जिन्हे नाज़ है राष्ट्रभक्ति पर वो कहां हैं

मुजफ्फर अली
मुजफ्फर अली
समानता, समाजवाद, धर्मनिरेपक्षता और लोकतंत्र के स्तंम्भों पर टिका देश का संविधान जो दुनिया का सबसे बडा और महान माना जाता है को उसी मानसिकता ने खुरज दिया है जिसकी जड में हजारों साल की जातिय भेदभावना है जो आज भी निकल नहीं रही है। वो तमाम बलिदान जो देश की आजादी के नाम कर दिए गए। वो तमाम शहीद जिन्होने अंग्रेज़ शासन को उखाड फै कनें का मकसद लेकर आपनी जानें दे दीं। अनगिनत कुर्बानियों से सजी देश की आजादी के महज सत्तर साल बाद महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में हुई जातीय हिंसा ने साबित कर दिया है कि जिन गुलामी मानसिकता को जानकर अंग्रेजों ने देश पर 1857 से 1947 तक शासन किया, आजादी हासिल कर लेने के बाद भी भारतीयों में वो कमज़ोरी आज भी ज्यौं की त्यौं हैं। इतिहास के अनुसार एक जनवरी 1818 में अंग्रेज़ों ने पेशवा सम्राज्य के शासक बाजीराव से युद्व लडा। अग्रेजी फौज की तरफ से लडने वाले सिपाहीयों में भारतीय दलित वर्ग के महार थे जिन्होने इस युद्व में पेशवा सेना को हरा दिया। अंग्रेजों ने इस युद्व को स्वंय की जीत मानकर जश्न मनाया और चूंकि अंग्रेजों की तरफ से दलित लडे थे इसलिए महार शहीदों के लिए वहां विजय स्तंभ का निर्माण करा दिया। बताते हैं कि तभी से हर वर्ष भीमा कोरेगांव में दलित वर्ग के लोग वहां जमा होतें हैं और विजय दिवस मनाते हैं जबकि यह शुद्व रुप से अंग्रेजी शासन के फैलाव के लिए लडा गया युद्व था। कायदे से आजादी के बाद से भीमा कोरेगांव में दलित वर्ग को यह जश्न मनाना छोड देना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कारण, आजादी के बाद भी देश का स्वर्ण वर्ग के दिलों में दलित वर्ग को लेकर वहीं भेदभाव बना रहा है। देश का स्वर्ण वर्ग सत्तर साल के बाद भी दलित को समानता का हक नहीं दे सका है । सोमवार को महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में दलित वर्ग पर जिन लोगों ने हमला किया और एक युवक की हत्या की उनके दिलों में सिर्फअंग्रेजी जश्र नहीं मना देने की भावना ही नहीं थी अपितु दलित के प्रति भरा भेदभाव भी था क्यूं कि ऐसा नहीं है सिर्फ इसी साल भीमा कोरेगांव में दलित शहीद दिवस मनाने जमा हुए। दलित संगठन के नेता ने कहा है कि वो तो दो सौ सालों से शहीद दिवस मना रहे हैं। तब पहले क्यूं नहीं हमले हुए या अंग्रेजी जश्र मनाने से रोका गया। दरअसल पिछले साठ दशकों से कांग्रेस ने शासन किया है जो संविधान की मूल भावना को आत्मसात किए हुए है और कांग्रेस के शासनकाल में उस वर्ग को सिर उठाने का मौका नहीं मिलाजो मूंह से देशभक्ति का राग तो अलापते रहे हैं लेकिन दिलों में भेदभाव रखे रहे। इसकी बानगी पिछले तीन वर्षो में जब से केन्द्र में सत्ता बदली है यूपी, गुजरात और अब महाराष्ट्र में देखने को मिल रही है।
सिक्के का दूसरा पहलू है दलित का जश्न मनाना या शहीदी दिवस मनाना ही विवाद का मुददा है। अंग्रेजों के शासनकाल में अंग्रजी फौज में बडी संख्या में भारतीय जवान ही रहे थे, राजपूत रैजीमेंट, काठात रैजीमेंट, गोरखा रैजीमेंट बटालियन का गठन अंग्रेजो की देन है। तमाम सरकारी दफतरों में ऑफिसर अंग्रेज होते थे और बाबू भारतीय। अंग्रेज अफसरों का ऑर्डर मानना नौकरशाह भारतीयों को जरुरी और मजबूरी भी था। लेकिन
देश के आजाद होने के बाद कोई वर्ग सिर्फ इस आधार पर जश्र मनाता है कि वह अंग्रेजों की फौज में दुश्मन से लडा था और जीता था तो यह गुलाम मानसिकता का प्रदर्शन है। अंग्रेज सभी भारतीयों को गुलाम ही मानते थे और किसी काम के लिए ऑर्डर भी इसी तरह देते थे जैसे किसी नौकर को झिडक रहे हों। अफसोस कि आज देश में जो वर्ग एक विचारधारा, एक रंग, एक राष्ट्र का सपना साकार करने में जुटा है वो अपने ही समाज के भीतर फैली बदबू को साफ करने को तैयार नहीं।
muzaffar ali
journalist

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