*जैन दर्शन विज्ञान की कसौटी पर*

सुरेंद्र जैन नीलम
जैन दर्शन एक यथार्थ विज्ञान है, जो अनुभव की प्रयोगों पर आधारित है । आत्मा इसकी प्रयोगशाला है । विज्ञान का अभिप्राय वह क्रमबद्ध ज्ञान है जो प्रयोगों पर आधारित होता है तथा इसके निष्कर्षों में सार्वभौमिक सत्यता निहित होती है। किसी विज्ञान के निश्चित सिद्धांत होते हैं, किंतु यह आवश्यक नहीं कि उसके निष्कर्ष सदैव ही सत्य हो । विज्ञान की अनेक शाखाएं हैं , कुछ विज्ञान के सिद्धांत तो अटल और सार्वभौमिक सत्यता लिए हुए होते हैं ,इनकी विषय वस्तु जड़ होती है , जिनके बारे में प्रयोगशाला के विभिन्न प्रयोगों के जरिए सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जाता है। इसके विपरीत कुछ विज्ञान ऐसे भी होते हैं , जिनके सिद्धांतों अथवा निष्कर्षों में निश्चियत्व का अभाव रहता है । इनके निष्कर्ष अनुमान और अनुभव पर आधारित होते हैं,जैसे मौसम विज्ञान इसी की श्रेणी में आता है ।
वैसे अनुभव ही प्रत्येक ज्ञान का स्रोत होता है, लेकिन धर्म अनुभव पर आधारित ऐसा विज्ञान है , जिसकी विषय वस्तु चेतन आत्मा होती है, जिस पर विश्व की किसी भौतिक प्रयोगशाला में प्रयोग नहीं किए जा सकते बल्कि जिज्ञासा और अनुभव आदि के द्वारा ही सत्यान्वेषण किया जाता है परंतु उसमें भी निश्चयत्व का पूर्ण अभाव होता है ।
जैन दर्शन एक ऐसा ही यथार्थ विज्ञान है जो तर्क शक्ति पर खरे उतरने वाले असंख्य ज्ञान सम्मत तथ्यों एवं गुढ रहस्यो से भरा हुआ है। जैन धर्म का प्राचीन साहित्य जैन आगम आदि इन वैज्ञानिक तथ्यों के अथाह भंडार है ।अब प्रश्न उठता है कि क्या धर्म के सिद्धांतों एवं एवं निष्कर्षों का बुद्धि के आविष्कारों द्वारा सत्य प्रमाणित करना आवश्यक है?क्या आज विज्ञान के निष्कर्षों के लिए जिन प्रयोगों एवं अन्वेषण पद्धतियों का प्रयोग होता है , उन्हें धर्म विज्ञान के क्षेत्र में प्रयुक्त किया जा सकता है ? इस पर मेरा अपना विचार है कि ऐसा अवश्य किया जाना चाहिए और यह यह कार्य जितना शीघ्र हो उतना ही अच्छा है ऐसा मैं सोचता हूं ।
जैन तत्व वेत्ताओं ने हजारों वर्षों पूर्व शास्त्रों में अनेक वैज्ञानिक तथ्यों का प्रतिपादन किया ।आगम शास्त्र उन अनेक गूढ रहस्यों और विज्ञान सम्मत तथ्यों का रहस्योद्घाटन करते हैं ,जो कालांतर में विज्ञान की कसौटी पर सत्य प्रमाणित हुए । अणु , परमाणु ,जीव ,पुद्गल , वनस्पति आदि का जितना अधिक और सूक्ष्म विश्लेषण जैन दर्शन करता है ,उतना विज्ञान सम्मत दर्शन अन्य किसी धर्म का नहीं है।
