साहित्य उत्सव का हश्र

अजमेर के इंडोर स्टेडियम की खाली कुर्सियों पर साहित्य उदास, अलसाया सा, निढालसा बैठा रहा। मंच पर निर्बाध रुप से विचारों की सरिता बहती रही लेकिन दूसरे दिन अपने चाहने वालों का इंतजार करने के बाद आखिरकार साहित्य निराशा से उठकर चला गया। उसे लगता रहा कि अजमेर लिटरेचर फेस्टिवल जैसा आयोजन करने लायक यह शहर है ही नहीं। हाँ यदि आयोजनकर्ता नागरिकता संशोधन एक्ट या एनआरसी पर चर्चा करने असउद्दीन औवेसी और प्रज्ञा ठाकुर को बिठा देते तो पंडाल में पैर रखने को भी जगह नहीं मिलती और राष्ट्रीय मीडिया पूरे चाव से कवर करता। पिछले साल नसीरुददीन शाह की मौजूदगी का विरोध करती भीड़ भी इस बार नहीं फटकी। दरअसल आयोजनकर्ताओं को यह समझ लेना चाहिए कि अजमेर शुरु से ही टायर्ड और रिटायर्ड लोगों का शहर रहा है। मुगल बादशाह भी अपनी थकान आनासागर की बारहदरी पर मिटाते रहे हैं तो ब्रिटिश अफसर भी छुट्टियां अजमेर में बिताते थे। अजमेर की आबोहवा आलसी और निढाल लोगों को आराम देती है। किसी दौर में यह शहर राज्य का शिक्षित शहर माना और कहा जाता था। अब बौद्विक रुप से भी पिछड़ गया है। इसका प्रमाण अजमेर लिटरेचर फेस्टिवल है जो हर साल अपने आयोजन में साहित्यप्रेमियों के लिए सजता संवरता है लेकिन हर साल खाली कुर्सियों की संख्या बढ़ती जा रही है। देश में चर्चित साहित्य की हस्तियों के अलावा कोई एक दो फिल्मी सेलिब्रिटी, रोज शाम को रंगारंग कार्यक्रम, मीडिया कॉन्क्लेव और आवार्ड जैसे नाटकीय आयोजन इसमें शामिल नहीं किए जाएगें तब तक इस तरह का आयोजन गलैमरस चैनलों की भीड़ में दूरदर्शन सरीखा सा बनकर रह जाएगा।

– मुजफ्फर अली

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