एनआईसी की बैठक में क्यों नहीं गए मोदी?

22_06_2013-22NModi1सांप्रदायिक हिंसा रोकने और इससे निपटने के उपायों पर चर्चा के लिये दिल्ली में संपन्न राष्ट्रीय एकता परिषद (एनआईसी) की बैठक में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का शामिल न होना विवाद का विषय बनता जा रहा है। दरअसल परिषद की 15वीं बैठक 10 सितंबर 2011 को हुई थी और दो वर्ष से अधिक समय के बाद यह 16वीं बैठक थी जो उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर की सांप्रदायिक हिंसा के बाद काफी महत्वपूर्ण मानी जा रही थी। समझा जा रहा था कि चुनाव पूर्व तैयारियों की रणनीति के तहत मोदी इस बैठक को प्रधानमंत्री और काँग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को घेरने के अवसर के तौर पर इस्तेमाल करेंगे। पिछले दिनों जिस प्रकार लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के संबोधन की टक्कर पर मोदी ने लालन कॉलेज के मैदान से भाषण दिया और छत्तीसगढ़ की उनकी सभा में लाल किले का पोर्ट्रेट लगाया गया था उससे यह संभावना भी बढ़ गई थी कि मोदी इस बैठक में उपस्थित होकर इसे भी चुनावी रंग में रंगने का प्रयास करेंगे। लेकिन उनका बैठक में ही न आना कई सवाल खड़े कर गया।

अब सवाल उठाए जा रहे हैं कि मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर रहा है और मुजफ्फरनगर दंगों के लिए अन्य विपक्षी दल भाजपा पर प्रहार कर रहे हैं, ऐसे में मोदी ने अपनी पार्टी का पक्ष रखने का अवसर क्यों गँवा दिया? वहीं एक तरफ यह भी कहा जा रहा है कि मोदी सांप्रदायिक हिंसा जैसे राष्ट्रीय महत्व के चिंतनीय विषय पर कतई गंभीर नहीं हैं। एनआईसी की बैठक में देखा जाए तो इशारों ही इशारों में प्रधानमंत्री समेत उप्र के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सहित गैर भाजपा नेताओं ने सांप्रदायिक हिंसा के लिए भाजपा को ही निशाने पर रखा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कि कहा, दंगा करने और भड़काने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने में सरकार की पूरी ताकत का इस्तेमाल होना चाहिए, चाहे वह कितने भी शक्तिशाली हों या किसी भी राजनीतिक दल से संबंध रखते हों। अपने भाषण की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री ने साफ कहा कि वैसे तो इस परिषद की हर बैठक महत्वपूर्ण होती है, लेकिन चूंकि आज की बैठक उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर और उसके पड़ोसी जिलों में हुए सांप्रदायिक दंगों के फौरन बाद हो रही है इसलिए इसकी अहमियत और भी बढ़ जाती है।

उधर यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मुजफ्फरनगर दंगे का जिक्र करते हुए भाजपा नाम लिए बिना कहा कि कुछ राजनैतिक पार्टियां अपने फायदे के लिए इस तरह की हरकत करती हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी सवाल किया कि क्या वोट हासिल करने की प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति में विभाजनकारी एजेंडा को कट्टरता के साथ अपनाना आवश्यक है? उन्होंने कहा, हम पाते हैं कि जब भी सांप्रदायिक हिंसा होती है, प्राय: राजनैतिक वर्ग की मिलीभगत से असामाजिक तत्व इसमें शक्ति प्रदान कर देते हैं। मुजफ्फरनगर में क्या हुआ, यह हमने देखा है। यह एक गंभीर चिंता का विषय है। हम इस हिंसा को पूरे देश में नहीं फैलने दे सकते हैं। कुछ शक्तियां सांप्रदायिक तनाव में आग में घी देने का कार्य स्थिति को अपने पक्ष में करने के लिए करती हैं।

जाहिर है ऐसे में मोदी से उम्मीद और बढ़ जाती थी कि वे बैठक में ही इन अप्रत्यक्ष आरोपों का उत्तर देते। हालाँकि तर्क दिया जा रहा है कि मोदी भाजपा के पीएम पद के प्रत्याशी जरूर हैं लेकिन ऐसी कोई संवैधानिक बाध्यता या व्यवस्था नहीं है कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार एनआईसी की बैठक में उपस्थित ही हो। लेकिन इस तर्क के प्रत्युत्तर में ही तर्क सामने आया कि संविधान में तो प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी नहीं होता है। देश में संसदीय प्रणाली है और जनता सांसदों का चुनाव करती है बाद में जिस दल को बहुमत मिलता है उसके सांसद अपना नेता का चुनाव करके प्रधानमंत्री चुनते हैं। इसलिए संवैधानिक रूप से पीएम पद का उम्मीदवार होगा भी तो वह सत्तारूढ़ दल का ही होगा। हालाँकि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बैठक में अपनी पार्टी पर लग रहे अप्रत्यक्ष आरोपों का नपी तुली और गोल-मोल भाषा में यह कहकर बचाव करने का प्रयास किया कि एक ग्रुप या संगठन को बलि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए और उसे ऐसे उदाहरणों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए।

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