महान सूफी संत ख्याजा मुइनुद्दीन हसन चिश्ती

Dargaah 31सूफी संत ख्याजा मुइनुद्दीन हसन चिश्ती का सालाना उर्स (पुण्य तिथि) इस्लामिक कलेण्डर के रजब माह की 1 से 6 तारीख तक मनाया जाता है। दूर-दूर से देश विदेश के लोग गरीब नवाज की मजार पर अकीदत के फूल पेश करने खिंचे चले आते हैं। उर्स के दौरान लाखों लोगों के अजमेर में एकत्रित होने से मेले का सा माहौल होता है अत: यह उर्स मेला कहलाता है।
ख्वाजा मुइनुद्दीन हसन चिश्ती (1143-1233 ई.) 52 वर्ष की उम्र में अजमेर आये। 91 वर्ष की आयु में उनके शरीर का अन्त हुआ। वह ऐसा समय था जब लड़ाई-झगड़े होते रहते थे। इस अवधि में पृथ्वीराज चौहान, मोहम्मद गौरी, कुतुबुद्दीन ऐबक तथा मेवाड़ व मारवाड़ के राजाओं ने अजमेर पर कब्जा किया। ख्वाजा साहेब के इंतकाल के बाद कच्ची र्इंटों का साधारण मजार बना दिया गया था। करीब 250 वर्ष तक इसमें कोई खास रद्दोबदल नहीं हुआ। सन् 1455 ई. में मांडू के सुल्तान मोहम्मद खिलजी का अजमेर पर कब्जा हुआ। उस समय पक्का मजार बनवाया गया। सन् 1564 में अजमेर बादशाह अकबर के अधीन आया। इसके पश्चात् बादशाह अकबर, जहांगीर और शाहजहां के जमाने से अब तक दरगाह क्षेत्र में नये भवनों का निर्माण और रद्दोबदल करवाया जा रहा है।
ख्वाजा साहेब का सालाना उर्स कब से मनाया जाने लगा, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से बताना मुश्किल है। ऐसे पहुंचे हुए संत की मजार पर उनके इंतकाल के बाद से ही लोग अकीदत के फूल पेश करते होंगे। बादशाह अकबर के समय से पहले भी दरगाह में वर्तमान समय के रस्म रिवाज किसी न किसी रूप में अवश्य होंगे। इन व्यवस्थाओं के सुचारू रूप से संचालन के लिए बादशाह अकबर द्वारा 18 गांव दरगाह को जागीर में दिये गये। कर्मचारी नियुक्त किये और सन् 1569 में शेख मोहम्मद बुखारी को दरगाह का मुतवली नियुक्त किया गया। सन् 1570 ई. में बादशाह अकबर द्वारा आगरा से अजमेर तक की पैदल यात्रा से दरगाह की शौहरत खूब फैली। संभवत: बादशाह अकबर के समय से ही उर्स मेला जोर-शोर से भरने लगा। अब भी पद यात्रा की परम्परा है। लोग दूर-दूर से पैदल यात्रा कर अजमेर जियारत करने आते हैं। उर्स के मेले के दौरान ख्वाजा साहेब के मजार पर चादर चढ़ाने का भी तांता लगा रहता है।
बादशाह अकबर के उत्तराधिकारी बादशाह जहांगीर 1613 से 1616 ई. तक करीब तीन वर्ष तक अजमेर में रहे। अजमेर प्रवास के दौरान ख्वाजा साहब के उर्स के बारे में बादशाह ने अपनी जीवनी ”तुजुके जहांगीरी” में लिखा है, ”रविवार की रात को ख्वाजा बुजुर्गवार का उर्स था और मैं उनके रोजे मुतबरिक पर गया और वहां आधी रात तक रहा। खादिमों और सूफियों को वज्द हो गया और मैंने अपने हाथ से फकीरों और खादिमों को दौलत बख्शी। कुल खर्च 600 रुपये नकद, 100 कुरते और मोतियों, अम्बर व मूंगों की 70 मालाओं का हुआ। बादशाह शाहजहां की बेटी बेगम जहांआरा ने अपनी पुस्तक ”मोनेसुल अरवाह” में अजमेर यात्रा के बारे में लिखा है ”दिल्ली से यहां (अजमेर) आनासागर होते हुए अजमेर शरीफ तक पहुंची। तब हर दो मंजिल पर दो रकात नमाज अदा की…. बड़ी अकीदत के साथ मजारे अकदश पर पहुंची और जब तक यहां रही और रातें यहां गुजारी तब तक पैर और कमर मजारे अकदश शरीफ की ओर नहीं किये।
