श्रीकृष्ण कहते हैं : तत्वदर्शी महात्मा की महिमा

शिव शर्मा
जो मनुष्य किसी भी पदार्थ, वसतु, कर्म, जीवात्मा, आतमा, ब्रह्म आदि के सत्य को जानता है उसे तत्वदर्शी महात्मा कहते हैं। जिस तरह भोतिक पदार्थ का सत्य परमाणु है ; परमाणु का सत्य विद्युत आवेशी प्रवृत्ति एवं सूक्ष्मतम कण क्चार्क आदि हैं ; और यह सब जानने वाले को वैज्ञानिक कहते हैं। उसी तरह जो मनुष्य शरीर के 24 तत्वों को, अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार ) को, ं जीवात्मा को, जीवात्मा से परे आत्मा को, फिर इस से भी सूक्ष्म परमात्मा को तथा परमात्मा से भी परे ब्रह्म को जानता है ; यह सब हृदय में प्रत्यक्ष कर चुका है, उसे तत्वदर्शी महातमा कहते हैं। गुरु भी यही होता है।
ऐसे महातमा की दो विशेषताएं होती हैं – वह ब्रह्मज्ञानी होता हे एवं शास्त्रों का भी पंडित होता है। ब्रह्म, जीव, आत्मा , सृष्टि आदि के बारे में जो कुछ भी वैदिक ग्रंथों में लिखा हुआ है, वह सब कुछ जानता है। उसे लोक देवता, ग्राम देवता, मातृ शक्तियां, यज्ञ देवता, 33 कोटि देवता एवं ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान होता है।
इस के अतिरिक्त ऐसा महातमा कर्म, ज्ञान एवं भक्ति को सम्पूर्णता से जानता है – भक्ति यानी श्रद्धा, समर्पण भाव, प्रेम, रति और आनंद। ज्ञान यानी देह, अंतः करण, मन, बुद्धि, अहंकार, जीव, आत्मा, परमात्मा, अक्षर ब्रह्म एवं पर ब्रह्म। कर्म अर्थात् सकाम (फलासक्ति, कर्तापन का अभिमान), निष्काम कर्म यानी निरहंकार, फल में अनासक्ति, प्रभु के निमित्त भाव या समर्पण भव से केवल कर्तव्य कर्म करना या स्वधर्म का पालन करना। इसीलिए गुरु अपने शिष्य को समझा सकता है कि कर्तव्य कर्म करते करते, भकित कर्म करते करते और ज्ञान कर्म की निरंतरता का यानी इन सब का परिणाम ब्रह्म तक पहुंचना ही है। अकर्मण्य ज्ञान, अकर्मण्य भक्ति एवं अकर्म (कर्म नहीं करना) ; यह सब मनुष्य को भ्रमित करते हैं, उसके जीवन को विफल कर देते हैं।
ग्ीता में तत्वदर्शी गुरु के व्यक्तित्व में इतना विस्तार बताया गया है।
[26/09, 6:42 pm] Shiv Sharma: श्रीकृष्ण कहते हैं (13)
शिष्य होना बहुत कठिन साधना है !
भगवान ने चैथे अध्याय के 34 वें श्लोक में अर्जुन को कहा – यदि मेरी बात तेरी समझ में नहीं आती है तो तू किकसी तत्वदर्शी ज्ञानी महात्मा की शरण में जा। उनका शिष्य बन कर रह। यहीं कृष्ण ने बताया है कि शिष्य कौन होता है।
1. जो गुरु के चरणों में स्वयं के अहंकार का विसर्जन कर दे। फिर बाहरी दुनिया में भी अहंकारी मनुष्य की तरह नहीं रहे। अपनी विद्वता, धनाढ्यता, सामथ्र्य, शक्ति आदि सब कुछ गुरु चरणों में अर्पित कर देना ही साष्टांग प्रणाम करना है।
2. आश्रम में रहते हुए तन-मन से गुरु की सेवा करे। शारीरिक श्रम करे। तामसिक खान पान से दूर रहे। मन में पूर्ण श्रद्धा भाव रखे। गुरु के कर्म, कथन, आहार आदि पर संशय नहीं कर।ं मन में सदैव प्रणत (झुका हुआ) रहे।
3. उठते, बैठते, खाते, पीते, बोलते हुए पूरी तरह विनम्र रहे। सिर उठा कर बात नहीं करे। गुरु की आँखों में देखते हुए बात नहीं करे।
4. हृदय में सरल भाव सहित प्रश्न पूछे। आध्यातिमक ज्ञान संबंधी सवाल करे। गुरु की परीक्षा लेने की नीयत से प्रश्न नहीं करे।
5. ज्ञान के स्तर पर तीन तरह के शिष्य होते हैं। पहली श्रेणी (उत्तम) में वे शिष्य जो गुरु के उपदेश को सुनते ही ज्ञान ग्रहण कर लेते हैं – गुरु के हृदय से स्फुरित ज्ञान शिष्य के हृदय में उतर जाता है। गुरु के आज्ञाचक्र से निकली ज्योति, शिष्य के आज्ञाचक्र में प्रवेश कर जाती है। दृष्टांत, ऋषि संदीपनि-कृष्ण। दूसरा (मध्यम) – वे शिष्य जो गुरु की बात सुनते हैं, उस पर मनन करते हैं और बार बार स्मरण करते हैं। यही श्रवण, मनन, निदिध्यासन है। ऐसा लम्बी प्रक्रिया के माध्यम से उन्हें ज्ञान प्राप्त होता है। उदाहरण, याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी। तीसरी श्रेणी के शिष्य कनिष्ठ कहे जाते हैं। ये शास्त्र के आधार पर प्रश्न, प्रति प्रश्न करते हैं। गुरु पहले वेद उपनिषद के आधार पर इनका शंका समाधान करता है। ऐसे शंकालु शिष्य को अनेक बार गुरु किसी अन्य महापुरुष के पास जाने के लिए कह देता है। दृष्टांत – कृष्ण-अर्जुन।
6. ठसलिए भगवान ने यह भी कहा है कि गुरु में बोध यानी ब्रह्म की अनुभूति के साथ ही वेद-उपनिषद आदि शास्त्रों का ज्ञान भी होना जरूरी है। ब्रह्म ज्ञानी ही शिष्य को ब्रह्मविद्या देगा ; और शास्त्रों का जानकार ही शिष्य का शंका समाधान कर सकेगा।

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