इस बार कोई तीसरा ही जीतेगा

शिव शंकर गोयल
शिव शंकर गोयल

चुनाव के दिनों में एक प्रमुख शहर में एक दल की लाख कोशिशों के बावजूद उनका उम्मीदवार चुनाव हार जाता था. इस बारे में पार्टी में विचार हुआ कि हम बार बार क्यों हार जाते हैं? हमने चुनाव के दिनों में खूब जातिवाद का प्रचार करके देख लिया, समाज के मंदिर में जाति की पंचायत बुलवा ली, पंडित-पुजारियों और मुल्ला-मौलवियों से फतवे जारी करवा लिए, कई टोने-टोटके कर लिए, यहां तक कि एक बार तो एक पार्टी के अध्यक्ष की देखा-देखी उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर में नंदी के कान में जीत की मुराद भी मांग ली, लेकिन सबका नतीजा सिफर ही रहा यानि फिर भी हमारा उम्मीवार हार गया। इस बारे में पार्टी ने जब किसी हाईटेक जानकार से खोज करवाई गई तो पता पड़ा कि हमारे उम्मीदवार का नाम ही हारूमल है तो वह जीतेगा कैसे? पूरी पार्टी मान गई कि सही बात लगती है क्योंकि सब जानते है कि जो कुछ है नाम में ही तो है।
कई सम्प्रदाय तो नाम पर ही जोर देते हैं। अत: इस बार पार्टी ने फैसला लिया कि उम्मीदवार सिर्फ नाम के आधार पर ही चुना जाय और इसलिए उन्होंने जीतू नामक व्यक्ति को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया और विरोधियों को ललकारा कि इस बार मैदान में आकर देखो लेकिन विरोधी भी कम नहीं थे, आखिर अंदर खाने तो दोनों एक ही है, उन्होंने भी एक दूसरे जीतू नामक व्यक्ति को ही टिकट दे दिया। यह सही है कि दोनों ही जीतू हैं. दोनों ही देवी-देवताओं को मना रहे हैं। चूंकि दोनों एक ही जाति, सम्प्रदाय इत्यादि के हैं, इसलिए चुनाव जीतने का इन दोनों ही पार्टियों का पुराना फंडा भी काम नहीं आ रहा है. ले देकर एक के पास वहां की राज्य सरकार में फैला भ्रष्टाचार है तो दूसरे के पास केन्द्र सरकार की नाक के नीचे हुए घोटाले, बढ़ती महंगाई इत्यादि के अस्त्र-शस्त्र है. हालांकि दोनों ही मैं जीतू, मैं जीतू कह रहे हैं। इस बात को देखते हुए लोगों को लखनऊ स्टेशन का एक वाकया याद आ गया.
हुआ यह कि एक गाडी दिल्ली रवाना होने ही वाली थी कि दो नवाबजादे डिब्बे में चढऩे लगे लेकिन लखनवी तहजीब के कारण दोनों ही एक दूसरे को कहने लगे किबला पहले आप, पहले आप, इसका नतीजा यह हुआ कि दोनों ही बहस करते रह गए और कोई तीसरा ही कम्पार्टमेंट में चढ़ गया और गाडी चल दी, लेकिन यहां तो ठीक इसका उल्टा हो रहा था. दोनों ही बिना मुद्दों की बहस में उलझे हुए है. एक बॉडी लैग्वेज से झूठ-सांच उलीच रहा है. वह प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा और डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को एक ही शख्स समझता है और अपने आप को इतिहास का ज्ञाता और बीजेपी का बड़ा नेता कहता है तो दूसरा गरीबी देखने-समझने विदर्भ में कलावती की झोंपड़ी में जाता है, फाइवस्टार होटल से खाना मंगवा कर खाता है और चुनावी सभाओं में बांहे चढ़ा चढ़ा कर मां-बेटों की भावुक कहानियां सुनाता है.
ऐसे समय हमें धर्मयुग के भूतपूर्व सम्पादक धर्मवीर भारती याद आते है
जो कहते हैं:-
हम सबके माथे पर शर्म
हम सबकी आत्मा में झूठ
हम सबके हाथों में टूटी
तलवारों की मूठ
हम सब सैनिक अपराजेय.
होगा तो यही कि यह दोनों मैं जीतू, मैं जीतू करते रह जायेंगे और केन्द्र में कोई तीसरा ही लोकतंत्र की गाडी पर चढ़ कर निकल जायगा।
-ई. शिव शंकर गोयल

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