इस संदर्भ में विश्व का कोई अन्य धर्म इसकी समानता नहीं रखता । जैन धर्म के आगम शास्त्रों में छिपी अंत ज्ञान राशि के वैज्ञानिक विश्लेषण एवं सरल प्रस्तुतीकरण की आवश्यकता है ताकि समूचे विश्व के लिए जैन दर्शन सार्वभोमिक व उपयोगी बन सके। जैन दर्शन के संबंध में प्रसिद्ध डाक्टर टैसीटेरी का कथन है कि ‘जैन दर्शन के मुख्य तत्व विज्ञान शास्त्र पर आधारित है । ज्यों ज्यों विज्ञान की उन्नति होती जाएगी , जैन धर्म के सिद्धांत वैज्ञानिक प्रमाणित होते जाएंगे ।
अब तक जैन दर्शन की अनेक सिद्धांत एवं मान्यताएं विज्ञान की कसौटी पर अनुसंधान एवं प्रयोगों के द्वारा सत्य प्रमाणित हो चुके हैं, उन पर दृष्टिपात कर लेने के बाद जैन दर्शन को विज्ञान सम्मत स्वीकार कर लेने में किसी प्रकार की हिचकिचाहट नहीं हो सकती है ।
*प्रकृतिवाद :*
जैन दर्शन ने हजारों वर्ष पहले ही स्पष्ट् घोषणा की थी कि वनस्पति सजीव है । पेड पौधो, वृक्षों आदि में भी अन्य प्राणियों की भांति ही सचेतन जीवन है । अन्य जीवो की नाड़ियों के समान वनस्पति में भी स्पंदन होता है एवं उन पर चोट, सर्दी गर्मी , विष एवं मादक द्रव्यों जैसी आकस्मिक घटनाओं का प्रभाव पड़ता है और पेड़-पौधे इसकी अनुभूति करते हैं। जैन धर्म की यह मान्यता और सिद्धांत कभी कुछ तार्किक और मनचले लोगों के उपहास का विषय रहा किंतु अंततः यह सिद्धांत विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरा । सुप्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डॉक्टर जगदीश चंद्र बसु ने अपने आश्चर्यजनक प्रयोगों द्वारा वैज्ञानिक विश्लेषण करके सिद्ध कर दिया कि जैन दर्शन की यह मान्यता पूरी तरह विज्ञान सम्मत है कि वनस्पति सजीव है । इतना ही नहीं उन्होंने पेड़ पौधों की स्पंदन तथा विभिन्न परिस्थितियों सर्दी गर्मी के द्वारा वनस्पति पर पड़ने वाले प्रभाव एवं उनकी अनुभूति को स्पष्ट प्रदर्शित करके पूरे विश्व को चकित कर दिया । इससे अब जैन धर्म की मान्यताओं को कल्पना की उड़ान और अव्यावहारिक मानने वाले लोग भी जैन दर्शन को विज्ञान सम्मत मानने से इन्कार नहीं कर सकते हैं।
जैन तत्व वेत्ताओं की मान्यता है कि पानी की एक बूंद में सहस्रों जीवों का वास निवास है ।समूचा विश्व जैन दर्शन की इस मान्यता को तब तक हास्यास्पद मानते रहा ,जब तक कि माइक्रोस्कोप का आविष्कार नहीं हो गया । सूक्ष्मदर्शी यंत्र की खोज ने लोगों के अविश्वास को दूर करके जैन दर्शन की इस मान्यता पर भी प्रमाणिकता की मुहर लगा दी । लोगों को लगा कि जैन दर्शन असंदिग्ध रूप से वैज्ञानिक तथ्यों का विश्लेषण करता है ,जिस बात को विज्ञानवेताओं ने माइक्रोस्कोप के आविष्कार के बाद स्वीकार किया कि वैज्ञानिक जिस चीज को अपने विज्ञान की खोज मानते हैं , वह तो हजारों वर्ष पूर्व ही जैन तत्ववेताओं ने दुनिया के सामने रख दी थी ।
