भारत की सबसे पुरानी मस्जिदों में से एक और अजमेर के सबसे पुराने स्मारक ढ़ाई दिन के झौंपड़ा विश्व विख्यात पर्यटन स्थल है। महान सूफी संत हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह की जियारत को आने वाला हर जायरीन इसके भी दीदार करना चाहता है। दरगाह शरीफ से मात्र एक किलोमीटर दूरी पर स्थित यह इमारत हिंदू-मुस्लिम स्थापत्य कला का नायाब नमूना है। सात मेहराबों से युक्त सत्तर स्तम्भों पर खड़े इस झौंपड़े की बारीक कारीगरी बेजोड़ है। छत पर भी बेहतरीन कारीगरी है। यहां बनी दीर्घाओं में खंडित मूर्तियां और मंदिर के अवशेष रखे हैं।
इसके नामकरण को लेकर विवाद है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह मूलतः सरस्वती कंठाभरण के नाम से एक वैदिक संस्कृत विद्यालय व विष्णु मंदिर था। अढ़ाई दिन के झोपड़े के मुख्य द्वार के बायीं ओर संगमरमर का बना एक शिलालेख भी है, जिसमें 45 पंक्तियों में संस्कृत में उस विद्यालय का जिक्र किया हुआ है। अजमेर के पूर्ववर्ती राजा अरणोराज के उत्तराधिकारी विग्रहराज तृतीय ने सन् 1153 में इसका निर्माण करवाया था। सन् 1192 में मोहम्मद गौरी के आदेश पर कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसे तुड़वा कर मात्र अढ़ाई दिन में पुननिर्माण करवा कर मस्जिद का रूप दे दिया था।
दूसरी ओर कुछ जानकारों का मानना है कि बेशक सरस्वती कंठाभरण व मंदिर को तोड़ कर मस्जिद बनाई गई है, मगर अढ़ाई दिन में पुनर्निर्माण संभव ही नहीं है। कुछ लोग बताते हैं कि जिन्नात के सहयोग से इसका निर्माण ढाई दिन में कराया गया। इतने कम समय में निर्माण करना केवल जिन्नात के बस की बात है, जो लोग जिन्नात को नही मानते, वे इसे कपोल कल्पित बात करार देते हैं। एक मान्यता है कि असल में मराठा काल में इस स्थान पर पंजाब शाह का अढ़ाई दिन तक चलने वाले उर्स के कारण अठारहवीं शताब्दी में भवन का नामकरण अढ़ाई दिन का झोंपड़ा हो गया था, जो अब तक चला आ रहा है।