कल्पेश याग्निक जी, कलम उठाने से पहले ज़रा सोचिये

Kalpesh-Yagnikदैनिक भास्कर के चार जनवरी के अंक में पत्र के संपादक श्री कल्पेश याग्निक का संपादकीय लेख पढ़ा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के शुक्रवार को मीडिया संबोधन को लेकर संपादक महोदय ने अपने विचार लिखे है। नरेन्द्र मोदी के बारे में प्रधानमंत्री के विचारों को लेकर संपादक महोदय असहज से लगते महसूस हुोते है। मनमोहन सिंह को शांत गंभीर बताते हुए वह लिखते हैं कि नरेन्द्र मोदी को लेकर इतनी तल्ख टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी।

संपादक महोदय को लगता है कि गुजरात में जो कुछ हुआ था वह एक सामान्य घटना ही रही होगी इसलिए सामान्य घटना के लिए नरेन्द्र मोदी को इतना अपमानित नहीं किया जाना चाहिए। एक तरह से संपादक महोदय ने प्रधानमंत्री की चिंता या विचारों को खारिज करते हुए यह अहसास कराया है कि देशभर मे मुस्लिमों को चाहिए कि वे प्रधानमंत्री की बातों में ना आएं और एक स्वाभाविक रुप से क्रिया की प्रतिक्रिया को समझते हुए ऐसे व्यक्ति को अपना मत और समर्थन करें जो उस घटना के लिए परदे के पीछे से जिम्मेदार रहा है।

वाह!! कल्पेश जी। इतने बडे समाचार पत्र समूह से जुड़कर भी आप निष्पक्ष नहीं है। आज के दौर में पत्रकारिता के साथ यही दिक्कत है कि वह अपने आप को निष्पक्ष नहीं रख पा रही है। क्या लेखक क्या रिपोर्टर क्या संपादक सभी अपने आपको बडा बुद्विजीवी मानते हुए एक ऐसे व्यक्ति या संगठन के साथ खडें है जिसकी बुनियाद ही देश की एकता को कमजोर करने और अपने छुपे एजेंडे को बहुमत के साथ सत्ता हासिल कर लागू करने में पडी है। अगर आपको यकीन ना हो तो नरेन्द्र मोदी की पार्टी व संगठन के उददेश्य को पढ लें। जिसका मकसद देश को एक वर्ग विशेष का देश घोषित करना और कथित तौर से अंग्रेजों और मुस्लिम शासको की गुलामी का बदला लेना है। भारी बहुमत से सत्ता मे आकर अपनी जिद में फिर से मुस्लिम वर्ग को भड़कीले नारों से बरगलाते हुए अयोध्या में भव्य राममंदिर निर्माण करना है। फिर चाहे इसके लिए देश को दंगों का दर्द झेलना पडे तो क्योंकि तब वे सत्ता में होगें। क्या देशभर के संपादक और रिपोर्टर को यह बात मालूम नहीं है। क्या यह अंदेशा सच नहीं हो सकता है। इस अंदेशे को ही लेकर प्रधानमंत्री यदि नरेन्द्र मोदी को देश का विनाशकारी व्यक्ति बता सकते हैं तो उनके अंदेशें पर बुद्विजीवी वर्ग को कोई अहसास नहीं होता। क्योंकि वे मुस्लिम वर्ग से नहीं है। ना ही इतने बडे वर्ग के दर्द को उन्हे समझना है। सिर्फ नरेन्द्र मोदी का बचाव करना है क्यूंकि मोदी के राजनैतिक प्रबधकों ने पूरे देश में ऐसी मार्कटिग कर दी है कि बाजार में मोदी की डिमांड हो गई है।

muzaffar ali
muzaffar ali

ऐसे ही कुछ-कुछ देश की आजादी से पहले मुहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम वर्ग में अपनी डिमांड बढा दी थी जिसकी परिणति में देश दो टुकडों में बंटा। होना तो यह चाहिए कि देश का मीडिया वर्ग यह सवाल करे कि क्या नरेन्द्र मोदी को देश का शासन सौंप देने से उनका संगठन या पार्टी अपने उददेश्य को छोड़ देगी। क्या नरेन्द्र मोदी मुस्लिम वर्ग को हर तरह की सुरक्षा देने का ठोस वायदा करेगें। क्या कट्टर हिंदुवादी संगठन मुस्लिम वर्ग के साथ दोस्ताना व्यवहार करेगें। उम्मीद है के कल्पेश जी मेरे विचारों पर भी गौर करेगें और मेरी इस प्रतिक्रिया को मात्र मुस्लिम भावनाओं में बहा हुआ नही मानेंगें क्यों कि यह सिर्फ मेरी ही भावना नही देश भर के करोडों मुस्लिम युवाओं की भावनाएं भी हो सकती है।

