सोमरत्न आर्य पर फैसला आप करेंगे या कोर्ट?

सोमरत्न आर्य
एक नाबालिगा के साथ छेड़छाड़ के आरोप से घिरे दिग्गज भाजपा नेता सोमरत्न आर्य इन दिनों सर्वाधिक चर्चा में हैं। उन पर पाक्सो एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज हो चुका है। अब वे अग्रिम जमानत हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। यह प्रकरण इन दिनों सर्वाधिक चर्चा का विषय बना हुआ है। इस मुद्दे को लेकर सोशल मिडिया पर लटके पड़े बुद्धिजीवी आपस में उलझ रहे हैं। कोई आर्य को फांसी की सजा देने की पैरवी कर रहा है तो कोई उनकी स्वच्छ छवि को गिनवा कर आरोप को साजिश बता रहा है। हालत ये हो गई है कि जो लोग कथित पीडि़ता का साथ दे रहे हैं, उन पर ब्लैकमेलिंग के आरोप लगने लगे हैं।
असल में आर्य की कथित करतूत को लेकर सबसे पहले एमटीटीवी ने बिना उनका नाम प्रकाशित किए छोटी से खबर चलाई। इसी के साथ सोशल मीडिया पर जंग शुरू हो गई, मगर चूंकि इस मामले में पीडि़ता सामने नहीं आई थी, इस कारण आर्य का नाम उजागर करने की हिम्मत किसी शेख चिल्ली में नहीं थी। कुछ लोग क्लू दे कर उनकी ओर इशारा कर रहे थे। ब्लॉगर भी भला क्यों चुप रहने वाले थे। जैसे ही थाने में रिपोर्ट दर्ज हुुई, एमटीटीवी की कयासी खबर पर मुहर लग गई। स्वाभाविक रूप से सारी क्रेडिट भी उस के खाते में दर्ज हो गई। जब तक मुकदमा दर्ज नहीं हुआ था, तब तक अपना भी इस बारे टांग अड़ाने का कोई मानस नहीं था। इस बीच मेरे एक परिचित ने मेरे वाट्स ऐप अकाउंट पर एक संदेश भेजा- समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध। इसका सीधा सा अर्थ था कि वे मुझे भी कुछ लिखने को उकसा या प्रेरित कर रहे थे। जब इस मुद्दे पर अनेक लोगों की जुगाली परवान चढऩे लगी की तो मुझे भी लगा कि अपना भी दृष्टिकोण रखना ही चाहिए।
इस मुद्दे पर बहुत कुछ अंटशंट लिखा जा चुका है। उसकी चर्चा न ही की जाए तो बेहतर रहेगा। लिखने वालों ने अपनी ओर से आर्य को पूरी तरह से नंगा कर दिया है। मुकदमा दर्ज होने के बाद स्वाभाविक रूप से उनको कड़ी से कड़ी सजा दिए जाने की भी मांग उठ रही है। कुछ लोगों ने जिस प्रकार की प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं, उससे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आर्य ने पक्के तौर पर कुकृत्य किया ही है। अगर वे निर्णय पर पहुंच गए हैं तो न्यायिक व्यवस्था की जरूरत ही क्या है? उनके कहे अनुसार ही सजा दे दी जानी चाहिए। मगर अपनी राय भिन्न है। अभी आरोप मात्र लगा है। गिरफ्तारी होगी। सबूत पेश होंगे, जिरह होगी, तब जा कर कोर्ट फैसला करेगा। उससे पहले उनका चरित्र हनन करना पूरी तरह से गैरकानूनी व गैर मानवीय है।
मुझे पत्रकारिता में जो ट्रेनिंग मिली है, उसके अनुसार यदि किसी को चोरी के आरोप में पकड़ा जाता है तो खबर लिखते समय हम ये हैडिंग नहीं लगाते कि चोर पकड़ा गया। हम लिखा करते हैं कि चोरी का आरोपी गिरफ्तार। अगर हम उसे चोर करार दे रहे हैं तो फिर पर उसके खिलाफ मुकदमा चलने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। ये तो हुई विधिक बात।
अब बात करते हैं, धरातल पर मौजूद कुछ और तथ्यों की। यह एक सर्वविदित सच्चाई है कि आर्य का अब तक का पूरा जीवन पूरी तरह से समाज सेवा में बीता है। शहर की सर्वाधिक संस्थाओं में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे हैं। राजनीति, समाजसेवा सहित ऐसा कोई फील्ड नहीं, जिसमें उनका दखल न हो। डिप्टी मेयर रह चुके हैं। ब्लड डोनेशन का रिकार्ड बना चुके हैं। ऐसे बहुआयामीय व्यक्तित्व की सामाजिक स्वीकारोक्ति स्वाभाविक है। इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि कांग्रेसी नेताओं तक ने सधी हुई प्रतिक्रिया दी और सिर्फ ये कहा कि अगर उन्होंने ऐसा कृत्य किया है तो उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए। मामला उजागर होने पर अधिसंख्य लोगों को सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि वे ऐसा घृणित कृत्य कर सकते हैं।
