जो कोई क़लम न लिख पाई
रात के सन्नाटों में
तन्हाइयों का शोर में जाने क्यों
ज्वालामुखी बन कर उबल पड़ता है
इक दर्द, जो सदियों से
चट्टान बनकर मेरे भीतर जम गया था
सोच की आंच से वही पिघलता हुआ
एक पारदर्शी लावा बनकर बह गया
जब मैं खाली हुई
तब जाकर जाना कि मैं कौन हूँ
-देवी नागरानी