मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के नाम खुला पत्र

प्रिय विनीत जी,
पिछले दिनों पूरे मीडिया जगत को शर्मसार करने वाली घटना तहलका-प्रकरण पर आपका आलेख पढ़ा जिसमें आप वास्तविक समस्याओं को दरकिनार करते हुए सच्चाई को विभिन्न रंगों में लपेटकर अलग-अलग दिखाने की कोशिश कर रहे हैं जबकि आप अच्छी तरह जानते हैं कि सच्चाई का केवल एक रंग होता है। सच्चाई ये हैं कि तरुण तेजपाल ने खूद गुनाह कबूल किया और अपने पद से प्रायश्चित के तौर पर छ: माह तक दूर रहने का फैसला किया जो कि पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर जोरदार तमाचा है।   बहरहाल आपके एक-एक तथ्य का जबाब परत-दर-परत पूरे मीडिया में पहले ही आ चुका है। मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि आप तहलका के नियमित कॉलमनिस्ट हैं और आप भी उसी फ्रेम-वर्क में बात कर रहे हैं जिसमें तहलका में काम करने वाले कर्मचारी-पत्रकार अपनी बात रख रहे हैं लेकिन बतौर मीडिया विश्लेषक की भूमिका में अपनी बात कहने की कोशिश करते तो अच्छा होता मसलन पूरे मीडिया ने इस खबर को प्रमुखता से दिखाया इसके पीछे के कारण जो भी रहे हो लेकिन सोशल मीडिया सहित मीडिया के वैकल्पिक सभी माध्यमों के लोग दक्षिणपंथी नहीं हैं और वे भाजपा समर्थक नहीं हैं। उल्लेखनीय है कि आप अपने आलेख में बार-बार ये कहने की कोशिश कर रहे हैं कि तहलका का मतलब तरुण तेजपाल नहीं है बतौर मीडिया विश्लेषक ये बात इसलिए शोभा नहीं दे रही है कि आप तरुण तेजपाल से आप अभी भी अनभिज्ञ हैं। जानकारी के लिए बता दूं कि गोवा में थिंक फेस्ट के दौरान जो ये बर्बरता पूर्ण घटना हुई इस फेस्ट को स्पांसर करने वाली अधिकांश कंपनियां कोल-गेट और 2जी मामलों से जुड़ी हुई हैं इन कंपनियों में एस्सार, डीबी रियल्टी, अदानी समूह सहित पोंटी चड्ढा की कंपनी जेएसडब्लू ग्रुप भी शामिल है। सवाल ये है कि साम्यवाद का नारा देने वाले तरुण, खूद पूंजीवाद की गोद में अय्याशीपूर्वक जिंदगी जी कर समाज को ठेंगा दिखा रहे हैं। इस पूरी घटना के बाद उठ रहे सवालों को दबाने के लिए उलुल-जलूल तर्कों को सहारा न लेकर इसे व्यापक बदलाव के रुप में देखा जाना चाहिए। बहरहाल आपके आलेख के दूसरे पहलू जिसमें आप कह रहे हैं कि पाठकों ने पढ़ना छोड़ दिया है या चटपटी सेक्सयूवल फ्रस्टेशन वाले विज्ञापनों को देख कर छोड़ देते हैं ऐसा नहीं है विनीत जी, तहलका का मैं भी नियमित पाठक रहा हूँ। इन सब बातों को छोड़ बतौर मीडिया समीक्षक आप मीडिया में एक बदलाव की गुंजाइश की बात करते तो अच्छा होता। मीडिया विश्लेषक कॉलमिस्ट होने के नाते सच्चाई का गला घोंटकर तहलका का अंदरुनी मामला बताना, सच्चाई को अपने सुविधानुसार मेनुप्लेट करना मीडिया समीक्षक की भूमिका कतई नहीं होनी चाहिए। जहां तक बात तहलका को उंचाई पर ले जाने वाले रेउती लाल, आशीष खेतान, अतुल चौरसिया, विकास बहुगुणा, बृजेश सिंह, प्रियंका दुबे और पूजा सिंह जैसे लोगों की है तो इन लोगों की मेहनत और लगन बेकार नहीं जाएगी ये लोग कहीं भी अच्छा काम कर सकते हैं। इनके लगन और प्रतिभा पर हम सबको गर्व हैं। इन विपरीत परिस्थियों में हताश होने की बजाय हिम्मत से काम लेना होगा तहलका ने जो एक आंदोलन खड़ा किया था उसे भूला नहीं जा सकता है। बहरहाल सच्चाई के साथ शोमा चौधरी का बैडमिन्टन खेलना चिंताजनक है उल्लेखनीय है कि आप जिस तरह कह रहे हैं कि छोटे-छोटे मतलब को मैने मैनेज होते देखा है आपको तो उस पर लिखना चाहिए था। ये तर्क कतई शोभा नहीं देता कि छोटी-छोटी घटना मैनेज हो जाती है तो इस पर बवाल क्यों। बतौर मीडिया विश्लेषक ये