फिर उठी पियंका गांधी को आगे लाने की मांग

priyanka_gandhi-प्रेम शुक्ल- ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ जब कांग्रेस के भीतर प्रियंका लाओ कांग्रेस बचाओ का नारा लगा है। बीते दशक भर से कांग्रेस का एक वर्ग प्रियंका गांधी के राजनीति में सक्रिय होने की पैरवी कर रहा है। बीती सरकार के शासनकाल में जैसे-जैसे डॉ. मनमोहन सिंह की अलोकप्रियता में इजाफा हुआ उसके समानांतर ही कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के प्रति अविश्वास भी बढ़ता चला गया। लेकिन लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कमोबेश पूरी कांग्रेस यह मान चुकी है कि जब तक राहुल गांधी हैं तब तक कांग्रेस का बेड़ा गर्क होता रहेगा। तो क्या प्रियंका गांधी को इसलिए मैदान से दूर रखा जा रहा है कि वे नौसिखियां हैं या फिर राजनीति में सफलता की जो संभावनाएं राहुल गांधी में हैं वह प्रियंका गांधी में नहीं हैं?

तब प्रियंका ने संभाली थी कमान 
वैसे कांग्रेस की राजनीति में प्रचारक के तौर पर राहुल के पहले ही प्रियंका गांधी को सक्रिय किया गया था। १९९९ से २०१४ तक गांधी परिवार के जिस भी सदस्य ने लोकसभा चुनावों का सामना किया है उक्त निर्वाचन क्षेत्र में मुख्य प्रचारक की कमान प्रियंका के पास रही है। बीते डेढ़ दशकों में केवल एक बार गांधी परिवार अमेठी और रायबरेली से दूर चुनाव मैदान में उतरा। १९९८ के आम चुनावों में गांधी परिवार की परंपरागत सीट अमेठी से परिवार के विश्वस्त वैâप्टेन सतीश शर्मा चुनाव हार गए थे। १९८९ के आम चुनावों के दौरान ही वैâप्टेन सतीश शर्मा और संजय गांधी के विश्वासपात्र संजय सिंह के बीच जम कर ठन गई थी। संजय सिंह ने उन दिनों राजीव गांधी के शत्रु विश्वनाथ प्रताप सिंह से रिश्तेदारी जोड़ ली थी। १९८९ के चुनावों में वैâप्टेन सतीश शर्मा के समर्थकों ने संजय सिंह पर गोलीबारी भी की थी। जब राजनाथ सिंह के पास उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी की कमान आई तो राजनाथ सिंह ने संजय सिंह को अमेठी से भाजपा का उम्मीदवार बना दिया। वैâप्टेन सतीश शर्मा चुनाव हार गए। १९९९ में जब सोनिया गांधी को चुनाव लड़ने की नौबत आई तब वह अमेठी में जीत के प्रति आश्वस्त नहीं थी। सो, अमेठी के साथ-साथ सोनिया ने कर्नाटक के बेल्लारी से चुनाव लड़ना तय किया। भाजपा ने सोनिया की घेराबंदी के लिए बेल्लारी से सुषमा स्वराज को मैदान में उतार दिया था। तब प्रियंका गांधी को बेल्लारी और अमेठी दोनों मोर्चों पर कमान संभालनी पड़ी थी।

‘अमेठी की डंका, बिटिया प्रियंका!’
२००४ में हर कोई प्रियंका गांधी के मैदान में उतरने की अपेक्षा कर रहा था। अचानक राहुल गांधी अमेठी से मैदान में उतर आए। जब तक राहुल गांधी राजनीति में सक्रिय नहीं हुए थे तब तक प्रियंका गांधी अमेठी और रायबरेली के कांग्रेसियों से कैप्टेन सतीश शर्मा के निवास पर मिला करती थीं। गांधी परिवार के निष्ठावान नारे भी लगाते थे ‘अमेठी की डंका, बिटिया प्रियंका!’ राहुल गांधी के सक्रिय होते ही प्रियंका के प्रिय वैâप्टेन शर्मा के मोहरों की काट शुरू हो गई। डॉ. मनमोहन सिंह की जब सरकार बनी थी और मणिशंकर अय्यर को पेट्रोलियम मंत्री बनाया गया तो कैप्टन के चेलों ने गप प्रचलित किया कि नरसिंहराव के मंत्रिमंडल में जब कैप्टेन पेट्रोलियम मंत्री थे तब पेट्रोल पंप आबंटन के घपले के आरोप उछले थे, सीबीआई जैसे ही क्लीन चिट देगी फिर कैप्टन पेट्रोलियम मंत्री बन जाएंगे। १९९१ से २००४ के बीच जब गांधी परिवार केद्रीय सत्ता से बाहर था तब कैप्टन ने पूरी ईमानदारी से गांधी परिवार की टहल बजाई थी। सो, जानकार भी कैप्टन के चटियों की इस गप पर भरोसा करते थे। भरोसे का एक और कारण था उस समय मणिशंकर अय्यर के पास पेट्रोलियम के साथ-साथ पंचायती राज मंत्रालय का प्रभार होना। राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में भी मणिशंकर ने पंचायती राज का काम संभाला था। कालांतर में कलई खुल गई। मणिशंकर से पेट्रोलियम मंत्रालय का प्रभार छीन कर मुरली देवड़ा को सौंप दिया गया।