धन्यवाद
आपका मित्र
सैयद मुजफ्फर अली,
पत्रकार, अजमेर।

लेखक से संपर्क उनके मोबाइल नं. 09602787052 पर किया जा सकता है।

पाठकों की जानकारी के लिए कल्पेश जी का संपादकीय हूबहू यहां दिया जा रहा है

क्या याद रखेंगे इतिहासकार मनमोहन सिंह की इस वार्ता में से?
नरेंद्र मोदी को देश के लिए ‘विनाशकारी’ कहकर डॉ. मनमोहन सिंह ने भौंचक कर दिया है। मोदी को ‘हत्यारा’ जैसे शीर्षक मिलते रहे हैं। सोनिया गांधी उन्हें ‘मौत का सौदागर’ कहकर एक कड़वी बहस का कारण बन चुकी हैं। इसलिए मोदी के प्रति आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग करना या सुनना कतई नया नहीं है। इसलिए भौंचक कर देने वाला भी नहीं है। चौंकाने वाला तो यह है कि ऐसा डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा। वह भी प्रधानमंत्री की हैसियत से बुलाई गई ‘दुर्लभ’ प्रेस वार्ता में। वह भी उस वार्ता में, जिसमें अगले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार न होने की घोषणा की। यानी विदाई के पहले की औपचारिक बातचीत के दौरान। स्वान सॉन्ग। अपने सक्रिय समय में स्वान या तो कुछ बोलता ही नहीं है, या बहुत कम बोलता है। बिदाई से पहले मधुर संगीतमय वाणी में गाता है।
तो एक गरिमामय समय में, १० वर्षों के लंबे प्रधानमंत्रित्व के बाद – जो पं. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद उन्हीं का रहा – वे ऐसा क्यों बोल गए? क्या उन्हें ऐसा नहीं बोलना चाहिए था? क्या इसमें इतनी बड़ी बात हो गई है? क्या यह इतना $गलत था? क्यों यह प्रश्न खड़े होंगे? ‘अहमदाबाद के नरसंहार के नेतृत्व करने’ का खुला, गंभीर और भयावह शब्दावली में जो आरोप प्रधानमंत्री ने जड़ा, वह तो २००२ के दंगों के बाद से ही चल ही रहा है। तो क्यों इतना गंभीर है यह?
गंभीर इसलिए है कि डॉ. सिंह गंभीर हैं। ऑक्सफोर्ड में पढ़े। ऑक्सफोर्ड में पढ़ाया। विश्वदृष्टि वाले। अति शांत। इतने कि ‘चिर चुप्पी’ के लिए कोसे तक गए। वाचाल यदि चुप रहे तो डर लगने लगता है। वैसे ही, शांत व्यक्ति, अशांत बातें करे तो बेचैनी होने लगती है। और बहुत बड़ी हस्ती, बहुत छोटी बात कर दे, यह बहुत छटपटाहट पैदा करने वाली बात है। क्योंकि बड़ों के बड़प्पन की ही अपेक्षा होती है। यहां तक कि कड़े से कड़े शब्दों में बड़ों की निंदा करने वाले भी मानते हैं कि बड़े, बड़ी ही बात करेंगे।
अन्ना हजारे का किस्सा कौन भूला है? जब इंडिया अगेंस्ट करप्शन जन आंदोलन शीर्ष पर था, उन्हीं दिनों वह घटना घटी थी। किसी तत्व ने केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार को थप्पड़ मारने की हरकत कर दी थी। जब अन्ना से मीडिया ने इस पर प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उन्होंने कहा: … क्या एक ही थप्पड़ मारा है? धक्क रह गए थे लोग। पवार उन दिनों काफी विरोध झेल रहे थे। महंगाई पर विचित्र वक्तव्यों के कारण सभी उनसे नाराका थे। किन्तु बड़े से बड़े पवार-विरोधी ने भी अन्ना की तीखी आलोचना की। अच्छे से अच्छे अन्ना समर्थक भी सकते में आ गए थे। क्योंकि अन्ना बड़े थे। उन्होंने अपने बड़प्पन को स्थापित कर लिया था। उन्होंने ही अपेक्षा जगाई थी कि उनसे बड़ी उम्मीदें बन गई थीं।
