भगत ने टिकट की जुगत के लिए छोड़ा न्यास सदर का पद

naren shahani 450लैंड फोर लैंड मामले में एसीबी की कानूनी कार्यवाही में फंसे नगर सुधार न्यास के सदर नरेन शहाणी भगत ने काफी सोच-विचार के बाद जिस प्रकार 21 दिन बाद नैतिकता के आधार पर पद से इस्तीफा दिया है, उससे लगता है कि इस पद पर रह कर कपड़े फड़वाने की बजाय उन्होंने यही बेहतर समझा बीती को बिसार कर आगे आगे की सुध ली जाए। हालांकि राजनीति के जानकारों का यही मानना है कि न्यास में दाग लगवाने के बाद उनको किसी सूरत में टिकट नहीं मिलेगा, मगर भगत जो भाषा बोल रहे हैं, उससे उन्हें लगता है कि वे इस मामले से साफ बच कर निकल आएंगे और टिकट की दावेदारी बरकरार रह जाएगी।
भगत के इस्तीफे का अज्ञात मगर दिलचस्प पहलु ये है कि उन्होंने इस्तीफा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को देने की बजाय प्रदेश कांग्रेस डॉ. चंद्रभान को भेजा है। एक सामान्य बुद्धि की अक्लदानी में भी यह सवाल आसानी से उठ सकता है कि जब न्यास सदर की अपोइंटिंग अथोरिटी मुख्यमंत्री हैं तो उन्होंने इस्तीफा चंद्रभान को क्यों दिया? चंद्रभान खुद तो इस्तीफा मंजूर करने की स्थिति में हैं नहीं, सो वे केवल इतना भर करेंगे कि उसे मुख्यमंत्री के पास भिजवा देंगे। तो वाया प्रदेश अध्यक्ष इस्तीफा देने की वजह क्या है, इसका जवाब उनके इस कथन में कहीं छिपा हुआ है कि न्यास अध्यक्ष बनाने में संगठन की महत्वपूर्ण भूमिका थी, इस वजह से चंद्रभान को इस्तीफा दिया है।
वैसे कुछ लोगों को जहां इसमें अब भी पद बचाने की चाल नजर आती है। ऐसे लोगों की सोच है कि वे मामले को कुछ और दिन टालना चाहते हैं। दूसरी ओर कुछ को इसमें कोई और अबूझ समीकरण की गंध आती है, जो भारी माथापच्ची के बाद ही समझ में आएगा। हालांकि इस्तीफे की घोषणा करते वक्त उनकी बॉडी लैंग्वेज तो यही इशारा कर रही थी कि उन्होंने बाकायदा आगे की रणनीति बनाने के लिए पूरा मानस बना कर ही इस्तीफा दिया है। यानि कि वे विवादास्पद पद पर बने रहने की बजाय टिकट मांगने पर ही पूरा ध्यान देंगे। इसका संकेत उनके इस कथन से मिलता है कि आगामी विधानसभा चुनाव में मैंने पार्टी से अजमेर उत्तर से चुनाव लडने की दावेदारी की है, मैं सिंधी समाज का प्रतिष्ठित व्यक्ति हूं। प्रकरण में नाम आने के बाद पार्टी और विपक्ष के कुछ लोग आरोप लगा रहे हैं। इससे पार्टी की छवि खराब हो रही थी। इस वजह से इस्तीफा दिया है। हालांकि उन्होंने पार्टी के उन लोगों का खुलासा नहीं किया, मगर समझा जा सकता है कि उनका इशारा उन दावेदारों की ओर था, जो उनके फंसने के बाद काफी उत्साहित थे, जिनमें सिंधी-गैर सिंधी दोनों शामिल हैं।
जिस प्रकार उन्होंने अपनी दावेदारी का जिक्र किया, उससे यही लगता है कि उन्हें अहसास है कि सिंधी कोटे में वे ही एक मात्र प्रबल दावेदार हैं, तो इसे न्यास सदर की कुर्सी के चक्कर में क्यों गंवाएं। गर ये कुर्सी बच भी गई और सरकार कांग्रेस की नहीं आई तब भी तो इसे छोडऩा पड़ेगा। मीडिया भी यही कयास लगा रहा था कि दागी होने के कारण अगर भगत को टिकट नहीं मिला तो कोई दमदार सिंधी दावेदार न मिलने पर किसी गैर सिंधी को टिकट दिया जा सकता है।