प्रियंका की लॉबी को राहुल ने किया किनारे
प्रियंका के वरदहस्त से कैप्टेन शर्मा सिर्फ राज्यसभा की सदस्यता हासिल कर सके। जिन मणिशंकर को कैप्टेन का आदमी बताया गया था वह भी कालांतर में मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल से बाहर कर दिए गए। राहुल गांधी ने प्रियंका के जमाने में पॉवर पुâल रहे अमेठी और रायबरेली के सभी पदाधिकारियों को किनारे कर दिया। अमेठी और रायबरेली का सांसद प्रतिनिधि कैप्टन शर्मा ने अपने चेले किशोरी लाल शर्मा को बनवा रखा था। राहुल गांधी ने किशोरी लाल की पूरी मंडली का सफाया कर दिया था। राहुल गांधी ने अपने सलाहकार कनिष्क सिंह को पॉवरफुल बना दिया था। बाहरी तौर पर गांधी परिवार राहुल और प्रियंका के बीच किसी तरह का टकराव न होने का हर संभव प्रचार करता है। अमेठी और रायबरेली के मसलों से प्रियंका २००९ से २०१२ तक पूरी तरह बाहर रहीं। जब २०१२ में संपन्न उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी के नेतृत्व का बैंड बज गया, अमेठी और रायबरेली की संसदीय सीटों पर भी कांग्रेस का कोई विधायक चुनाव नहीं जीत पाया तब राहुल गांधी स्वाभाविक रूप से बैकफुट पर गए। एक बार फिर गांधी परिवार ने प्रियंका को सक्रिय किया। प्रियंका ने अमेठी और रायबरेली में सक्रिय होते ही पहले राहुल पीड़ित कांग्रेसियों का दर्द सुना।

परिवार ने किया प्रियंका को सीमित
२०१२ से २०१३ के बीच ऐसी स्थितियां लगातार बनती चली गर्इं जिससे राहुल को विपक्ष के साथ-साथ कांग्रेसी भी ‘पप्पू’ मानने लगे। १७ जनवरी २०१४ को राहुल ने लोकसभा चुनावों की कमान भी संभाली तब भी कांग्रेसी यही अपेक्षा पालते रहे कि प्रियंका को ऐन चुनाव के पहले कांग्रेस तुरुप के एक्के के रूप में उतारेगी। उन्हें उम्मीद थी कि प्रियंका नमो लहर से सशंकित कांग्रेसियों में नई जान पूंâक पाएगी। जब नरेंद्र मोदी ने वाराणसी से चुनाव लड़ने का ऐलान किया तब भी १०, जनपथ में वाराणसी से प्रियंका गांधी को चुनाव मैदान में उतारना प्रस्तावित हुआ। परिवार ने अंतत: प्रियंका को अमेठी और रायबरेली के चुनावों तक सीमित रखने का पैâसला किया। नमो लहर में पूरी कांग्रेस यूपी में साफ हो गई सिर्पâ वही सीटें बच पार्इं जिस पर प्रियंका ने प्रचार किया था। चुनाव में कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय के बाद तमाम कांग्रेसी मान रहे हैं कि ‘राहुल पर है शंका, मैदान में उतरो प्रियंका!’ यह मांग जितनी जोर पकड़ती है राहुल पर दबाव उतना ही बढ़ता जा रहा है। बीते सप्ताह राहुल लोकसभा की ‘वेल’ में जिस तरह वूâदे उसके बाद राजनीतिक गलियारों में उन पर प्रियंका के उतारे जाने के दबाव को कारक बताया गया। प्रियंका और राहुल के बीच शीतयुद्ध का अनुमान अभी भले ही कोरा कयास कह कर खारिज कर दिया जाए, पर गांधी—नेहरू परिवार में इस तरह की पारिवारिक प्रतिद्वंद्विता का इतिहास रहा है। पं. जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में भी नेहरू परिवार ‘सिबलिंग राइवलरी’ यानी पारिवारिक प्रतिद्वंद्विता का शिकार था। पं. नेहरू की दोनों बहनों विजया लक्ष्मी पंडित और कृष्णा हठी सिंह के बीच जबर्दस्त वैमनस्य था।

