हम तो साइकिल का भी चालान कटवाते थे

मैं तारागढ़ हूं। भारत का पहला पहाड़ी दुर्ग। समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई। अस्सी एकड़ जमीन पर विस्तार। वजूद 1033 ईस्वी से। राजा अजयराज चौहान द्वितीय की देन। सन् 1033 से 1818 तक अनगिनत युद्धों और शासकों के उत्थान-पतन का गवाह। 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों के कब्जे में रहा। अब दरगाह मीरां साहब, टूटी-फूटी बुर्जों, क्षत-विक्षत झालरे के अतिरिक्त कुछ नहीं। एक बस्ती जरूर मेरे आंचल में सांस लेती है। देश की आजादी के बाद हुए हर बदलाव भी का साक्षी हूं।
आज मेरा शहर कोरोना से ग्रस्त है। इसके साथ चर्चा में आए नए शब्द हैं क्वारेंटाइन, सेनेटाइज, शेल्टर होम इत्यादि, मगर कोरोना के बाद यदि सबसे ज्यादा कोई चर्चित शब्द हैं तो वो हैं चालान व सख्ती। यह पुलिस की मुस्तैदी व सख्ती ही कहिये या इस ऐतिहासिक व महान शहर के वाशिंदों की तथाकथित आवारगी, जिसका परिणाम है कि आज सोलह हजार से भी ज्यादा वाहन पुलिस थाना परिसरों की शोभा बढ़ा रहे हैं। जिन व्हीकल्स पर डेली कपड़ा मारा जाता था, वे दो माह से कड़ी धूप और आंधी-तूफान-बारिश की मार झेल रहे हैं। किसी ने बताया कि एक मोटर साइकिल की हेड लाइट के गार्ड में सुरक्षित खाली जगह देख चिडिय़ा ने तो घोंसला ही बना डाला। खैर, व्यवस्था दी गई कि जो चाहे वह जुर्माना अदा करके वाहन ले जाए, मगर शर्त ये कि फिर वाहन सड़क पर ले कर मत आता, सो लोग वाहन छुड़वा ही नहीं रहे। लोगों ने भी शायद सोच रखा है कि अब कोर्ट से ही छुड़वाएंगे। ऑन द रिकॉर्ड चालान तो इतने कटे हैं कि रिकॉर्ड ही बन गया है। समझा जाता है कि पूरे राजस्थान में सबसे ज्यादा रेवेन्यू अजमेर से ही हुई है। तभी तो बड़े गर्व के साथ उसके आंकड़े बताये जाते हैं। लंबे लॉक डाउन व कफ्र्यू के कारण अजमेरी लालों का विल पावर टूल डाउन हो गया है, मगर नियमों की अवहेलना की आदत अब भी बरकरार है। पुलिस का इकबाल भी ऊंचा है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि दो माह से लोगों को रोकते-रोकते पुलिस की आदत भी हो गई है कि जैसे ही कोई अजमेरी लाल दिखाई देता है, रोकने को लपकती है। पुलिस कप्तान को इसका अंदाजा था, तभी तो बाकायदा एक ऑडियो संदेश में समझाना पड़ा कि डेली अपडेट रहना। अब छूट शुरू होगी। ऐसा न हो कि जिसे छूट हो उसे ही पकड़ लो। खैर, तीसरे लॉक डाउन के बाद भी जैसे ही जरा सी छूट मिली, फिर धड़ाधड़ चालान कट गए। जरूर हमारी फितरत में ही कोई खोट है। बहुत समझाने के बाद भी बिना मास्क के, बिना हेलमेट के निकल पड़ते हैं। कह रखा है कि टू व्हीलर में एक जना अलाऊ है, फिर भी बहादुरी से दो बैठ कर निकलते हैं। कई तो ऐसे हैं जो पुलिस को देख कर और तेजी से वाहन चलाते हैं। इस बात की भी परवाह नहीं करते कि डंडा नामक शस्त्र, अस्त्र के रूप में फैंक कर इस्तेमाल किया जा सकता है। गर पकड़े गए और चालान कटने लगे तो हर कोई मोबाइल फोन पर किसी से बात करवा करवा छूटने के जतन करता है। इसी चालान को लेकर लॉक डाउन से पहले कितनी ही बार ट्रेफिक पुलिस से टकराव हुए हैं। पार्षद तक संगठित हो कर भिड़ चुके हैं। ऐसा लगता है कि अजमेर वासियों की आदत पुरानी है। चालान से उसका चोली दामन का साथ है।
