देर आयद नीतीश

nitish kumar-राजेन्द्र राज- जिसकी संभावना कई दिनों से थी, रविवार को उस पर मुहर लग गई। बिहार में सात साल से सरकार चला रहे 17 साल पुराने दोस्तों की राहें अब जुदा हो गई। कल तक वे गलबहियां कर रहे थे। अब वे एक-दूसरे के गले पर छुरियां चलाएंगे। एक बार फिर साबित हो गया कि राजनीति में कोई स्थाई मित्र और शत्रु नहीं होता। सब अपनों हितों की खातिर अपनी भूमिका तय करते हैं। लोग इसे राजनीति कहते है, तो प्रतिक्रिया में राजनेता इसे सुविधा की राजनीति बताते है।
 अपनी सुविधा या जरूरत के अनुसार ही राजनेता किसी दल को कभी साम्प्रदायिक तो कभी धर्मनिरपेक्ष होने का तमगा लगाते रहते हैं। अपने आपको धर्मनिरपेक्षता का झंडाबरदार कहने वाली कांग्रेस भी जरूरत पड़ने पर मुस्लिम लीग जैसी घोर साम्प्रदायिक पार्टी को गले लगती रही है। ऐसी स्थिति में जनता दल-यूनाइटेड के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पाला बदलने में कितनी परेशानी आती। उन्होंने भी अपने वोट बैंक को बचाने के फेर में पार्टी अध्यक्ष शरद यादव से भाजपा से नाता तोड़ने का एलान करा ही दिया। दोस्ती तोड़ने के साथ ही यादव कोेे राष्ट्र्ीय लोकतांत्रिक गठबंधन-एनडीए के अध्यक्ष पद को भी छोड़ना पड़ा। वैसे भी जद-यू अब राष्ट्र्ीय दल ना होकर केवल बिहार में सिमट कर क्षेत्रिय दल रहा गया है। ऐसे में जद-यू के लिए बिहार के हित ही सर्वोंपरि थे।
भाजपा के बदले तेवर:
बिहार में अपनी जमीन बरकरार रखने के लिए जद-यू को लगता है कि अब भाजपा से किनारा करने में ही उसका फायदा है। भाजपा के सहयोग से तीसरी बार मुख्यमंत्री का ताज पहनने वाले नीतीश कुमार का मानना है कि भाजपा में अब अटल-आडवाणी युग का अवसान हो गया है। इस जोड़ी ने सत्ता में आने के लिए कॉमन प्रोग्राम को लेकर एनडीए का निर्माण कराया था। तब भाजपा ने अयोध्या में राममंदिर का निर्माण, जम्मू-कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति और पूरे देश में समान नागरिक संहिता जैसे अपने मूल मुदृदों को ठंडे बस्ते में डाल दिया था। जद-यू को लग रहा है कि भाजपा का नया नेतृत्व जल्दी ही कॉमन मिनिमम प्रोग्राम से पल्ला झाड़ लेगा। अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा फिर से अपने पुराने रंग मंे लौट आएगी। तब उसकी स्थिति ना घर का, ना घाट का वाली होकर रह जाएगी। ऐसे में जितनी जल्दी हो सके भाजपा से नाता तोड़ने में ही भला है।
फैसले में देरी: 
राजनीति के पर्यवेक्षकों का मानना है कि राजनीति के चतुर नीतीश कुमार नेे भाजपा की रणनीति को समझने में देरी कर दी। यदि नीतीश कुमार यह कदम पांच-छह महीने पहले उठाते तो उन्हें केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेसनीत सरकार से मोलभाव करने में सुविधा रहती। लेकिन, अब लोकसभा चुनाव में अधिक समय नहीं होने की वजह से कांग्रेस, जद-यू को उतना भाव नहीं देगी जितना वह पहले देती। क्योंकि तब एनडीए के कमजोर होने से कोयला घोटाला जैसे भ्रष्टाचार के अन्य मामलों के खिलाफ भाजपा के वारों को भोथरा करना, कांग्रेस के लिए अधिक सहज होता। यद्यपि दूरदृष्टि रखते हुए कांग्रेस ने नीतीश कुमार की बिहार को पिछड़ा राज्य होने के कारण विशेष आर्थिक सहायता देने की वर्षों पुरानी मांग के अनुरूप बड़ी धनराशि आवंटित कर जद-यू की सहानुभूति तो हासिल कर ही ली। संभव है, कांग्रेस को इसका लाभ संसद के अगले सत्र में खाद्य सुरक्षा और भूमि अवाप्ति जैसे मामलों पर मिले।
