मोदी नहीं मोहन से लड़ रहे हैं आडवाणी

adwani 7भारतीय जनता पार्टी के भीतर लालकृष्ण आडवाणी द्वारा अपने सभी पदों से इस्तीफा दिये जाने के बाद भाजपा के भीतर भूचाल आ गया है। सोमवार को पूरे दिन कवायद होती रही और दिल्ली से लेकर नागपुर के बीच हाटलाइन संपर्कों के जरिए इस भूचाल से असर को कम करने की कोशिश की जाती रही। इस बीच संघ और भाजपा के बीच जारी द्वंद के बीच एक बात साफ हो गई कि आडवाणी मोदी से नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ से लड़ रहे हैं और संघ भी मोदी को आगे बढ़ाने की बजाय मोदी के नाम पर भाजपा पर अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश कर रहा है। पिछले तीन चार दिनों का घटनाक्रम बता रहा है कि लड़ाई आडवाणी बनाम मोदी होने की बजाय आडवाणी बनाम संघ की हो रही है।

भाजपा के इतिहास में यह पहली बार ऐसा मौका आया है जब कोई शीर्ष नेता संघ से इस कदर सीधे टकराया है। भाजपा के अटल युग में अटल बिहारी वाजपेयी भी संघ से टकराव मोल लेते थे लेकिन स्थितियां कभी इतनी जटिल नहीं हुई कि बात इस्तीफे और नेस्तनाबूत करने तक चली जाए। उस वक्त यही प्रखर हिन्दुत्ववादी की छवि वाले वही आडवाणी संघ और अटल बिहारी वाजपेयी के बीच समन्वय का जिम्मा संभालते थे जो आज खुद संघ से टकरा गये हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान भी कई मौकों पर झंडेवालान ने रेसकोर्स रोड के सामने ऐसी परिस्थितियां पैदा की प्रधानमंत्री का काफिला संघ कार्यालय का रुख करे लेकिन वह काफिला कम से कम राजनीतिक संकटों को सुलझाने के लिए कभी झंडेवालान नहीं गया। जो काफिला जाता था, वह गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का रथ होता था जो समान रूप से रेसकोर्स रोड और झंडेवाला तक अपनी पहुंच रखता था।

लेकिन एक दशक भी नहीं बीता कि वही आडवाणी संघ के दुश्मन नंबर एक हो गये जो कभी उसकी आंखों के सितारे हुआ करते थे। वैसे तो, आडवाणी द्वारा जिन्ना को सेकुलर कहा जाना संघ से आडवाणी की दूरी का प्रमुख कारण बताया जाता है लेकिन बात सिर्फ इतनी भर नहीं है। संघ के सुदर्शन युग में संघ की नजर में आडवाणी अटल से बेहतर व्यक्ति थे। लेकिन इस वक्त जो भागवत युग चल रहा है उसमें आडवाणी का भागवत से निजी बैर भाव बहुत पुराना है। इसलिए अगर संघ पूरी तरह से आडवाणी को औकात में लाने पर उतारू है तो उसका कारण राजनीतिक होने की बजाय व्यक्तिगत ज्यादा है। भागवत मंडली ने जब जब भाजपा को अपने रास्ते पर लाकर उसे बिल्कुल ही अपना आनुसांगिक संगठन बनाकर रखने की कोशिश की, आडवाणी आड़े आ गये। उस वक्त भी आडवाणी ही संघ के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा थे जब संघ मुरली मनोहर जोशी को नेता विपक्ष बनाकर आडवाणी को आराम का मौका दे रहा था। आडवाणी ने जोशी की बजाय सुषमा को वह पद दिला दिया और बदले में संघ ने नितिन गडकरी के लिए अध्यक्ष का पद हासिल कर लिया। लेकिन वही संघ उन्हीं गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाने के लिए आगे बढ़ा तो एक बार फिर वही आडवाणी आड़े आ गये।

इस बार भी कमोबेश स्थितियां ऐसी ही हैं। अपनी नाराजगियों के बाद भी संघ अगर मोदी की माला जप रहा है तो उसका कारण संघ की सर्वानुमति होने की बजाय मोहन भागवत का मोदी प्रेम और आडवाणी द्वेष ज्यादा है। गुजरात में मोदी की कारगुजारियों का संघ भी भुक्तभोगी है और विश्व हिन्दू परिषद भी। और ऐसा नहीं कि मोहन राव भागवत यह सब नहीं जानते हैं। संघ के प्रचारकों के निष्कासन से लेकर विश्व हिन्दू परिषद के साथ जंग तक सबकुछ के मोहन जी साक्षी हैं। लेकिन इसके बाद भी अगर वे मोदी का नाम भाजपा के भविष्य के तौर पर तात्कालिक तौर पर आगे बढ़ा रहे हैं तो उसमें मोदी प्रेम कम, आडवाणी द्वेष ज्यादा है। इसलिए गोवा बैठक के वक्त अगर संघ की ओर से संदेश जाता है कि आगे बढ़ो और निर्णय लो तो उसका संकेत साफ है कि आडवाणी विदा हों तो हो जाएं, भाजपा अब उस रास्ते चलेगी जिस रास्ते संघ ले जाना चाहेगा।

आडवाणी के इस्तीफे के बाद सोमवार शाम को जब नरेन्द्र मोदी ने मोहन जी से संपर्क साधा उस वक्त भी मोहनराव भागवत ने उन्हें अभयदान ही दिया। भागवत के इस अभयदान के बाद मोदी निश्चिंत हो गये कि जो हुआ है, उससे कम से कम संघ पीछे नहीं हटेगा इसलिए उन्हें भी आडवाणी के सामने झुकने की जरूरत नहीं है। लेकिन खुद आडवाणी के लिए इस लड़ाई में आगे का रास्ता क्या है? क्या वे एनडीए की चाल से संघ को परास्त कर पायंगे? कम से कम संघ इस चाल से परास्त होनेवाला नहीं है क्योंकि मोदी को आगे करने के साथ ही संघ अपनी उस पुरानी महत्वाकांक्षा को पूरा कर रहा है जिसमें गठबंधन की राजनीति की बजाय अकेले अपने दम पर आगे बढ़ने की योजना है जिसके मूल में वह उग्र हिन्दुत्व है जो आखिरकार संघ को हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार कर सकता है। लेकिन क्या संघ की यह महत्वाकांक्षा सिर्फ घोड़ा बदल देने भर से पूरी हो जाएगी? क्या गारंटी है कि कल खुद मोदी भी हिन्दुत्ववादी आडवाणी की तर्ज पर सेकुलर नहीं हो जाएंगे? क्या संघ कोई रणनीतिक चूक कर रहा है? या फिर, मोहन जी की निजी महत्वाकांक्षाएं आखिरकार संघ और भाजपा दोनों को भारी पड़नेवाली है? सवाल सैकड़ों और जवाब फिलहाल, इस वक्त किसी के पास कुछ नहीं है।
http://visfot.com से साभार

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