बात सख्ती की चली है तो अब ये शब्द इरिटेट करता है। सख्ती… सखती…. सख्ती। क्या हम जंगली हैं? जगंली न सही ट्रेफिक सेंस के मामले में तो हम फिसड्डी हैं ही। हाल ही सोशल मीडिया पर वायरल एक कविता, जिसे तुकबंदी कहना अधिक उपयुक्त रहेगा, ख्याल में आती है। कदाचित उसमें कुछ अपवाद या अतिशयोक्ति भी हो सकती है, मगर वह कुल मिला कर सख्ती का शब्द चित्र तो खड़ा करती ही है। मगर अफसोस, अज्ञात कवि की इन पंक्तियों को सुना-अनसुना कर दिया गया:-
पुलिस खड़ी है डगर-डगर।
आ मत जाना शस्त्रीनगर।
लठ सजा रखे हैं हर एक मोड़ पर।
निकलो तो सही फ्रेजर रोड पर।
लाल कर देंगे पिछवाड़ा।
गलती से मत चले जाना भोपों का बाड़ा।
शरीर का छुड़ा देंगे सारा जंग।
जो तुम आये राम गंज।
बदन से निकलेगी आग।
आ मत जाना दौलत बाग।
उतार देंगे सारी दादागिरी।
चले मत जाना ब्रह्मपुरी।
जिसको भी खाना हो पुलिस का पेड़ा।
आ कर दिखाओ हाथी खेड़ा।
घर में ही रहिये और लॉक डाउन का पालन कीजिए।
लॉक डाउन का ठीक से पालन नहीं करने का नतीजा सामने है। कहां तो अजमेर मॉडल बनने जा रहा था, और कहां रेड जोन में शुमार है। डेली मरीज बढ़ रहे हैं। पूरे उत्तर भारत में सबसे पहले संपूर्ण साक्षर बने इस शहर के वाशिंदों ने ये मान कर चहल-कदमी, मेल-मिलाप बदस्तूर जारी रखा कि ख्वाजा साहेब का करम और ब्रह्मा बाबा का रहम काम कर जाएगा। हां, ये उनकी ही रहमत है, जो लोग अभी महफूज हैं। वरना मंजर कुछ और ही होता। मगर नियम तोडऩे की सजा तो भुगतनी ही होगी।
बहुत कम लोगों को ही पता होगा कि अंग्रेजों के जमाने में भी अजमेरियों की नियम तोडऩे की ऐसी ही आदत थी। तभी तो ब्रिटिश पुलिस ने तब भी सख्त नियम बनाए थे। सन् 1935 में सख्त यातायात नियम के तहत ही साइकिल चलाई जा सकती थी। हालांकि उस जमाने में संपन्न लोग की साइकिल चलाया करते थे, मगर नियम तोडऩे की आदत तब भी थी। नियम के तहत साइकिल पर चालू हालत में घंटी होना व पीछे रिफ्लेक्टर होना अनिवार्य था। शहरी क्षेत्र में दस किलोमीटर और बाहरी इलाके में बीस किलोमीटर से ज्यादा गति में साइकिल चलाना अपराध था। नियम की अवहेलना करने पर बीस रुपया जुर्माना अदा करना पड़ता था। तब बीस रुपए की बड़ी कीमत हुआ करती थी। आज तो दो-चार-पांच सौ भी नहीं अखरते। अजमेरियों की और आदतों पर गुफ्तगू फिर कभी।

आपका खैरख्वाह
तारागढ़

-प्रस्तोता
तेजवानी गिरधर
7742067000
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