कदाचित ऐसी पंक्तियां पढ़ कर यह प्रतिक्रिया उठे कि उनका पक्ष लिया जा रहा है। मगर ऐसा है नहीं। एक आरोप की वजह से उनके पूरे जीवन की साधना पर पानी फेर देना न्यायोचित नहीं होगा। हां, अगर आरोप प्रमाणित हो जाता है तो निश्चित ही उन्हें सजा मिलेगी और मिलनी भी चाहिए। सोशल मीडिया पर चटकारापूर्ण ट्रायल करने की बजाय निर्णय कोर्ट पर छोड़ दिया जाना चाहिए। वैसे भी न्यायाधीश फेसबुकियों को बुला कर मतदान करवाने वाले नहीं हैं। फिलहाल वे अग्रिम जमानत की कोशिश में हैं। हां, अगर लंबे समय तक फरार रहते हैं तो उनकी गिरफ्तारी के लिए लोगों का लामबंद होना जायज होगा, ताकि जल्द से जल्द फैसला हो और पीडि़ता को समय पर न्याय मिले।
सिक्के का एक पहलु ये भी है कि कोई कितना भी प्रतिष्ठित क्यों न हो, उसे अपराध की छूट नहीं हो सकती। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं, आसाराम बापू। वे वर्षों से जेल में हैं। यह अलहदा बात है कि उनके भक्त आज भी उन्हें निर्दोष मानते हैं और हर पूर्णिमा को जोधपुर जेल के बाहर जुट कर अपनी आस्था का इजहार करते हैं।
तस्वीर का एक चेहरा और। कोई भी नाबालिग यूं ही किसी के खिलाफ खड़ी नहीं हो सकती। जमीन की इसी हकीकत के मद्देनजर पोक्सा जैसा कड़ा कानून बनाया गया है। यही वजह है कि जब भी कोई नाबालिग पीडि़ता देहलीज पार करती है तो सहज ही उस पर यकीन कर लिया जाता है कि उसके साथ कुछ न कुछ हुआ होगा। मगर फैसला तब भी केवल आरोप लगाने मात्र से नहीं किया जाता। बाकायदा न्यायिक प्रक्रिया अपनाई जाती है।
उनके एक मित्र सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रभान प्रजापति का दर्द देखिए, वे कहते हैं:- आज उनके व्यक्तित्व पर चरित्र हीनता का दाग लगना और फिर संपूर्ण शहर में से किसी का भी उनका प्रत्यक्ष रूप से सामने आकर साथ न देना इस बात का प्रमाण है कि मानवता, सामाजिकता रिश्ते, दोस्ती सब एक हाशिये में आकर खड़ी हो गई हैं।
बात भले ही सही हो, मगर कोर्ट किसी के उनके साथ आने से प्रभावित होने वाला नहीं है। चाहे जितने एकजुट हो जाओ। वह तो पीडि़ता के बयान, सबूत, जिरह व कानूनी प्रावधान के तहत ही फैसला देगा। वैसे भी आर्य का कोई कितना भी करीबी मित्र क्यों न हो, वह यह तो कह सकता है कि वे ऐसा नहीं कर सकते, मगर वह यह नहीं कह सकता कि आर्य ने ऐसा नहीं किया है।
दूसरी ओर आर्य के विरुद्ध पीडि़ता का साथ देने की मुहिम चला रही समाजसेविका श्रीमती कीर्ति पाठक का भी दर्द इसी प्रकार का है। वे कहती हैं कि अजमेर को कुंभकर्णों की जरूरत नहीं है। संगठित विरोध ही समस्या का समाधान है। अर्थात उनकी पीड़ा है कि लोग साथ क्यों नहीं दे रहे? उनकी अपेक्षा अपनी जगह उचित ही है? मगर इस मामले में भी फार्मूला वही लागू होता है। न्यायालय इस आधार पर फैसला करने वाला नहीं है कि समाज में उनके खिलाफ कितने लोग खड़े हैं या कितने लोग पीडि़ता को न्याय दिलाने के लिए दबाव बना रहे हैं। इस मामले में कोर्ट के बाहर पीडि़ता का साथ दे रहे ये तो कह सकते हैं कि आरोपी को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए, मगर वे यह नहीं कह सकते कि आर्य दोषी हैं ही।
इस पूरे प्रकरण के गर्भ में कई तथ्य हैं, मगर चूंकि उन्हें प्रमाणित तौर पर नहीं कहा जा सकता, इस कारण उनका उल्लेख नहीं किया जा रहा है।
लब्बोलुआब, सार ये है कि फैसला न्यायालय के हाथ है। हम क्यों तो लाठियां भांजें और क्यों मुट्ठियां तानें? हां, अगर मुट्ठियां तानने से समाज सुधार होता है तो मैं उस मुहिम को सलाम करता हूं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

error: Content is protected !!