अपनी गर्दन बचाने के लिये भाजपा की गर्दन फँसा दी मोदी ने

modi-अमलेन्दु उपाध्याय- भारतीय जनता पार्टी में बहुत खुशी का माहौल है। बस ऐसा कि मानो नरेन्द्र दामोदर भाई मोदी अभी-अभी पहली और आखिरी बार स्वतन्त्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर पर तिरंगा फहरा रहे हों। इस खुशी के माहौल में भीतर ही भीतर अजीब किस्म की भयावह खामोशी और शंकायें भी हैं जो लाख छिपाने के बावजूद संघ भाजपा नेतृत्व के माथे पर छलक रही हैं। हालाँकि यह भाजपा का नितान्त निजी मसला है कि 2014 में कौन उसका पोस्टर ब्वॉय और चीयर लीडर होगा। लेकिन डिफरेन्ट विद अदर्स का नारा देकर अपने स्वयंसेवकों के चाल चरित्र चेहरे पर नाज़ करने वाली भाजपा की बदचलनी, कुरूप चेहरा और दोहरा चरित्र ही उजागर हुआ और यह तय हो गया कि वास्तव में भाजपा डिफरेन्ट विद अदर्स है क्योंकि अपने भीष्म पितामह का सियासी वध करके ऐसा जश्न मनाने का काम वही कर सकती है।

मान लीजिये कि मोदी को भाजपा में कैम्पेन कमेटी का अध्यक्ष न भी बनाया जाता तब भी वे पार्टी के लिये प्रचार तो करते ही और अब भी प्रचार ही करेंगे, कोई पहाड़ उठाकर नहीं ले आयेंगे न ऐसा कोई महान चमत्कार कर देंगे कि भाजपा 272 की बॉर्डरलाइन पार कर जाये। मोदी एण्ड कम्पनी अपनी इस उपलब्धि पर भले ही फूलकर कुप्पा हुये जा रही हो लेकिन वास्तविकता यह है कि यह मोदी के पतन की शुरूआत है और अपने चेले से पहले राउण्ड में हारने के बावजूद आडवाणी ने बहुत सलीके से मोदी के पतन की पटकथा लिख दी है।

यहाँ वरिष्ठ पत्रकार पंकज चतुर्वेदी की छोटी सी टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है—“निजी तौर पर मैं लाल कृष्ण आडवाणी जिस विचार धारा की सियासत करते रहे, उसका घोर विरोधी हूँ, लेकिन ज़रा सोचे – एशिया ही नहीं शायद समूचे विश्व में इस समय सत्तर साल से सार्वजनिक जीवन और कोई 45 साल तक केन्द्र की राजनीति में निर्णायक क्या और कोई राजनितिज्ञ है ? आडवानी जी ने सन् 1943 में कराची में संघ की शाखा में जाना शुरू किया था और सन् 48 से सक्रिय राजनीति में हैं। जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के गठन में उनकी नीतिगत निर्णायक भूमिका थी और उन्हें बेआबरू कर घर बैठने का जश्न सड़कों पर ? क्या यही हिन्दुस्तान की सियासत है ? वह भी एक कैडर बेस- वैचारिक प्रतिबद्धता का दावा करने वाले दल में ?” निश्चित रूप से यह न तो भारतीय संस्कृति है और न हिन्दू संस्कृति। हाँ हिन्दुत्व का ऐसा स्वरूप जरूर सामने आया है कि उस व्यक्ति के घर पर कुछ अराजक तत्व चढ़ाई कर दें जिसने पार्टी को खड़ा किया हो।

मोदी के उफान पर भले ही ऊपरी तौर पर भाजपा में जश्न का माहौल हो लेकिन अन्दरूनी तौर पर संघ-भाजपा नेतृत्व की बेचैनी बढ़ गयी है। मोदी का पुराना इतिहास देखते हुये यह बेचैनी गलत भी नहीं है। संघ जानता है कि मोदी का विरोध करने वालों का गुजरात में हश्र या तो हरेन पाण्ड्या जैसा होता है या संजय जोशी जैसा। और इन शंकाओं को बल उस समय मिला जब आडवाणी के घर पर मोदी की गुण्डा वाहिनी का आक्रमण हुआ। बताया जाता है कि संघ नेतृत्व अब इस बात से परेशान है कि पता नहीं मोदी जी की परम कृपा से आने वाले दिनों में किस-किस भाजपा नेता की सीडी निकल कर आयें।

हालाँकि इस पूरे परिदृश्य में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अपनी मेधा का लोहा मनवाया है। जिस तरीके से मोदी के कंधे पर बन्दूक रखकर उन्होंने पहले राउण्ड में अडवाणी को निपटाया है वह गौर करने लायक है। चूँकि यह बात आडवाणी और मोदी दोनों अच्छी तरह जानते हैं कि चाहे आसमान-पाताल एक हो जाये लेकिन 2014 में लोकसभा में भाजपा प्लस का आँकड़ा 272 नहीं होने जा रहा। ऐसे में यदि इस देश के दुर्भाग्य से कोई सूरत ऐसी बनी भी कि भाजपा जोड़-तोड़ करके सरकार बना भी ले तो मोदी तो किसी भी हाल में प्रधानमन्त्री नहीं बनने वाले। हाँ, अटल बिहारी वाजपेयी के बाद आडवाणी जरूर इस रेस में अव्वल थे। लेकिन मोदी बनाम आडवाणी की जंग में राजनाथ सिंह ने बहुत सलीके से दावं चला और 2014 से पहले ही आडवाणी और मोदी दोनों को पटखनी दे दी।

