ये हैं पत्रकार के भेष में विज्ञापन एजेंट, जिन्हे न वेतन मिलता है और न ही पहचान पत्र

journalistआपको बहुत सारे ऐसे पत्रकार मिल जाएंगे, जिनके पास पत्रकारिता से जुड़ी कोई योग्यता नहीं होती, न ही इन्होंने पत्रकारिता से संबंधित किसी तरह की कोई ट्रेनिंग ही ली होती है और जो पत्रकारिता की नैतिक नीतियों से भी अंजान होते हैं। इतना ही नहीं इन तथाकथित पत्रकारों के पास खुद का बिज़नेस और बहुत सारे कमाई के दूसरे साधन होते हैं जिनके जरिय यह अपनी जिंदगी बेहतर ढंग से बसर करते हैं। जिन समाचार पत्रों के साथ यह लोग जुड़े होते हैं वहां से इन तथाकथित पत्रकारों को न तो कोई वेतन मिलता है और न ही किसी तरह का कोई स्टाइपेंड। यह सब के सब ज्यादातर क्षेत्रीय भाषायी या हिंदी समाचार पत्रों के साथ जुड़े होते हैं, उनके लिए खबरे लिखते हैं और अखबार के पत्रकार भी कहलाते हैं। इन लोगों को महीने के हिसाब से खबरें भेजनी होती हैं, जैसे 5 से 10 स्टोरी हर महीने। इन पत्रकारों की जिम्मेदारी अपने अखबार के लिए विज्ञापन लेकर आने तक होती है। वहीं दुखद पहलू यह है कि इन पत्रकारों को अखबार के दफ्तर की तरफ से किसी तरह का कोई नियुक्ति पत्र या किसी तरह का कोई पहचान पत्र भी जारी नहीं किया जाता जिससे यह लोग दावा कर सकें कि हम उस अखबार के साथ जुड़े हैं। यह पत्रकार भारत के पूर्वी चंपारण राष्ट्रीय संघ (NUJI-EC) के सदस्य हैं जो दो विरोधाभासी कार्यों को एक साथ करते हैं, जैसे खबर लिखनी और विज्ञापन इक्ट्ठा करना। यह दोनों कार्य नदी के दो किनारों की तरह होते हैं, मतलब यह लोग नदी के दोनों किनारों पर एक बार में पांव रखकर चलने का बेहद मुश्किल काम करते हैं। वहीं इस संघ में लगभग 200 सदस्य हैं और इनमें एक भी महिला सदस्य नहीं है।

पूर्वी चंपारण राष्ट्रीय संघ लगभग एक साल से डिजिटल एम्पावरमेंट फाउंडेशन से अनुरोध कर रहा था कि ” कि न्यू मीडिया पत्रकारों के लिए किस प्रकार सहायक है” इस विषय पर एक वर्कशॉप आयोजित की जाए और यह संघ डीईएफ से सीखना चाहता था कि किसी तरह इंर्फोमेशन कम्यूनिकेशन टेक्नोलॉजी के विभिन्न टूल्स उनके लिए सहायक हो सकते हैं।

इसी के तहत डीईएफ ने 20 मार्च 2013 को एक वर्कशॉप आयोजित की, तीन घंटे की इस कार्यशाला में लगभग 85 पत्रकार शामिल हुए। मैंने इन 85 पत्रकारों से पूछा कि कितने लोगों के पास उनका ई-मेल एड्रेस नहीं है तो 30 लोगों ने हाथ उठाया। मतलब लगभग तीसरा हिस्सा लोगों के पास ई-मेल आईडी नहीं था, जो हैरानी की बात थी। इस वर्कशॉप से उनकी क्या उम्मीदे हैं, इसके जवाब में वे लोग डीईएफ से चाहते थे कि उन्हें ई-मेल आईडी बनाना और वहां मौजूद हर एक को फेसबुक पेज खोलना सिखाया जाए। जबकि इनमें ज्यादातर लोग दावा कर रहे थे कि वे हिंदुस्तान, प्रभात खबर, राष्ट्रीय सहारा, जागरण, कुआमी तंजीम, एर्ली मोर्निंग, देशवाणी, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, पीटीआई और बहुत सारे जाने पहचाने समाचार पत्रों के साथ जुड़े हुए थे। वहीं कुआमी तंजामी (उर्दू का मशहूर समाचार पत्र) से जुड़े एक पत्रकार से उदाहरण जानने के लिए उनसे पूछा गया कि अगर उन्हें अपने पटना ऑफिस में कोई खबर/स्टोरी भेजनी है तो वे कैसे भेजते हैं? उनका जवाब था वे उर्दू की टाइपिंग नहीं जानते जबकि उन्होंने हाल ही में एक कंप्यूटर खरीदा है। इसलिए वे पेपर पर अपनी स्टोरी लिखते है, स्कैन करते हैं और उसे इमेज की तरह मेल में अटैच करते हैं और पटना ऑफिस में रिपोर्टिंग लाइन में भेज देते हैं। जाहिर सी बात है पटना ऑफिस में कोई न कोई इस रिपोर्ट को टाइप करेगा और फिर से उसकी एडिटिंग करेगा और रिपोर्ट को अखबार में छपने लायक बनाएगा।

