर्तव्यों का ही पूरा भान नहीं है, उन्हें अभी से हक की खातिर लडऩा सिखा कर देश का कौन सा भला किया जा रहा है? ये तो गनीमत है कि कोई दुर्घटना नहीं हुई, वरना लेने के देने पड़ जाते। विरोध प्रदर्शन के दौरान उत्पन्न माहौल पर बात करें तो यह साफ नजर आया कि कीर्ति पाठक छात्राओं का नेतृत्व तो कर रही थीं, मगर छात्राएं उनके नियंत्रण नहीं थीं। वे बेकाबू हो कर इधर-उधर भटक रही थीं, जिससे किसी भी वक्त दुर्घटना होने का अंदेशा था।
अब जरा छात्राओं कथित हक की भी बात कर लें। उनको पहले से चला आ रहा समय तो सूट करता है, मगर बदले गए समय से कोचिंग खराब होती है। संभव है उनका तर्क अपनी जगह पर ठीक हो, मगर इस प्रकार यदि अन्य स्कूल के छात्र-छात्राएं भी अपनी सुविधा के हिसाब से स्कूल खुलवाने पर अड़ जाएंगे तो पूरे सिस्टम का क्या होगा? बस यहीं अंदेशा होता है कि कहीं अपने हकों को हासिल करने के लिए हम अराजकता की ओर तो नहीं बढ़ रहे?
वस्तुत: यह सिस्टम पूरे राजस्थान में लागू है। वर्षों से यही सिस्टम है। मौसम बदलने पर जिस प्रकार कोर्ट का समय, पानी-बिजली बिल भरने का समय इत्यादि बदले जाते हैं, ठीक उसी प्रकार स्कूलों का समय भी बदला जाता है। यह सभी पर समान रूप से लागू होता है और उससे भी बड़ी बात ये कि यह इसी साल अचानक लागू नहीं किया गया है। ऐसा नहीं है कि 1 अक्टूबर से एक-दो दिन पहले कोई नया नियम लागू किया गया हो। यह नियम पहले से घोषित है। पहली बात तो उसके प्रति स्कूल विशेष की असहमति के कोई मायने ही नहीं हैं, मगर यदि उनकी असहमति है भी तो उसके लिए पहले से ही आगाह किया जाना चाहिए था, न कि अचानक नियम लागू होने वाले दिन स्कूल से बाहर आ कर हंगामा खड़ा करना।
रहा सवाल कीर्ति पाठक के साथ चल रहे दो युवकों नील शर्मा व सुशील पाल का, तो पुलिस ने उन्हें कानून व्यवस्था के नजरिए से शांति भंग के मामले में गिरफ्तार किया, मगर कीर्ति पाठक के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की, जबकि प्रदर्शन का नेतृत्व वे कर रही थीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि पुलिस व प्रशासन उनसे घबराने लगा है? लगे हाथ बता दें कि इस घटनाक्रम के सिलसिले में कीर्ति पाठक द्वारा यू ट्यूब व फेस बुक पर एक वीडियो फुटेज डाला गया है। इसे देखने से पूरे प्रकरण को कुछ हद तक समझा जा सकता है। वीडियो फुटेज देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिए:-
पुलिसिया कहानी हमारी जुबानी……..

2 thoughts on “छात्राओं का हंगामा : क्या यह अराजकता का आगाज है?”

  1. छात्राओं का ये हंगामा वाकई प्रयोजित घटना लगती है ये बात सही है की इसमें जरुर कोचिंग सेंटर का हाथ होगा क्योंकि कुछ तो स्कूल के बिलकुल सामने है दूसरी बात वो ही राजनीति की जिस तरह संसद में सांसद बड़ी बड़ी कंपनी की बात उठाते है और कंपनी से लाभ पाते है उसी तरह यहाँ भी कुछ कोचिंग सेंटर की बेकिंग होगी.

    दूसरी बात हमेशा की तरह पुलिस और प्रशासन के हाथ पैर फूल गए और उन्हें नहीं सूझा की बच्चिओं से कैसा बर्ताव करें और वो ही जंगलीपन पर उतर गए.

    और एक और बात स्कूल का सरकारीकरण इसकी बर्बादी की शुरुआत है, ये वाकई में हिंदी माध्यम की छात्राओं और मध्य्म्वार्गिये परिवार के लिए बड़ा अच्छा स्कूल था स्वयम मेरी पत्नी ने यही से शिक्षा ली और अध्यापन कराया.

    पहले इस स्कूल ने बोर्ड स्तर पर कई मेरिट दी है.

    सरकारीकरण के बाद कितनी प्रगति हुई ये जानकारी आपको जून के परीक्षा परिणाम से मिल जाएगी.

