लकीर के फकीर प्रशासन ने बंद करवाया संस्कृति द स्कूल

लकीर का फकीर की कहावत तो आपने सुनी ही होगी। यह गर्मियों में एक हफ्ता और स्कूल बंद रखने के प्रशासनिक फरमान के मामले में संस्कृति द स्कूल को बंद करवाने पर पूरी तरह से लागू होता है।
हुआ दरअसल ये कि सरकार के निर्देश पर जयपुर की तर्ज पर अजमेर के जिला कलेक्टर वैभव गालरिया ने भी गर्मी को देखते हुए कक्षा 1 से 8 तक के बच्चों की छुट्टी घोषित कर दी थी। मगर स्कूल के प्रिंसिपल अमरेंद्र मिश्रा ने इस आदेश को यह कहते हुए कि दरकिनार कर दिया कि न केवल स्कूल पूरी तरह से एसी है, बल्कि बच्चों को स्कूल लाने वाली बसें भी एसी हैं। स्कूल प्रशासन ने कलेक्टर को भी स्कूल खुली रखने देने का आग्रह किया था, लेकिन उन्होंने कोई तवज्जो नहीं दी। ऐसे में डीईओ आफिस से आरटीई अधिकारी राजेश तिवारी व प्रवीण शुभम निरीक्षण के लिए संस्कृति स्कूल पहुंच गए और कलेक्टर के आदेशों का हवाला देते हुए कक्षा 1 से लेकर 8 वीं तक के बच्चों की छुट्टी रखने के निर्देश दिए। मजबूरी में स्कूल प्रशासन को स्कूल बंद करनी पड़ी और सभी अभिभावकों को बाकायदा यह लिख कर भी भिजवाना पड़ा कि स्कूल अब 9 जुलाई को ही खुलेगी।
यूं तो यह सामान्य सी बात है कि प्रशासनिक आदेश सभी पर एक समान लागू होता है, मगर यदि किसी के ठोस तर्क हो तो उसे स्वीकार करते हुए चाहें तो छूट भी दी जा सकती है। जब छुट्टी की ही गर्मी के कारण थी और यदि किसी स्कूल की बसें व पूरा स्कूल भवन एसी है तो उसे छूट देने में कोई बहुत बड़ा पहाड़ नहीं टूटने वाला था, मगर जिला व शिक्षा प्रशासन ने वैसा ही व्यवहार किया, जैसा लकीर का फकीर करता है।
दरअसल सरकार ने यह जिला कलेक्टरों पर छोड़ा था कि वे चाहें तो एक सप्ताह तक स्कूल बंद करने के आदेश जारी कर सकते हैं। अर्थात सरकार का ऐसा स्टेंडिंग आदेश नहीं था, जिसके लिए सरकार से मार्गदर्शन की जरूरत पड़ती। जिला कलेक्टर चाहते तो अपने स्तर पर छूट दे सकते थे। मगर हमारे यहां प्रशासनिक व्यवस्था है ही ऐसी कि कोई भी अधिकारी फालतू का पंगा मोल नहीं लेना चाहता। वो इस कारण भी कि या तो कुछ जिद्दी अभिभावक हल्ला करते या फिर शहर के हर मसले में दखल देने वाले संगठन विरोध कर देते। अजमेर शहर महिला कांग्रेस अध्यक्ष सबा खान ने तो जिला कलेक्टर को ज्ञापन देकर विरोध दर्ज भी करवा दिया। असल में किसी भी राजनीतिक दल के अग्रिम संगठन संबंधित वर्ग के हितों का ध्यान रखने व उनको संगठन से जोडऩे की खातिर बने होते हैं। सीधी सी बात है कि एनएसयूआई या अभाविप होते तो बात समझ में भी आती, मगर महिला कांग्रेस का तो स्कूल व्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं है, फिर भी हमारे यहां चलन ऐसा हो गया है कि अग्रिम संगठन उन मसलों पर भी सक्रिय हो जाते हैं, जिनका उनसे कोई लेना देना नहीं है। यहां तक कि कई बार अपने मूल संगठन की इजाजत भी नहीं लेते। यानि कि उन्हें शहर के हर मसले पर बोलने का लाइसेंस मिला हुआ है।
बहरहाल, संस्कृति द स्कूल के मामले में तो यह भी महसूस होता है कि इसमें बड़े लोगों को उनकी हैसियत दिखाने की मंशा भी रही होगी। जाहिर सी बात है, कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो, जिला कलेक्टर से तो बड़ा नहीं हो सकता। आखिर वे जिले के मालिक हैं। वैसे, एक बात बता दें, इस मालिक वाले भाव को समाप्त करने की खातिर ही सरकार ने इस पद का नाम जिलाधीश से जिला कलेक्टर किया था, क्योंकि जिलाधीश नाम से अधिनायकवाद व सामंतशाही का आभास होता था। खैर, नाम भले ही बदल दिया गया हो, मगर अधिकार तो सारे वो ही हैं। ओर हैं तो उनका उपयोग भी होगा ही

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