मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करना आसान नहीं

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह हुई मुलाकात चर्चा का विषय हो गई है। कोई इसे आगामी आम चुनाव बाबत विस्तृत चर्चा मात्र बता रहा है तो कोई इसमें मोदी को अहम जिम्मेदारी सौंपे जाने के संकेत तलाश रहा है। कई ने तो इसका अर्थ ही ये निकाल लिया है कि मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने पर गहन विचार हुआ है।
इस बारे में एक राजनीतिक विश्लेषक अभय दुबे को लगता है कि यह मुलाकात बीजेपी में एक बार फिर से आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसी जुगलबंदी पैदा कर सकती है, लेकिन विचारणीय ये है कि क्या ये दोनों नेता ही भाजपा की दिशा तय करने जा रहे हैं, क्या लाल कृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नितिन गडकरी, वैंकेया नायडु और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं की कोई भूमिका नहीं होगी? राजनाथ सिंह भले ही आडवाणी की भूमिका में आ जाएं, मगर क्या मुस्लिम हंता की छाप लगे मोदी अटल बिहारी वाजपेयी की धर्मनिरपेक्ष छवि कायम कर पाएंगे?
इस मुलाकात में एक अन्य राजनीतिक जानकार सुजीत ठाकुर को लगता है कि मोदी देश में बीजेपी के भले ही सबसे लोकप्रिय नेता हैं लेकिन एनडीए में न वह लोकप्रिय हैं और न ही सभी को स्वीकार्य। ऐसे में संभव है मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख तो बना दिया जाए और पीएम पद का उम्मीदवार किसी और को घोषित किया जाए।
असल में नरेंद्र मोदी ने भले ही अपने बलबूते पर गुजरात में भाजपा की हैट्रिक बनाने का कीर्तिमान स्थापित कर अपना कद बढ़ा लिया है, मगर इसे उनकी राष्ट्रीय छवि कायम हो जाने का अर्थ निकालना एक अर्धसत्य है। भले ही गुजरात में मुस्लिम बहुल इलाकों में भाजपा की जीत होने को इस अर्थ में भुनाने की कोशिश की जा रही हो कि मुस्लिमों में भी उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है, मगर धरातल का सच ये है कि गुजरात में उनके मुख्यमंत्रित्व काल में हुआ नरसंहार उनका कभी पीछा नहीं छोड़ेगा।
वस्तुत: भाजपा इन दिनों नेतृत्व के संकट से गुजर रही है। उसमें प्रधानमंत्री पद के एकाधिक दावेदार हैं। भाजपा कार्यकर्ताओं को उनमें से सर्वाधिक दमदार चेहरा मोदी का ही नजर आता है, जो कि है भी। एक तो वे तगड़े जनाधार वाले नेता हैं, दूसरा अपनी बात को दमदार तरीके से कहने का उनमें माद्दा है। उनमें झलकती अटल बिहारी वाजपेयी जैसी भाषा शैली श्रोताओं को सहज ही आकर्षित करती है। इसके अतिरिक्त विकास पुरुष के रूप में उनका सफल प्रोजेक्शन यह संकेत देता है कि वे देश के लिए भी रोल मॉडल हो सकते हैं। इन सभी कारणों के चलते पूरे हिंदीभाषी राज्यों के कार्यकर्ताओं में वे एक सर्वाधिक सशक्त रूप में उभर कर आए हैं। आज भाजपा का छोटा से छोटा कार्यकर्ता भी उनमें प्रधानमंत्री होने का सपना साकार होते हुए देख रहा है। इसी कड़ी में मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में मौजूद विभिन्न पार्टियों के दिग्गज नेताओं को देख कर मीडिया को भी लगा कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू को छोड का पूरा एनडीए मोदी के साथ है और उसे मोदी के भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी किए जाने पर ऐतराज नहीं करेगा। मगर धरातल का सच कुछ और है। एक तो प्रधानमंत्री पद के अन्य दावेदार उन्हें आगे नहीं आने देंगे। दूसरा बात जब एनडीए तक आएगी, तब नीतीश कुमार तो अलग होंगे ही अन्य दलों को भी असहजता हो सकती है। शपथ ग्रहण समारोह में औपचरिक रूप से उपस्थित होने और खुल कर समर्थन करने में काफी अंतर है। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बात करें तो वे कहने भर को मोदी के विरोध में नहीं हैं, मगर मोदी के साथ खड़े होने से पहले नफा-नुकसान आकलन कर लेना चाहेंगे। इसी प्रकार यूपीए अलग हुई बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी मुस्लिम वोटों के जनाधार को खोने का जोखिम नहीं उठा सकतीं। ऐसे में यह कल्पना एक आधा सच ही है कि मोदी गुजरात की तरह राष्ट्रीय स्तर पर भी स्वीकार्य होंगे।
इस बीच चर्चा ये है कि गुजरात में जिस मंत्र की बदोलत वे जीते हैं, उसे आजमाने के लिए मोदी को इलेक्शन कैंपेन कमेटी का प्रभारी नियुक्त किया जा सकता है, मगर इसे प्रधानमंत्री पद का दावेदार होने के रूप में लेना एक भ्रम मात्र है। औरों की छोडिय़े खुद अपने ही परिवार में मोदी के प्रति सर्वसम्मति होना कठिन है। मोदी की प्रधानमंत्री पद के प्रति हिंदूवादी कुनबे में कितनी मतभिन्नता है, इसका अनुमान इसी बात ये लगाया जा सकता है कि विश्व हिंदू परिषद के इंटरनेशनल प्रेसिडेंट प्रवीण तोगडिय़ा ने कहा कि जो लोग नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बता रहे हैं, वे बुनियादी रूप से एनडीए और बीजेपी को तोडऩे की रणनीति पर काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि पीएम का चुनाव तो चुनाव में बहुमत पाने वाली पार्टी के सांसदों द्वारा किया जाता है। इसका सीधा सीधा अर्थ है कि वे मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने के पक्ष में नहीं हैं, फिर भले ही कारण जो कुछ भी हों।
बेशक मोदी का पक्ष लेने वाले लोगों का कहना है कि गुजरात की सत्ता में हैट्रिक लगाना अपने आप में ही किसी करिश्मे से कम नहीं है, मोदी ने ऐसा करके राष्ट्रीय राजनीति में मजबूती के साथ कदम रख दिया है और भाजपा की द्वितीय पीढ़ी में मोदी ही ऐसे एकमात्र नेता हैं, जिनमें अपनी पार्टी के अलावा गठबंधन के सहयोगी दलों को भी नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता है, मगर इस सच को भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मोदी की स्वीकार्यता अलबत्ता भाजपा तक ही हो सकती है लेकिन सहयोगी दलों में उनके खिलाफ काफी रोष का माहौल है। गुजरात दंगों के दाग से मोदी का मुक्त होना नितांत असंभव है और उन पर सांप्रदायिकता के आरोप पुख्ता तौर पर लगाए जा सकते हैं।
लब्बोलुआब मोदी भाजपा में भले ही दमदार ढंग़ से उभर आए हों, मगर भावी प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के नाम को स्वीकार किया जाना बेहद मुश्किल होगा।
-तेजवानी गिरधर

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