*शब्द वाद :*
जैन दर्शन का सिद्धांत है कि शब्द या ध्वनि में सूक्ष्मांतिसुक्ष्म परमाणु स्वरूप पुदगलों का समूह विद्यमान होता है ।शब्द संसार भर में सब तरफ व्याप्त हैं। विज्ञान की कसौटी पर यह सिद्धांत उस समय सही सिद्ध हुआ ,जब विज्ञान जगत में रेडियो का आविष्कार हुआ तथा मारकोनी और जगदीश चंद्र बसु ने यह प्रतिपादित किया कि ध्वनि तरंगें (शब्द) छोटे-छोटे परमाणु के रूप में समूह होता है ,जो बिना किसी तार लाइन के , हवा में तैर कर के दुनिया के किसी कोने तक पहुंच सकता है ।यह सिद्धांत मूल रूप से जैन दर्शन की ही मान्यता है जिसकी सत्यता के चमत्कार से आज हम सभी परिचित हैं ।
आज हम देखते हैं कि ध्वनि तरंगें हवा में फैल कर बिना किसी सहारे के क्षण भर में सारे संसार में घूम जाती है तथा रेडियो आदि यंत्रों की मदद से विश्व के किसी कोने में लोग घर बैठकर ही सुन सकते हैं ।
*कर्म वाद :* जैन संस्कृति और दर्शन का भव्य प्रासाद कर्मवाद की सुदृढ़ और गहरी नींव पर ही टिका हुआ है ।पूर्व में जैसे कर्म संचित किए हैं ,वैसा ही फल मिलना अवश्यंभावी है । यह इस दर्शन की मान्यता है , टेप रिकॉर्डर में जैसे मनुष्य की ध्वनि रिकॉर्ड की जाती है और चालू करने पर उसी क्रम से बोलती भी है ।उसी तरह ठीक टेप रिकॉर्डर के सिद्धांत की भांति मनुष्य के जैसे प्रारब्ध कर्म होते हैं , उसी के अनुसार मनुष्य अपना जीवन व्यतीत करता है । यह पिछले जन्म के कर्मों का ही फल था कि राजा हरिश्चंद्र को श्मशान घाट की नौकरी करनी पड़ी और श्री राम को 14 वर्ष वनवास भुगतना पड़ा।मां सीता को भी कलंक लगा ,यह भी पिछले जन्म के कर्म का ही प्रभाव था कि भगवान आदिनाथ को भी 1 वर्ष तक आहर नहीं मिला और महावीर स्वामी के कानों में कीलें ठोके गए । कर्म का फल भुगतना ही पड़ता है उससे कोई छूट नहीं सकता । जीव का कर्म ही भवसागर के चक्कर लगवाता है और उच्च गति में ले जाता है और अंतिम रूप से कर्म बंधन टूट जाने पर जीव को मोक्ष प्राप्त होता है ।कर्म महान शक्तिशाली है और यह सारा विश्व कर्म चक्र के सहारे चलता है ।
*विश्व की उत्पत्ति और ईश्वरवाद* जैन दर्शन की मान्यता है कि संपूर्ण विश्व अपने चारों ओर जो कुछ हम विद्यमान देखते हैं , वह सब अनादि और अनंत है ।ईश्वर सृष्टि कर्ता नहीं है और विश्व का न कभी निर्माण हुआ है , ना कभी अंत होगा ।
