प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की स्कूलिंग में बहुत फर्क है

प्रिंट और इलैक्टोनिक मीडिया की कार्यप्रणाली व सोच में कितना अंतर है, भाशा की मर्यादा में कितना फर्क है, इसका अंदाजा आप वरिश्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग, एन के सिंह, अनिल लोढा जैसे प्रिंट बेस्ड पत्रकारों के विष्लेशण को सुन कर कर सकते हैं। वे कितना संतुलित बोलते हैं। निश्पक्ष बने रहने का पूरा ख्याल रखते हैं। प्रिंट में तो नियम है कि जब भी किसी के खिलाफ खबर आए तो, उसका पक्ष भी पाठक के सामने जरूर रखो। फैसला पाठक को करने दो। इसके विपरीत सीधे इलैक्टानिक मीडिया में आए अधिकतर एंकर किस भाशा का इस्तेमाल करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। हालांकि इसके अपवाद भी मिल जाएंगे, मगर पेषेगत मजबूरी ही है कि डिबेट्स में षामिल होने वाले नेताओं को आक्रामक मुद्रा में किस तरह जलील करते हैं। उनकी खिल्ली उडाते हैं। एंकर की उम्र से भी अधिक वर्श से राजनीति में सक्रिय नेता बदतमीजी बर्दाष्त करते हैं। कई बार तो आष्चर्य होता है कि नेता एंकर्स की इतनी घटिया टिप्पणियां वे कैसे बर्दाष्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं एंकर को अपना एजेंडा पूरा न होता देख वह खुद ही पक्षकार बन जाता है। कई बार तो लगता है कि वह किसी पार्टी का प्रवक्ता बन कर काम कर रहा है। नेता ऐसे आरोप एंकर्स पर लगाते भी देखे गए हैं। मगर उनको बिलकुल फर्क नहीं पडता। यह उनकी पेषेगत मजबूरी ही होती, मगर सवाल उठता है कि आखिर यह गिरावट कहां तक जाएगी। जो वरिश्ठ पत्रकार इस गिरावट में घुटन महसूस करते हैं, वे चैनल की नौकरी छोड कर अपने यूट्यूब चैनल बनाने को मजबूर हैं। वेनल को सब्सक्राइब करने की अपील बहुत जोर से करते हैं। आर्थिक मदद तक की गुहार लगाने लगे हैं। पत्रकारिता इतनी दयनीय स्थिति में आ जाएगी, इसकी कल्पना नहीं की थी।

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