  2. नेता गिरी करने का निमंत्रण ???
    शायद ऐसे गुण/अवगुण तो हम में अभी नहीं आये हैं…..
    जिस पार्टी से जुड़े हैं वह भी नेता बनाने की पक्षधर नहीं अपितु जनता को अपने कर्तव्यों और हकों के लिए जागरूक करने का प्रयास करती रही है और करती रहेगी…..
    जीवन की एक बात तो स्पष्ट: बताना चाहेंगे…..इस जीवन में प्रभु का दिया सब कुछ है….किसी बात की कमी नहीं है….दिल से जुड़े हैं अपने काम से….भावनाओं से काम लेते हुए कार्य करते हैं…किसी की नज़रों में गलत होता है,किसी की सही…..हमें उस से मतलब नहीं….
    पुकारे जाने पर वहां पहुंचे….
    छात्राओं से बात की ,हाँ वे उत्तेजित थीं…..और कूच कर चुकीं थीं…..
    उन्हें पुन: बुलवा के संवाद कायम किया…… और कोई भी बात हो …किसी का भी स्वार्थ रहा हो बीच में परन्तु मैं एक माँ हूँ और जब वे कोचिंग के प्रति tensedदिखीं तो मुद्दा दिल को छुआ (आज के प्रतिस्पर्धा के युग में कोचिंग का महत्व माँ-बाप बाखूबी समझते हैं) और हम ने कलेक्ट्रेट तक उन के साथ कूच किया और उन का ज्ञापन देने में मदद की….
    ये सच्चाई है कि मामला पुलिस की असंवेदनशीलता से बिगड़ा…..
    यातायात प्रबंधन का कोई इंतजाम नहीं था…..
    सही बात तो ये है कि छात्राओं की presence को नज़रंदाज़ करते हुए पुलिस वाहनों को आने जाने दे रही थी…..
    कहीं कोई हादसा हो जाता तो???ये प्रश्न तो हमारा है…..
    उन्होंने ने छात्राओं से दुर्व्यवहार किया जिस को आप इलेक्ट्रोनिक मीडिया के द्वारा देख चुके होंगे और छात्राओं का बयान अखबारों में पढ़ भी चुके होंगे…..
    सुशील पाल और नील शर्मा पुलिस का काम कर रहे थे……वे यातायात संभाल रहे थे और छात्राओं को एक जगह छाया में बैठाने कि कोशिश कर रहे थे …..क्या ये भड़काना हुआ???

    रही बात ठीकरा सर फूटने का डर??? इस की हमें परवाह नहीं…..जब गलती की ही नहीं तो डर कैसा ???
    छात्राओं के हक़ की बात तो हम स्वयं अभी भी करते हैं…..कर्तव्य का भान तो छात्राओं को पहले से ही था तभी तो वे विद्यालय का समय बदलने की बात कर रही थीं….
    अभी इस नन्हे से जीवन में उन का कर्त्तव्य है पढ़ लिख कर एक अच्छा नागरिक बनना तो इस कर्तव्य के प्रति वे सजग हैं…..कर्त्तव्य के साथ साथ वे अपने हक के लिए अगर वे खड़ा होना चाहती हैं तो वे प्रशंसा की पात्र हैं कि जो काम उन के बड़े बुज़ुर्ग नहीं कर पा रहे वे उस को करने जा रही हैं…..
    अपने हक की लड़ाई को यदि कोई लड़ना चाहेगा तो आइ ऐ सी उस का साथ ज़रूर देगा…..अगर इस को उकसाना कहते हैं तो ये गलती हम एक बार नहीं बार बार करेंगे…….

    इस लड़ाई को हम अलग नज़रिए से देखने की कोशिश करें……
    अगर कोई परिपाटी गलत चली आ रही है और सब उसे बदलना चाहें तो उसे अपनी नाक का सवाल बनाए बिना बदलना बेहतर है…..
    ये विद्यालय के समय बदलने के सवाल को यदि हम थोपें न तो बेहतर है…..
    हम शिक्षक और विद्यार्थियों से पूछ सकते हैं कि कौन सा समय उन के लिए सही है….
    कई शिक्षक बहुत दूर से आते हैं…यदि उन की सहूलियत के अनुसार समय किया जाए तो कार्य सम्पादन सुचारू रूप से होगा….
    हम इसे नाक का सवाल न बनाएं तो बेहतर है….
    सरकार यदि एक बढ़िया वातावरण देती है तो कार्य कुशलता पर अनुकूल प्रभाव ज़रूर पड़ेगा…..
    आज समय बदल रहा है और इस के साथ साथ बदल रही है मानसिकता……
    संवेदनशील बनेगे तो दिल जीतेंगे नहीं तो आँख से उतर जायेंगे……

    अपनी राय दीजिये और हमारी गलती बताइये……

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