विश्व में पदार्थों के केवल आकार प्रकार बदलते रहते हैं किंतु वह कभी सर्वथा नष्ट नहीं होते।
जो अनादि है , उसके अंत होने का सवाल ही नहीं है ।जैन दर्शन की यह मान्यता भी विज्ञान की कसौटी पर खरी उतरी है।
विश्व विख्यात वैज्ञानिक डाल्टन ने यही विचार प्रतिपादित किए कि जो जैन दर्शन के सिद्धांतों से पूरी तरह मेल खाते हैं । डाल्टन ने
सन् 1808 में जो सिद्धांत प्रतिपादित किया , वह विज्ञान जगत में परमाणु वाद के नाम से जाना जाता है ।ईश्वरवाद के संबंध में जैन धर्म का अपना अलग ही दृष्टिकोण है, ईश्वर या परमात्मा केवल एक या अधिक व्यक्ति विशेष नहीं होता बल्कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने क्षमता होती है और वह बन सकता है । *सापेक्ष वाद :*
जैन दर्शन और तत्वज्ञान की आधारशिला ही सापेक्ष वाद की मान्यता पर रखी गई है। एक वस्तु के भीतर रहे हुए परस्पर विरोधी गुण धर्मों और तत्वों को जो सिद्धांत करके हमारे सामने प्रस्तुत कर सके ,वह अनेकांतवाद स्यादवाद अथवा सापेक्षवाद के नाम से जाना जाता है ।सत्य बहुमुखी होता है , उसे निरपेक्ष जानना असंभव है । अनेकांत का समर्थक ,सत्य का खोजी केवल आंख से ही नहीं देखता बल्कि आंख के पार भी कुछ देखता है । वह अपनी खोज पर ही अटल नहीं रहता ,बल्कि दूसरों द्वारा स्थापित खोज और परंपराओं का भी उपयोग करता है एवं बड़ी सजगता से ज्ञान की राह पर निरंतर सत्यान्वेषण के लिए आगे बढ़ता रहता है । सत्यशोधक किसी भी बात को सहसा स्वीकार अथवा अस्वीकार नहीं कर सकता है । वह उस बात को अनेक स्थितियों एवं विविध संदर्भ में बिठाकर उसकी विशेषताओं का उत्खनन करता है और अंतिम तल तक जाने की कोशिश करता रहता है । निराश होना तो वह जानता ही नहीं ।वह संभावनाओं में विश्वास करता है और हर संभावना को पकड़ कर उसका स्वागत करता है । सम्मानजनक परख कर के तर्क की कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही उसे स्वीकार करता है ,जो बात उसे तर्क सम्मत नहीं लगती , उसे भी वह एकदम स्वीकार नहीं करता बल्कि उसे भी भावी संभावना अथवा संभावित सत्य मान लेता है ।अनेकांतदर्शी सदैव पूर्वाग्रह से मुक्त रहता है ।
‘मैं ही सत्य हूं ‘ मेरे विचार ही सत्य हैं , ऐसा मानने की बजाय ‘मैं भी सत्य हूं ‘ऐसा मानता है और वह हर ‘भी’ को टटोलता रहता है और हर ‘ही ‘तक जाने से पहले उस वस्तु को सभी ओर से परखने की चेष्टा करता है।