गांधी परिवार में है अनबन का लंबा इतिहास
कुंवर नटवर सिंह जो कृष्णा हठी सिंह को ‘मौसी’ कहा करते थे, ने अपनी जीवनी ‘वन लाइफ इज नॉट एनफ’ में वर्णन किया है कि किस तरह विजया लक्ष्मी ने कृष्णा हठी सिंह का करीबी होने के चलते उन्हें अपना निजी सचिव बनाने से इंकार कर दिया था। कृष्णा हठी सिंह जब पश्चिम जर्मनी के दौरे पर गई थीं तो उन्हें वहां ‘टू सीटर मर्सिडीज’ उपहार स्वरूप मिली थी। तब संयुक्त राष्ट्र में भारत की प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त विजयालक्ष्मी ने कृष्णा की लिखित शिकायत अपने प्रधानमंत्री भाई से की थी। विजया और कृष्णा की लड़ाई से तंग आकर इस मामले को सुलझाने का जिम्मा पं. नेहरू ने अपने साथी लालबहादुर शास्त्री को सौंपा। तब लालबहादुर शास्त्री कृष्णा को मर्सिडीज की ‘कस्टम्स ड्यूटी’ भरने के लिए राजी कर मामले को निपटाया था। राजीव गांधी और संजय गांधी के बीच अनबन के किस्से तो गांधी परिवार पर लिखी हर पुस्तक में प्राप्त हो जाएंगे। १९८० में जब इंदिरा गांधी की सखियों ने संजय गांधी को चुनाव लड़ने के खिलाफ सलाह दी थी, तब संजय गांधी ने इस सलाह के पीछे सोनिया गांधी की लामबंदी को जिम्मेदार माना था। गांधी परिवार के करीबी बताते हैं कि १९८० के चुनावों से अपने निधन तक संजय ने बच्चन परिवार समेत तमाम इंदिरा करीबियों को दूर करने का प्रयास किया था। जैसे ही संजय गांधी का निधन हुआ सारी ताकतें एक बार फिर राजीव-सोनिया के साथ गांधी परिवार के करीब आ गर्इं। मेनका गांधी और इंदिरा गांधी के बीच वैमनस्य के बीज भी इन्हीं तत्वों ने बोए। जिसकी परिणति मेनका को दुधमुंहे वरुण के साथ प्रधानमंत्री निवास से निष्कासन के रूप में भोगना पड़ा।

गांधी परिवार की ‘सिबलिंग राइवलरी’
मेनका और सोनिया के बीच आज भी छत्तीस का आंकड़ा है। प्रियंका और वरुण, गांधी परिवार की बहुओं के बीच पुल बन रहे थे। वरुण और राहुल के बीच आज भी सौख्य नहीं। सत्ता की अपरिमित चाह भाई बनाम भाई, बहन बनाम बहन और भाई बनाम बहन का द्वंद्व कराता रहा है। यह कथानक महाभारत काल से आधुनिक भारत काल तक निरंतर जारी है। रक्षा बंधन भाई से बहन की रक्षा का धागा है। कांग्रेसी उम्मीद कर रहे हैं कि बहन प्रियंका रक्षा सूत्र बांध भाई राहुल की रक्षा करेंगी। इसके लिए पहले आवश्यक है कि भाई राहुल के मन से बहन प्रियंका के प्रति असुरक्षा का बोध खत्म हो। क्या राजनीति की बिसात गांधी परिवार की ‘सिबलिंग राइवलरी’ का क्रीड़ा क्षेत्र बनेगा?  आगे-आगे देखो, होता है क्या?
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