दरअसल आडवाणी और मोदी दोनों के लिये ही 2014 व्यक्तिगत अस्तित्व बचाने के लिये महत्वपूर्ण है। दोनों के लिये ही स्थिति अभी नहीं तो कभी नहीं वाली है।आडवाणी 86 पार हो चुके हैं और 2019 तक सही सलामत नहीं रहने वाले हैं। इसलिये आडवाणी भले ही पीएम इन वेटिंग ही रह जायें लेकिन इस वेटिंग लिस्ट में भी किसी को आने देना नहीं चाहते। वह भले ही अटल बिहारी न बन पाये लेकिन दीनदयाल उपाध्याय या श्यामा प्रसाद मुखर्जीकी तरह भाजपा के दफ्तरों में अपना चित्र टँगवाने के अधिकारी तो बनना चाहते ही हैं। जबकि मोदी की अपनी मजबूरी है। गुजरात का 2002 उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है।

दरअसल मोदी की जंग पीएम या पीएम इन वेटिंग बनने के लिये है ही नहीं और न मोदी इतने नादान हैं कि इस हकीकत वे वाकिफ नहीं हैं कि आडवाणी जी तरह उनकी कुण्डली में भी पीएम बनना नहीं लिखा है। दरअसल यह मोदी की यह सारी कवायद 2014 के बाद माया कोडनानी और बाबू बजरंगी बनने से बचने की है।

जिस तरह से 2002 के गुनाहों की सज़ा अब आकर मिलना शुरू हुयी है उसकी आँच अब मोदी तक पहुँचने लगी है। 2014 के बाद अगर मोदी का केन्द्र में दखल नहीं हुआ तो उनके माया कोडनानी और बाबू बजरंगी बनने का रास्ता साफ हो जायेगा। और अगर ऐसा नहीं है तो क्या राष्ट्रीय स्तर पर जिम्मेदारी निभाने के लिये मोदी अब गुजरात किसी और के हवाले कर देंगे। यदि नहीं। उनमें यह साहस नहीं है तो तय मानिये कि उनकी सारी कवायद अपनी गर्दन बचाने की है न कि भाजपा को बढ़ाने की।

समझा यह जाता है कि मोदी भाजपा पर कब्जा इसलिये करना चाहते हैं कि 2014 के बाद भले ही भाजपा सत्ता में न आये लेकिन वह प्रमुख विपक्षी दल तो रहेगी ही और जैसे अभी संसद् नहीं चलने देती है वैसे ही 2014 के बाद भी इस ताकत में तो रहेगी ही। ऐसे में 2014 के बाद 2002 के गुजरात के गुनाहों की सज़ा मिलने की बारी आये तो मोदी इसमें अकेले न खड़े रह जायें बल्कि इसे भाजपा बनाम सरकार कर दें। अब भाजपा की 2014 की कमान संभालने के बाद ऐसी स्थिति में भाजपा को मोदी के सारे पाप अपने ऊपर लेने ही होंगे। मोदी की कुल मिलाकर सारी लड़ाई इतनी सी है वरना 2014 में हार का ठीकरा तो अब मोदी के सिर ही फूटेगा।

आडवाणी इस बात को अच्छे से ताड़ गये थे कि मोदी अपनी गर्दन बचाने के लिये भाजपा की गर्दन फँसाने जा रहे हैं, इसी लिये वह मोदी के विरोध पर उतारू थे। वरना जानते तो यह आडवाणी भी हैं कि मोदी आ जायें या कोई आ जायें असलियत यह है कि भाजपा के पास पूरे देश में चुनाव लड़ने के लिये 272 गम्भीर प्रत्याशी भी नहीं है। ऐसे में मोदी को आगे करने का मतलब है कि भाजपा ने अन्य दलों से गठबंधन के सारे रास्ते स्वयम् बन्द कर दिये हैं। जबकि आडवाणी ने अटल जी का उदारवाद का मुखौटा ओढ़ना शुरू कर दिया था और मुलायम सिंह जैसे लोग भी कहने लगे थे कि आडवाणी जी झूठ नहीं बोलते।

अमलेन्दु उपाध्याय
अमलेन्दु उपाध्याय

यानी 2014 के बाद समाजवादियों से काँग्रेस विरोध के नाम पर भाजपा गलबहियाँ कर सकती थी। लेकिन अब तो भाजपा ने मोदी को आगे करके काँग्रेस को वॉकओवर दे दिया। अब काँग्रेस भले ही 272 पर न पहुँचे (अभी भी उसकी कौन सी 272 हैं लेकिन नौ साल से सरकार तो वही चला रही है) लेकिन मुलायम, नीतीश, नवीन पटनायक जैसों की यह मजबूरी होगी कि वह मोदी की पार्टी के साथ न जाकर काँग्रेस का झण्डा उठायें।

यह लड़ाई मोदी बनाम आडवाणी थी ही नहीं जिसे राजनाथ सिंह ने बना दिया। मोदी अपनी जान बचाने के लिये लड़ रहे थे और आडवाणी, भाजपा की जान बचाने के लिये। अन्दरखाने यह लड़ाई राजनाथ बनाम आडवाणी और राजनाथ बनाम मोदी है। पहले राउण्ड में राजनाथ सिंह ने आडवाणी को निपटाया है तो आडवाणी ने बहुत सलीके से मोदी के पतन की पटकथा लिख दी है। दूसरा राउण्ड 2014 के चुनाव परिणाम के बाद होगा जिसमें मोदी निपटेंगे लेकिन फिर भी यह कहना मुश्किल है कि राजनाथ कि लिये 7 रेसकोर्स के दरवाजे खुलेंगे।
अमलेन्दु उपाध्याय: लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं। http://hastakshep.com के संपादक हैं. संपर्क[email protected]

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