बाल विवाह प्रतिबंध कानून बनवाने वाले शारदा खुद शिकार थे बाल विवाह के

यह सर्वविदित है कि बाल विवाह की रोकथाम के लिए सरकार हर साल कई उपाय करती है। प्रशासन की सख्ती से बाल विवाह रुकते भी है, बावजूद इसके अब भी गुपचुप तरीके से सामूहिक बाल विवाह होने के समाचार यदाकदा सुनाई देते हैं। अजमेर के लिए यह बड़े गौरव की बात है कि बाल विवाह प्रथा रोकने के लिए बने कानून शारदा एक्ट का श्रेय अजमेर के दीवान रायबहादुर हरविलास शारदा के खाते में दर्ज है, मगर यह उतना ही दिलचस्प है कि वे खुद बाल विवाह की चपेट में आए थे।
इतिहास में दर्ज यह तथ्य कई साल पहले दैनिक भास्कर में वरिष्ठ पत्रकार श्री सुरेश कासलीवाल ने उजागर किया था। अपनी स्टोरी में उन्होंने खुलासा किया था कि शारदा की पहली शादी मात्र साढ़े नौ साल की उम्र में 16 नवंबर 1876 को श्री लालचंद की पुत्री काजीबाई के साथ हुई थी। कम उम्र में ही काजीबाई का निधन हो गया। इस पर उन्होंने 1889 में दूसरी शादी की, मगर दूसरी पत्नी की भी कुछ समय बाद निधन हो गया। इस पर उन्होंने 1901 में तीसरी शादी की। उन्होंने अपनी पुस्तक री कलेक्शंस एंड रेमीनीसेंसेज में लिखा कि कम उम्र में ही शादी हो जाने के कारण लड़कियों की कम उम्र में ही मृत्यु हो जाती है क्यों कि वे शारीरिक रूप से परिपक्व नहीं हो पातीं।
कुछ वर्ष पहले राजस्थान पत्रिका ने इस विषय पर काम किया और वे शारदा के प्रपौत्र की बहू ममता शारदा का साक्षात्कार लेने में कामयाब हो गया। ममता शारदा ने बताया कि हरबिलास शारदा शुरुआत से समाज सुधार के लिए प्रयासरत थे। उनकी पत्नी पार्वती गांव की थी। इसलिए उनका गांव में आना-जाना लगा रहता था गांव में बालक बालिकाओं की कम उम्र में शादी को देखते हुए उन्होंने कुछ करने की ठान ली। उन्होंने कई पुस्तकों का अध्ययन कर वैज्ञानिक आधार पर शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्वता की उम्र के अनुसार विवाह का एक प्रस्ताव बनाया। वे इसे लेकर तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारियों के पास गए। ब्रिटिश अधिकारियों को वह प्रस्ताव बहुत पसंद आया। तत्कालीन ब्रिटिश भारत में 1 अक्टूबर 1929 को को शारदा एक्ट पारित किया गया। एक अप्रैल 1930 को यह कानून लागू हो गया। इसके बाद बाल विवाह एक अपराध की श्रेणी में आ गया। इसके बाद लड़की की 18 वर्ष एवं लड़के के विवाह की आयु 21 वर्ष रखी गई। हरविलास शारदा ने अभियान चलाकर बाल विवाह का विरोध किया। तब की ब्रिटिश सरकार ने भी उनका सहयोग किया। साथ ही एक्ट को लागू करने में सख्ती दिखाई । इस दौरान उन्हें कई बार विरोध भी झेलना पड़ा। समाज सुधार के इस विशेष प्रयास के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें दीवान रायबहादुर की उपाधि प्रदान की। साथ ही समय पर कहीं अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया।
हरविलास शारदा का जन्म 3 जून, 1867 को राजस्थान के अजमेर शहर में हुआ था। उनके पिता धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे, जिसका प्रभाव उनके जीवन पर पड़ा। उन्होंने आगरा कॉलेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। शिक्षा पूरी करने के बाद वे अदालत में अनुवादक के पद पर कार्य करने लगे। वे राजस्थान में जैसलमेर के राजा के अभिभावक रहे और 1902 में अमजेर के कमिश्नर के कार्यालय में ‘वर्नाक्यूलर सुपरिटेंडेटÓ के पद पर कार्य किया। रजिस्ट्रार, सब जज और अजमेर-मारवाड़ के स्थानापन्न जज के रूप में काम करने के बाद 1924 में वे इस सेवा से निवृत्त हुए।
हरविलास शारदा ने आजादी के दौरान भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिए काफी संघर्ष किया। उन्होंने स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित ‘परोपकारिणी सभाÓ के सचिव के रूप में कार्य किया और लाहौर में हुए ‘इंडियन नेशनल सोशल सम्मेलनÓ की अध्यक्षता की।
वर्ष 1924 में हरविलास शारदा अजमेर-मारवाड़ से केंद्रीय विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। वह पुन: इस क्षेत्र से 1930 में निर्वाचित हुए थे। किया था। शारदा ने अपने जीवन में लेखन का कार्य भी किया था। उनका सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ-‘हिंदू सुपीरियॉरिटीÓ है। हरविलास शारदा का 20 जनवरी, 1952 को निधन हो गया।

-तेजवानी गिरधर
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