*कैसे मान लूं भारत में स्वराज आ गया*

-यह तस्वीरें हमारे देश के ज्वलंत मुद्दों का बखान करने के लिए काफी हैं
✍️प्रेम आनन्दकर, अजमेर।
👉इस पोस्ट में आप जो तस्वीरें देख रहे हैं, वे वाकई में हमारे देश की ज्वलंत समस्याओं का बखान करने के लिए काफी हैं। इन तस्वीरों को बनाने और इनमें जनता की पीड़ा का खाका खींचने वाले को बारम्बार सलाम। हमारे महापुरुषों, स्वतंत्रता सेनानियों, बलिदानियों और अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों का मुकाबला करने वालों ने लड़ाई लड़ कर देश को आजाद कराया। उनकी सोच यही रही होगी कि हमारे देश के हर नागरिक खुली हवा में सांस लेंगे, गरीबी-अमीरी, नेता-कार्यकर्ता, मंत्री-संतरी, शासक, प्रशासक-जनता में कोई भेद-अंतर नहीं रहेगा। आजादी के 75 साल बाद भी देश की तस्वीर और तकदीर नहीं बदली है। गरीब ना केवल आज भी गरीब है, बल्कि और ज्यादा गरीब होता जा रहा है। गरीबों की पीठ से मेहनत का बोझ कम नहीं हुआ है और ना ही हो रहा है। जबकि अमीरों के पेट और पेटे दिनों-दिन फूलते जा रहे हैं। वोट मांगते समय जनता के आगे साष्टांग व दंडवत प्रणाम करने वाले नेता विधायक, सांसद और मंत्री बनने के बाद या तो जनता के बीच जाते ही नहीं हैं और जब जाते हैं तो उनके सुरक्षा गार्ड व अर्दली नेता व मंत्री जी को रास्ता देने के लिए जनता को ही दूर हटाते हुए नजर आते हैं। इसी प्रकार इंटरव्यू के समय जनता की सेवा करने की दुहाई देने और बड़ी-बड़ी हांकने वाले अधिकारी नौकरी व पद मिलते ही जनता से दूर रहना शुरू कर देते हैं। यही नहीं, जब कहीं जाते हैं और जनता उनसे मिलना चाहती है तो उनके भी अर्दली जनता को पीछे धकेल कर अफसर के लिए रास्ता बनाते हैं। कुर्सी मिलते ही नेताओं व अफसरों का रुख बदल जाता है और फिर उन्हें अपना स्टेट्स दिखने लग जाता है। नेता कुर्सी पर तो कार्यकर्ता दरी पर, शासक-प्रशासक सिंहासन पर, तो जनता जमीन पर बैठती है।
अफसर एयरकंडीशनर कमरे में रिवाल्विंग कुर्सी पर, तो फरियाद लेकर जाने वाली पब्लिक दीन-हीन सी सामने खड़ी रहती है। सम्भवतः एक भी नेता और अफसर ऐसा शायद ही मिले, जो फरियादी जनता को पहले सम्मान से बैठाए और फिर धैर्य से उनकी बात सुने। हम भले ही आजादी के 75वें वर्ष में आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, लेकिन क्या इन तस्वीरों को देख कर नहीं लगता है कि हम सच्चाई से मुंह मोड़ रहे हैं।

प्रेम आनंदकर
आजादी का असली मजा तो नेता और अफसर लूट रहे हैं। बेचारे गरीबों और उनके बच्चों को तो आजादी का मतलब ही सही तरीके से पता नहीं होगा, तो वे आजादी का अमृत महोत्सव कैसे मनाएंगे। लाखों गरीब ऐसे भी होंगे, जिनको तिरंगा तो मिल जाएगा, लेकिन फहराने के लिए उनके पास घर नहीं होगा। भले ही हम आसमान फतेह कर लें और चंद्रमा पर पहुंच जाएं, यदि गरीबों को सुख से दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पाए, तो प्रगति और विकास के कोई मायने नहीं हैं। तो आइए, गरीबों की भूख, उनके बदन पर लिपटे फटे चिथड़ों और मेहनतकशों की पीठ पर सवार होकर आजादी और आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हैं।

error: Content is protected !!