वोट बैंक साधने का प्रयास:
देरी से निर्णय लेने के कारण नीतीश कुमार को अल्पसंख्यक मतदाताओं के साथ ही पिछड़े वर्ग के समर्थकों को अपने साथ बनाए रखने के लिए अब अधिक मशक्कत करनी पड़ेगी। बिहार में 15 फीसदी मुसलमान है। पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में बहुसंख्यक मुसलमानों का मत जद-यू को मिला था। भाजपा में नरेन्द्र मोदी बढ़ते प्रभाव के चलते ये मतदाता उनसे छिटक ना जाए इसलिए उन्होंने भाजपा से सालों पुराना अपना याराना तोड़ लिया। देर से उठाए इस कदम को उनके विरोधी अवसरवादी बताकर उन्हें मुसलमानों की नजर में दोषी ठहराकर अपने पक्ष में कऱने में लगे है। पिछड़े वर्ग के मतदाता भी दोराहे की स्थिति में हैं। भाजपा नेता पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को यह समझने में लगे है कि नीतीश ने नरेन्द्र मोदी के नाम पर गठबंधन को तोड़ा है। नरेन्द्र मोदी पिछड़े और गरीब परिवार से है। विपक्ष में वे सबसे अधिक लोकप्रिय नेता है। अगले चुनाव में मोदी के प्रधानमंत्री बनने की प्रबल संभावना है। नीतीश ने गठबंधन तोड़ कर मोदी के प्रधानमंत्री बनने की राह में रोड़ा डाला है।
सब पर भारी मोदी:
 नरेन्द्र मोदी की अनेक खूबियां है। इनके चलते आज भाजपा में ही नहीं देश में लोकप्रिय है। उनके नेतृत्व में गुजरात में भाजपा की तीसरी बार प्रबल बहुमत से सरकार बनी है। पिछले दस साल में गुजरात में एक भी साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ है। गुजरात विकास के पथ पर देश में अग्रणी बना हुआ है। भ्रष्टाचार के आरोपों से परे साफ छवि के कारण वे देश के युवाओं के साथ ही उद्योग जगत के भी चेहेते बने हुए है। उनके दामन पर अगर दाग है तो वह है वर्ष 2002 के गुजरात दंगों में मारे गए 2500 लोगों की हत्या का। इन दंगों में मरने वाले अल्पसंख्यक वर्ग के थे। इस कारण उन्हें हिन्दू कट्टरवादी के तमगे से नवाजा जाता है। हालांकि किसी भी आयोग और अदालत ने उन्हें अभी तक इन दंगों के लिए दोषी नहीं ठहराया है।
बिहार, उड़ीसा नहीं:
नरेन्द्र मोदी के बढ़तें प्रभाव से भयभीत नीतीश कुमार को यह मुगालता नहीं होना चाहिए कि सरकार से भाजपा को बेदखल कर देने से उड़ीसा की तरह भाजपा का बिहार में सूपड़ा साफ हो जाएगा। बिहार और उड़ीसा में बहुत अन्तर है। वर्ष 2009 में उड़ीसा में गठबंधन सरकार में शामिल भाजपा को मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने नीतीश की तरह ही छिटका दिया था। अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा को तगड़ा झटका लगा। लेकिन, यह स्थिति बिहार में नहीं बनने वाली। बिहार में अगड़ों का भाजपा को समर्थन हैं। सरकार में रहने पर भाजपा ने अपने वोट बैंक को बनाए रखने के साथ ही अपनी जड़े मजबूत की है। नरेन्द्र मोदी के नाम पर भाजपा की कोशिश अब पिछड़ों को पक्ष में लाने की है।
राजेन्द्र राज
राजेन्द्र राज

भाजपा और जद-यू के नेता 17 साल पुराने याराने को तोड़ने के लिए एक-दूसरे पर आरोप मड़ रहे हैं। वहीं, गठबंधन टूटने पर दोनों दलों के कार्यकर्ताओं ने अपने-अपने कार्यालयों पर होली और दीपावली मनाई है। सही मायने में तोड़ने का लाभ किसे मिलता है, इसका नतीजा तो लोकसभा चुनाव में ही समाने आएगा।

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