बात किसी भी तरह से पचाने लायक नहीं है। विनीत जी, आप इसे बदलाव की रुप में देखते कि कैसे मीडिया के अंदर इस सनसनी से आसाराम के रुप विराजमान दर्जनों संपादक कान खड़ा कर होश में आ गए हैं। ये बात सही है कि आम पाठकों का सिर्फ इंडिया टुडे, बिंदिया, सरस सलिल से काम नहीं चलेगा इसका ये मतलब नहीं कि सच्चाई को गला घोंटकर समाज के बारे में तहलका में अपना कॉलम लिखा जाए। जमीनी स्तर की पत्रकारिता न कर पाने की फ्रस्टेशन किसी पर नहीं लादा जाता है और न ही चटखदार लेआउट फोटोशॉप और सेक्स सर्वे में पिछड़ने की बात है लिहाजा सरोकार शब्द को परिभाषित करने के लिए केवल तहलका भी काफी नहीं है। बतौर मीडिया विश्लेषक इतना बायज्ड होकर लिखना शोभा नहीं देता। एफबी दीवार झांकने की जरुरत तहलका में करने वाले कर्मचारी-पत्रकार को भी होती है। आप अपने तीसरे पैराग्राफ में जो भी कहना चाह रहे हैं उसे कतई लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। मसलन मीडिया पर किताब लिखकर जिन लोगों ने अपना मुकाम बनाया है उसमें आप भी हैं। जहां तक हाजिरी लगाने की बात है तो सभी लोग कहीं न कही हाजरी लगा रहे हैं कोई निजी स्वार्थ के लिए लगा रहा है तो कोई दबी-कुचली मानसिकता को पटरी पर लाने के लिए हाजिरी लगा रहा है। उद्देश्य अलग-अलग हैं कौन कहां हाजरी लगा रहा है ये सब को पता है। बहरहाल बतौर मीडिया विश्लेषक मुद्दों पर बात करते हैं कि किस तरह तरुण तेजपाल प्रेस कांफ्रेस में उल्टे अपने बयान से पलट गए. आपको इसे व्यापक क्षेत्र में देखने की जरुरत है। चूंकि आपको लोग पढ़ते हैं इस विश्वास को मत तोड़िए। बहरहाल तीसरे पैराग्राफ में लिखा गया एक-एक शब्द व्यक्तिगत कुंठा से ग्रसित मालूम प्रतीत होता है। टीवी-18 के विरोध में केवल तहलका के नये चहरे ही नहीं थे बल्कि कई समूहों के लोग थे आप भी थे और मैं भी था लेकिन यही लोग महुआ टीवी में धरने पर बैठे लोगों के पास चूं तक करने के लिए नहीं गए। क्यों? इसके बारे में भी लिखते तो अच्छा लगता। बतौर मीडिया विश्लेषक पक्षधरता की जिद के सहारे सच्चाई का गला घोंटना किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्मनाक है। जश्न कोई नहीं मना रहा है और जो मना भी रहा होगा उसे मनाने का मौका मिल गया। ये मौका तहलका के दोहरा मापदंड वाली पत्रकारिता ने उसे दिया है। शोमा चौधरी अभी तक कह रही हैं कि उन्हें और मौका चाहिए जबकि घटना के कई दिन हो चुके हैं। क्यों, तहलका ने अच्छे काम किये हैं इसलिए तरुण तेजपाल को छूट दिया जाए? ये कितनी घिनौनी, शर्मशार करने वाले तर्क दिए जा रहे हैं बहरहाल मैला आंचल के सभी पात्र वामनदास नहीं होते लेकिन पंच परमेश्वर के अलगू चौधरी और जुम्मन शेख अभी भी समाज में जिंदा हैं, उससे सीख लेने की जरुरत है न की सच्चाई का गला घोंटने की जरुरत है। अतिरिक्त और गैरजरुरी ढंग से उसका पिता, भाई बनकर सहानुभूति बटोरने की बात नहीं है। सच्चाई ये है कि तरुण तेजपाल ने जघन्य अपराध किया है उसे कठोर से कठोर सजा मिलनी चाहिए। इसे एक बदलाव की तरह देखने की जरुरत है ना कि पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर उलूल-जूलूल तर्कों के सहारे अपनी कुंठा को उगलने की जरुरत है। मैं सलाम करता हूं उस महिला पत्रकार को जिन्होंने साम्यवाद की नारा देने वाले अय्याश, पूंजीवाद के गोद में पलने वाले तरुण तेजपाल के चारित्रिक पतन को बाहर रखने के लिए हिम्मत और साहस दिखाया।
आदर सहित
अखिलेश कुमार

लेखक अखिलेश कुमार से [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है.
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