वर्कशॉप में शामिल तमाम पत्रकारों के साथ अलग-अलग बात की और परिणाम कुछ ऐसे रहेः

  • 1. वर्कशॉप में शामिल जिला स्तरीय तमाम पत्रकार पत्रकारिता करने के लिए गुणसंपन्न नहीं थे।
  • 2. किसी के भी पास लेखन, रिपोर्टिंग और पत्रकारिता से जुड़े किसी भी कौशल की योग्यता नहीं थी ।
  • 3. वर्कशॉप में मौजूद लगभग हर तथाकथित पत्रकार के पास खुद की प्राथमिकताएं मौजूद थीं, जैसे कोई व्यवसाय में था या उनके पास खुद के कमाई के साधन मौजूद थे, जैसे किसी की दवाईयों की दुकान थी, किसी की कपड़ों की तो कोई कृषि से जुड़े उत्पादों का विक्रेता था तो एलआईसी एजेंट था ।
  • 4. कुछ समाचार पत्रों के जिला ब्यूरो हेड के अलावा किसी के भी पास पहचान पत्र नहीं था। न ही वहां मौजूद पत्रकारों के पास जो दावा कर रहे थे कि हम फलां अखबार के साथ जुड़े हैं, उनके पास कोई ऐसा प्रूफ था जिससे वे साबित कर सकें कि वे वाकई में उस अखबार के लिए काम करते हैं।
  • 5. न ही किसी अखबार ने अपने इन पत्रकारों को किसी तरह का कोई पहचान पत्र, कोई लिखित पत्र या किसी भी तरह का कोई भी साक्ष्य नहीं दिया था, जिससे वे साबित कर सकें कि वे अपनी अखबारों के पत्रकार हैं भी या नहीं।
  • 6. इनमें किसी भी पत्रकार को उनकी रिपोर्टिंग के बदले और यहां तक की प्रकाशित हो चुकी खबरों के लिए भी किसी तरह का भत्ता नहीं मिला।
  • 7. हां इन पत्रकारों को केवल ई-मेल और फैक्स के द्वारा भेजी गई रिपोर्ट के लिए 10 से 15 रुपये मिलते हैं।
  • 8. यहां तक कि यह पत्रकार अपनी रिपोर्टिंग लाइन को यह तक नहीं पूछते कि अखबार में किस प्रकार की खबरों की जरूरत है, क्या किसी प्रकार की स्पेशल स्टोरी करनी चाहिए या नहीं, क्या हमारी न्यूज रिपोर्ट अच्छी थी या नहीं ?
  • 9. तथापि यह तमाम पत्रकार इस दबाव में रहते हैं कि अखबार के लिए विज्ञापन कैसे लाया जाए और इस काम के लिए उन्हें बार-बार याद दिलाया जाता है कि उन्हें विज्ञापन का इंतजाम करना है।
  • 10. यह तथाकथित पत्रकार जब भी अपने समाचार पत्र को कोई विज्ञापन देते हैं तो बदले में उन्हें 15 फीसदी कमिशन दिया जाता है और मात्र यही वो रुपया है जो इन्हें अपने अखबार से मिलता है।
  • 11. व्यक्तिगत रूप से बातचीत करने पर इन तमाम पत्रकारों ने यह बात स्वीकार की एक बार किसी व्यवसायिक घराने, किसी भी अधिकारी और किसी भी सरकारी ऑफिस से विज्ञापन मिलने के बाद उनके विरोध में कभी भी किसी भी तरह की कोई नकारात्मक खबर नहीं लिखने को मजबूर होते हैं।
  • 12. इन पत्रकारों ने यह बात भी साझा की कि तमाम सरकारी दफ्तरों में बहुत बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार फैला हुआ है, मगर एक बार इन दफ्तरों से विज्ञापन मिलने के बाद यह लोग उनके खिलाफ नहीं लिखने के लिए बाध्य हो जाते हैं। यहां तक कि यह भ्रष्टाचार खुलेआम होता है और सबको दिखाई भी देता है ।

आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह लोग किस तरह इस सिस्टम में काम करते हैं। हम सभी जानते हैं कि प्रमुख क्षेत्रीय भाषा के समाचार पत्रों में अब जिला स्तर पर और शहर संस्करण निकाले जाते हैं और इसके लिए समाचार पत्रों ने जिला स्तर पर अपने जिला मुख्यालय स्थापित कर रखे हैं। जबसे स्थानीय भाषा में समाचार जिला, तहसील और पंचायत स्तर पर भी थोड़े से ही समय में अपनी पकड़ बनाने में कामयाब हो रहे हैं तब से यह समाचार पत्र पत्रकारिता की तथाकथित शक्ति के इस्तेमाल से बेरोजगार युवाओं के साथ एक अजीब खेल शुरू कर देते हैं। चूंकि जहां मीडिया की पावर की बात होती है तो हर कोई अपना नाम समाचार पत्र में रिपोर्टर के तौर पर प्रकाशित हुआ देखना चाहेगा, इससे उनको लगता है कि लोकल लेवल पर प्रशासन और लोगों के दिलों में वे अपने लिए इज्जत और डर दोनों पैदा कर सकते हैं। इतना ही नहीं यह लोग स्थानीय स्तर पर प्रशासन के दफ्तरों और व्यवसायियों से विज्ञापन प्राप्त करके भी कमाई का साधन बनाते हैं और इससे भी उनकी पकड़ मजबूत होती है ।

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो स्थानीय स्तर पर तैनात इन तमाम पत्रकारों की भूमिका या तो विज्ञापन एजेंसी चलाने की होती है या फिर विज्ञापन एजेंटों के रूप में। जो अक्सर खुद को एक पत्रकार के रूप में पेश करते हैं और स्थानीय लोगों पर अपना दबदबा बनाए रखने के लिए नियमित रूप से रिपोर्टिंग भी करते हैं, जो सीधे रूप में यह भी बताना चाहते हैं कि हमारे पास किसी के भी खिलाफ या हक में लिखने की ताकत है। इस सबसे इन लोगों को विज्ञापन प्राप्त करने में किसी तरह की कोई मुश्किल भी नहीं आती।

पत्रकारिता की इस संदिग्ध नैतिकता के पाश में क्षेत्रीय भाषायी समाचार पत्रों के ब्यूरो चीफ उन पत्रकारों को रखते हैं जो स्थानीय स्तर पर विज्ञापन एजेंट का काम कर सकें। वहीं यह तथाकथित पत्रकार और विज्ञापन एजेंट जिला ब्यूरो हेड को भी प्रसन्न रखने की कोशिश में रहते हैं। वहीं ब्यूरो हेड पर भी जबरदस्त दबाव रहता है कि वो अखबार के लिए ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन लेकर लाए। जबकि इन्हें ब्यूरो हेड के नाते बेहद कम वेतन जैसे 3000 से 8000 रूपये प्रति माह ही मिलता है। इतना ही नहीं बहुत सारे पत्रकार तो अखबार में अपनी जगह बनाए रखने के लिए अपने ब्यूरो हेड को गुप्त रूप से रुपये तक देते हैं। आपको जिला स्तर पर अक्सर बहुत सारे रिपोर्टर मिल जाएंगे जो दावा करेंगे कि वे सब एक ही न्यूजपेपर से जुड़े हुए हैं, आपके लिए हैरानी की बात यह होगी कि एक ही अखबार के, एक ही शहर से इतने ढेर सारे रिपोर्टर कैसे हो सकते हैं? चूंकि कोई भी पत्रकार अखबार का स्थाई पत्रकार न होकर अखबार के लिए विज्ञापन एजेंट होता है और यह खुलेआम होता है। यह वो पत्रकार हैं जो अखबार के लिए बदस्तूर विज्ञापन लेकर आता है। यह लोग खुद को किसी कखग न्यूजपेपर का पत्रकार कहलवाने के लिए अपने ब्यूरो हेड को एकमुश्त रकम भी चुकाता है।