विश्व को जैन दर्शन की महत्वपूर्ण देन है , ‘अनेकांत दर्शन’ लेकिन तर्क शास्त्री अनेकांत दर्शन की मान्यता को सहज रूप से नहीं पचा सके , वे सदैव संदेह और अविश्वास के दृष्टिकोण से ही इसका मूल्यांकन करते रहे किंतु जब प्रोफेसर आइंस्टाइन के सापेक्षवाद के सिद्धांत को प्रयोगशाला में सिद्ध करके बताया, तब सारा विश्व आश्चर्यचकित रह गया । जैन धर्म का अनेकांतवाद स्वयं सिद्ध सत्य बन गया ,इस कारण जैन दर्शन पर्याप्त उदार है एवं उसमें दूसरों के विचारों को समाहित करने और उन्हें आदर पूर्वक पचाने की क्षमता है ।जैन दर्शन की मान्यताएं विज्ञान की कसौटी पर खरी उतरी है , क्योंकि जैन धर्म के सिद्धांत किसी प्रकार के पूर्वाग्रह से सर्वदा मुक्त है ,इस कारण जैन दर्शन को निर्विवाद रूप से विज्ञान सम्मत एवं व्यवहारिक कहा जा सकता है । *समाजवादी विचार*
हम समाजवादी विचारधारा अथवा साम्यवाद का जनक कार्ल मार्क्स को मानने की भूल करते हैं ,जबकि वास्तविकता दूसरी है। सच तो यह है कि साम्यवादी समाजवाद की आधारशिला और मूल स्रोत जैन दर्शन ही है । कार्ल मार्क्स जिस समय साम्यवाद का प्रतिपादन कर रहे थे , उससे हजारों वर्ष पूर्व अपरिग्रह पर आधारित समाजवाद की जैन दर्शन में न केवल कल्पना कर ली गई थी बल्कि उससे व्यवहारिक भी बना दिया था । अपरिग्रह तो समाजवाद का मूल आधार है , उसके अभाव में किसी रूप में समाजवाद की कल्पना नहीं की जा सकती । समाजवाद और अपरिग्रह एक दूसरे के पूरक है। आज हम जिस समाजवाद की स्थापना की बातें करते हैं ,उसकी रूपरेखा एवं व्यावहारिक स्वरूप तो जैन दर्शन ने हजारों वर्ष पहले ही हमारे सामने रख दिए थे । *अहिंसा दर्शन*
अहिंसा तो जैन संस्कृति की आत्मा है ।जीवन की उन्नति एवं शांति का मूल प्रश्न आज अहिंसा से जुड़ा है ।जैन संस्कृति की विश्व में सबसे बड़ी देन अहिंसा है । हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय बाबू राजेंद्र प्रसाद के शब्दों में ‘जैन धर्म ने समूचे संसार को अहिंसा की शिक्षा दी ।किसी अन्य धर्म ने अहिंसा की मर्यादा यहां तक नहीं पहुंचाई ।जैन धर्म अपने अहिंसा सिद्धांत के कारण ही विश्व धर्म होने के सर्वथा उपयुक्त है ।जैन धर्म ने दुनियां को ‘जियो और जीने दो’ का पाठ पढ़ाया ।जैन दर्शन केवल प्राणी वध को ही हिंसा नहीं मानता अपितु मन वचन और काया से जीवो को किसी प्रकार का कष्ट या हानि पहुंचाना भी हिंसा मानता है। यहां तक कि जैन दर्शन में तो आवश्यकता एवं उपयोग से अधिक वस्तुओं के संग्रह को भी हिंसा माना है । जैन धर्म के अनुसार किसी भी जीव को सताने की कल्पना करना भी पाप है ,क्योंकि जिस प्रकार हम जीना चाहते हैं ,उसी प्रकार दूसरे जीव भी जीना चाहते हैं ।जैसा व्यवहार हम अपने साथ पसंद नहीं करते, वैसा दूसरों के साथ करना कैसे उचित और मानवीय हो सकता है?