लगातार 21 दिन तक मानसिक तनाव का बोझ उतरने का भाव उनके चेहरे पर साफ नजर आया। साथ ये भी कि वे टिकट के लिए अब भी उतने ही दमदार तरीके से दावा करेंगे, जितना दाग लगने से पहले करने की तैयार कर रहे थे। इससे यह भी इशारा मिलता है कि उन्हें पूरी उम्मीद है कि वे कानूनी मसले से साफ बच कर निकल आएंगे। इस सिलसिले में उनका कहना है कि मेरे नाम से कोई दूसरा व्यक्ति किसी प्रकार की बातचीत करता है, तो उसकी जिम्मेदारी मेरी नहीं है। अर्थात वे अब इस बात से पूरी तरह इंकार कर रहे हैं कि एसीबी के पास मौजूद रिकार्डिंग में उनकी आवाज है।
उनकी भर्राई आवाज में इस बात का दर्द साफ नजर आ रहा था कि वे बड़ी रफ्तार से काम में जुटे हुए थे, ताकि आगे टिकट पक्की हो जाए, मगर एसीबी के चक्कर में सब पर पानी फिर गया। तभी तो बोले कि मैने बीस साल पुराने भूमि के बदले भूमि प्रकरणों का निस्तारण किया, जो कि वाकई बड़ी उपलब्धि है, भले ही वह राज्य सरकार की नई पॉलिसी की वजह से हुआ हो।
जहां तक उनकी उपलब्धियों का सवाल है, रूटीन के काम छोड़ दिए जाएं तो काफी समय से लंबित पड़ी डीडीपुरम योजना को गति देने व एनआरआई कॉलोनी बसाने की कवायद करने के अतिरिक्त बहु प्रतिक्षित एलीवेटेड रोड की दिशा में कुछ कदम बढऩा और स्लम फ्री सिटी के लिए अजमेर का चयन होना उनके कार्यकाल में शुमार है, चाहे इसकी क्रेडिट उन्हें दी जाए या नहीं। इसके अतिरिक्त कम से कम वे पत्रकार, जिनमें यह लेखक शामिल नहीं है, तो उन्हें दुआएं दे ही रहे हैं, जिनके पत्रकार कॉलोनी के भूखंडों के लिए वर्षों पहले भरे गए आवेदन पत्रों का निस्तारण उन्होंने किया। इसकी झलक ताजा एसीबी मामले में हुई रिपोर्टिंग में भी कहीं न कहीं नजर आती है, वरना कोई और होता तो उसके पुरखों के भी बायोडाटा उघड़ कर आ जाते।
इस्तीफा देने वाले दिन उन्होंने पत्रकारों से जो बातचीत की, उसमें यह अहम सवाल अनुत्तरित ही रह गया कि जिस नैतिकता की दुहाई दे कर वे इस्तीफे की घोषणा कर रहे थे, वह पूरे 21 दिन जेहन में क्यों नहीं आई?
खैर, कुल मिला कर अब देखने वाली बात ये है कि क्या वे एसीबी के मुकदमे से बच पाते हैं अथवा नहीं? और जिस टिकट की आस में पद छोड़ा है, वह हासिल कर पाते हैं या नहीं?
-तेजवानी गिरधर

2 thoughts on “भगत ने टिकट की जुगत के लिए छोड़ा न्यास सदर का पद”

  1. चलिए नैतिकता ने जोर मार तो …
    फिर चाहे 21 दिन बाद …….
    और किस लिए जोर मारा ये जाने देते हैं …..
    कांग्रेस पार्टी एक बहुत चतुर,चालाक और घाघ पार्टी है ….
    नरेन् शाहनी जी ने इस प्रकरण में फंस कर अपने आप को बौड़म साबित कर दिया है …..
    अब चाहे चुनाव कोई भी लड़े …..
    उन का विधान सभा चुनाव में टिकट पाने का कोई chance नहीं ……..
    अब उन को जन मानस की भूलने की आदत का इंतज़ार करना होगा और अपने राजनैतिक career को ठंडा कर के फिर गरम करने की कोशिश करनी होगी …..
    ये चुनाव तो गए पानी में ……
    उन के लिए ……

Comments are closed.

error: Content is protected !!