इन सबसे बात करने और स्थिति को समझने के बाद मेरी समझ से एक बात परे है कि आखिर क्यों यह लोग पत्रकार कहलवाना चाहते हैं जबकि इनके अलग-अलग बिजनेस और कई लोगों के पास तो दूसरी नौकरियां तक होती हैं और अच्छा खासा रुपया कमा रहे होते हैं। इतना ही नहीं इनमें ज्यादातर लोग तो बेहद सक्षम और स्मार्ट थे।

इन सबने सर्वसम्मति से एक बात पर सहमति जताई कि इनके समाचार पत्रों की ओर से इनका शोषण किया जाता है, मगर जब मैंने पूछा कि आप खुद का शोषण होने क्यों देते हैं, तो वहां चुप्पी छा गई। जो सीधा इशारा था इस बात की और की कि चाहे ग्रामीण स्तर हो, तहसील, पंचायत या फिर छोटे शहरों की बात हो हर कोई ताकत में बने रहने की दौड़ में शामिल था।

मेरी समझ के मुताबिक यह तमाम पत्रकार दोहरी जिंदगी जी रहे हैं। ये सब काम कुछ और करते हैं मगर दिखना कुछ और चाहते हैं, और सीधे रूप से पत्रकार कहलवाकर पत्रकारिता की पावर का इस्तेमाल करते रहना चाहते हैं।

मैं यह भी समझ सकता हूं कि संस्था के रूप में अखबारों का कर्तव्य हमेशा से ऊंचा रहा है। पत्रकारिता किसी भी देश के लिए चौथे स्तंभ के रूप में जानी जाती है। जाहिर सी बात है इसके लिए समाचार पत्रों को अपने नियम एक दम स्टीक और साफ सुथरे रखने चाहिए। और हां अगर कोई भी अखबार ग्रामीण स्तर तक अपनी पकड़ मजबूत करना चाहता है और अपने पाठकों और सर्कुलेश्न में इजाफा करना चाहता है तो किसी नैतिक रास्ते का चुनाव करना होगा और पत्रकारिता को विज्ञापन और राजस्व इक्ट्ठा करने के लिए इस्तेमाल करने पर रोक लगानी होगी। अन्यथा मीडिया के रूप में समाचार पत्रों के पास कोई हक नहीं रह जाएगा कि वो सही और गलत का फैसला करें, चूंकि उनके खुद के काम करने के तरीकों पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह है। पत्रकारों से मैंने यह कहते हुए अपनी बात खत्म की कि वे अपने लेखन के लिए ज्यादा से ज्यादा डीजिटल मीडिया का इस्तेमाल करें। जो वह लिखना चाहते हैं लेकिन बहुत बार कई कारणों से लिख नहीं पाते। मैंने उन्हें ब्लोग, फेसबुक आदि पर अपने विचारों को साझा करने और जानकारियों व सूचनाओं के आदान प्रदान के लिए डिजिटल डिवाइस के इस्तेमाल करने पर जोर दिया। एक बात और अगर 200 पत्रकार ऑनलाइन हो जाएं और उनका संघ उन्हें यूनियन ऑफिस में कंप्यूटर सेंटर स्थापित करके दे तो भी काया पलट सकती है। एक ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति करें जो इन सभी 200 सदस्यों को नेटीजंस (Netizens) (इंटरनेट की दुनिया से जुड़े नागरिक) का हिस्सा बनकर सूचनाओं का आदान-प्रदान करें तो भी इस भयावह तस्वीर में कुछ नैतिकता, दर्शन और नियमों के खूबसूरत रंग भरे जा सकते हैं।

एक उदासी के साथ मैं अपना यह लेख समाप्त कर रहा हूं कि अगर पूर्वी चंपारण राष्ट्रीय संघ के 200 सदस्यों की यह दशा है तो बाकियों का क्या होगा? हमारे देश के तमाम जिलों और इस एक जिले की हालत और गणित से हिसाब लगाया जा सकता है कि कम से कम 120,000 ऐसे पत्रकार और होंगे जो पत्रकार होने का दम तो भरते हैं मगर न तो उन्हें वेतन मिलता है न किसी तरह का कोई पहचान पत्र बल्कि वो पत्रकार का मुखौटा पहने हुए विज्ञापन एजेंट हैं।

-ओसामा मंजर, अध्यक्ष, डिजिटल एम्पावरमेंट फाउंडेशन। http://hi.defindia.net

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