कोई एक छोटी बात आपकी कई बड़ी बातों को छोटा कर सकती है। विष की एक बूंद। भारी मात्रा में मौजूद द्रव को नष्ट कर सकती है।
नरेंद्र मोदी की बात ही लें। उनके बड़े से बड़े प्रशंसक भी लगातार यही चाहते हैं कि वे राहुल गांधी को बार-बार ‘शहज़ादे (मोदी ‘शाहज़ादे’ उच्चारित करते हैं), न कहें। हल्का लगता है। चुनावी भीड़ की हंसी-मजाक, माहौल में जोश और धाराप्रवाह बोलने में शब्दों-वाक्यों और तथ्यों का ध्यान न रहना साधारण और स्वाभाविक है। फिर भी। फिर भी लोग अच्छा नहीं मानते। आपत्तिजनक समझते हैं।
फिर भी। एक और विचार है। मोदी की छवि जैसी है, उसमें उनका उग्र भाषण मुख्य रूप से छलकता है। तो मोदी चाहे जितना आपत्तिजनक बोलें- उनके श्रोताओं को कोई विशेष धक्का नहीं पहुंचता। वर्षों-वर्षान्तर से ऐसे ही हैं मोदी। ऐसे रूप में ही स्वीकार किए गए हैं। फिर भी। अब जबकि वे प्रधानमंत्री पद के अधिकृत प्रत्ाशी हैं- लोगों की अपेक्षा बढ़ती जा रही है कि वे ‘हल्के’ शब्द-वाक्य न बोलें, हल्के प्रहार भी न करें।
इसी तरह एक और महत्वपूर्ण बिन्दु है। आप अपने मूल स्वभाव को कतई मत छोडि़ए। डॉ. सिंह का मूल स्वभाव किसी को भी ‘विनाशकारी’ कहने का नहीं है। अपने विरोधी प्रधानमंत्री उम्मीदवार को तो दूर, वे ऐसे लगते हैं मानो ‘डिजास्ट्रस’ या ‘मैसेकर’ शब्द उनके शब्दकोश में हों ही नहीं। फिर भी वे ऐसा क्यों कह बैठे?
कारण तो कभी सामने नहीं आ पाएगा, किन्तु संभवत: राजनीतिक विवशता रही हो। ‘विवशता’ उनका मूल स्वभाव है भी। यूं भी अपनी तीसरी ऐसी मीडिया वार्ता में श्रेष्ठ होता वे अकेले मंच पर बैठते और संपादकों, संवाददाताओं के मन की बात, अपने स्वभाव अनुरूप करते। न कि केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री को बगल में बिठाकर। कुछ अवसर ऐसे होते हैं जब इर्द-गिर्द कोई न हो, तो ही अच्छा लगता है।
राजनीतिक विवशताओं के अंतर्गत या कि व्यक्तिगत पूर्वग्रहों के कारण; प्रधानमंत्री पद पर बैठे शीर्ष व्यक्ति भी कुछ ऐसा कह ही जाते हैं जो उनकी गरिमा के अनुरूप नहीं होता। यही सीख उनके इस ‘विनाशकारी’ वक्तव्य से मिलती है।
राजनीति में कर्कशता समाप्त हो, यह असंभव है। नेता विवशताओं से बंधे, यह असंभव है। बड़े, छोटी बात न करें, यह असंभव है। किन्तु इन सभी अनिवार्य बुराइयों को खत्म करना ही होगा। कर्कशता पर शालीनता, विवशता पर स्वतंत्रता और छोटी बात पर बड़प्पन हावी हो, यह आम भारतीय कर सकता है। प्रतिकार कर।
डॉ. सिंह ने अधिकतर बातें ‘इतिहासकार याद करेंगे’ कहकर छोड़ दी हैं। बाकी का तो पता नहीं, उनका यह ‘विनाशकारी’ वक्तव्य निश्चित ही इतिहासकार याद रखेंगे।
संभवत: केवल उनकी इसी पंक्ति को याद रखा जाएगा।
कल्पेश याग्निक

 

 
 
 
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