विश्व की वर्तमान परिस्थितियों में संसार की अनेक समस्याओं का समाधान अहिंसा के द्वारा खोजा जा सकता है ।अहिंसा की शक्ति अपरिमित है ।आज विश्व में जो अंतरराष्ट्रीय तनाव और असुरक्षा की भावना बढ़ रही है, वह अतिशय चिंताजनक है । एक देश दूसरे देश को हड़पने की ताक में है ।आज विनाश के कगार पर समूचा विश्व खड़ा है , विध्वंसक वस्तुओं के निर्माण की भी होड़ लगी है ।यदि राजनीति में अहिंसा का सम्मिश्रण हो जाए तो विश्व की अनेक समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है। वर्तमान परिस्थितियों में अहिंसा के बिना विश्व शांति ,विश्व बंधुत्व और विश्व राज्य की कल्पना हवा में पुल बनाने के समान है ।अहिंसा के जरिए निशस्त्रीकरण संभव है और विश्व बंधुत्व की भावना का विकास करके विश्व शांति स्थापित करना असंभव और मुश्किल नहीं होगा ।भारतवर्ष ने पंचशील का जो मूल मंत्र संसार को दिया है, अहिंसा की आधारशिला पर ही आधारित है । यदि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अहिंसा को अपनाने के लिए कारगर प्रयास सामूहिक रूप से नहीं की जाते हैं तो मानवता के लुप्त हो जाने का खतरा है ।आज विश्व भीषण अशांति के कगार पर खड़ा है और भौतिकता की बढ़ती हुई चकाचौंध में भटक गया है, ऐसी दशा में संसार को अहिंसा की राह पर आगे बढ़ने की आवश्यकता है ।
कुछ लोगों के विचार में अहिंसा अव्यावहारिक है , यह सर्वथा निराधार आक्षेप है । वास्तविकता को हम देख चुके हैं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अहिंसा की अमोघ शक्ति से ही ब्रिटिश शासन को भारत से उखाड़ दिया था और अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया था । परंतु दुर्भाग्य का विषय है कि आजकल हमारे देश में हिंसा की प्रवृत्ति बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही है , जिससे अशांति और अराजकता का खतरा है ।
उपरोक्त सारे विवेचन से यह निर्विवाद निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जैन धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है, जिसमें तर्क की कसौटी पर खरे और ज्ञान सम्मत तथ्यों का अथाह भंडार है । जैन आगम और जैन दर्शन के अन्य प्राचीन ग्रंथ विज्ञान के गुढ रहस्यों से भरे पड़े हैं । जैन शास्त्रों में अनंत वैज्ञानिक संभावनाएं छिपी पड़ी है ।उन पर शोध करके उन्हें विज्ञान की कसौटी पर रखना आवश्यक है।
ब्रह्मांड ,अंतरिक्ष, जीव ,अजीव पदार्थ पुदगल और अणु परमाणु की जितनी् विशद व्याख्या विवेचना और वैज्ञानिक विश्लेषण जैन दर्शन करता है, उतना विश्व का कोई अन्य धर्म नहीं । आज आवश्यकता सिर्फ इतनी है कि जैन दर्शन में छिपी अनंत ज्ञान राशि एवं वैज्ञानिक सत्यों को प्रकाश में लाया जाए । समूचे विश्व हित एवं मानवता के कल्याण हेतु जैन दर्शन के प्राचीन ग्रंथों का सरल प्रस्तुतीकरण और विविध भाषाओं में उनका अनुवाद तथा उनका वैज्ञानिक विश्लेषण नितांत आवश्यक है, ताकि समूचे विश्व को जैन दर्शन से एक नई रोशनी मिल सके । वस्तुतः जैन धर्म में सचमुच जन धर्म बनने का सामर्थ्य विद्यमान है। विश्व शांति की दिशा में जैन धर्म के सिद्धांतों को अपनाकर पूरी दुनियां को युद्ध और महामारी की विभिषिका से निजात मिल सकती है और वसुधैव कुटुंबकम् की राह प्रशस्त हो सकती है ।

*यह आलेख आज से चालीस वर्ष पूर्व 10 दिसम्बर 1979 को बीकानेर से प्रकाशित मासिक पत्रिका श्रमणोपासक में प्रकाशित हुआ था और पुरुस्कृत भी किया गया था ।तब लेखक वाणिज्य स्नातक बी.काम का विद्यार्थी थे और पत्रकारिता के क्षेत्र में साप्ताहिक समाचार पत्र कल्पतरू हिन्दी साप्ताहिक एवं मगरे की आवाज पाक्षिक पत्र का प्रबंध संपादक एवं सहित संपादक का उत्तरदायित्व भी वहन करते हुए साहित्यिक क्षेत्र में प्रचलित नाम सुरेन्द्र नीलम से सक्रिय थे।*

प्रस्तुति सौजन्य :
बीएल सामरा नीलम
पूर्व शाखा प्रबंधक भारतीय जीवन बीमा निगम
मंडल कार्यालय अजमेर

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