यातायात के वर्तमान साधन न होने के कारण उर्स मेले में भी लोग ऊंट, बैलगाड़ी व घोड़ों आदि से आया करते थे। जनाब अब्दुल कादिर साबित जंग (1782-1825 ई.) ने अपने संस्मरण में लिखा है कि पुष्कर मेले से भी अधिक पशु अजमेर के उर्स मेले में देखे जा सकते थे। इसी प्रकार से संचार के साधन न होने के कारण उर्स मेले की सूचना देने के लिए लोग देश के विभिन्न स्थानों से हाथों में छोटी-बड़ी झंडियां लेकर अजमेर शरीफ की ओर रवाना हो जाते थे।  रास्ते में लोगों को सूचित करते, जिससे कुछ लोग उनके साथ और कुछ आगे पीछे अजमेर के लिए प्रस्थान करते। उर्स मेले के प्रांरभ से एक सप्ताह पहले दरगाह के 75 फीट ऊंचे बुलन्द दरवाजे पर भीलवाड़ा के गौरी परिवार द्वारा लाया गया बड़ा हरा झंडा चढ़ाने की परम्परा है।
उर्स मेले के दौरान दरगाह में कव्वाली की महफिल का समय भी रात्रि 11 से प्रात: चार बजे तक रखा गया। महफिल-ए-समा अथवा कव्वाली के लिए यही आदर्श समय है। सन् 1891 में जनाब बशीरूदौला सर असमान जाह द्वारा महफिलखाने के निर्माण के पहले उर्स के दौरान शामियाना लगाकर कव्वाली की महफिल होती थी। कव्वाली के प्रारंभिक काल में केवल डफ व तालियों के साथ  ही कव्वाली गाई जाती थी। बाद में हारमोनियम आदि का भी उपयोग किया जाने लगा। अजमेर की दरगाह में प्रतिदिन ही लोगों के आने का तांता लगा रहता है। उर्स मेले में अब की तुलना में पहले बहुत कम लोग आते थे। बताया गया है कि सन् 1947-1948 में देश के विभाजन के दंगों के समय तो उर्स मेले में केवल इतने लोग थे कि जुम्मे की नमाज दरगाह क्षेत्र में ही अदा कर ली गई। वर्तमान समय में दरगाह को जाने वाली सभी सड़कों पर दूर-दूर तक बैठकर लोग नमाज अदा करते हैं। देश की आजादी के बाद संचार माध्यमों से गरीब नवाज की दरगाह की शोहरत खूब फैली और इसके अलावा लोगों की माली हालत भी अच्छी हुई है। इस कारण से मेले के दौरान लाखों लोग अकीदत के फूल पेश करने अजमेर आते हैं। दरगाह के विश्राम गृह, जिला प्रशासन द्वारा निर्मित विश्राम स्थल व अन्य स्थानों पर भी जायरीन के ठहरने, सफाई व पानी की विशेष व्यवस्था की जाती है।
लंगर :- बादशाह अकबर के समय से ही दरगाह में प्रात: व सांयकाल मीठा व नमकीन दलिया तैयार कर बांटा जाता है। इसी प्रकार से खासतौर से उर्स के मौके पर बादशाह अकबर व जहांगीर द्वारा भेंट की गई देगों में चावल, घी, मेवा, मिष्ठान पकवा कर वितरण की परम्परा है। बताया गया है कि पहले मुगल बादशाहों के द्वारा शिकार किये गये जानवरों का मांस पकाकर वितरित किया  जाता था। बाद में इन देगों के लूटने की परम्परा चल पड़ी। कुछ वर्षों से अब पुन: देगों में पकाये गये तबर्रुक के वितरण की व्यवस्था की गई है। अजमेर मेरवाड़ा के गजेटियर के अनुसार सन् 1901-1902 में लंगर खाने में प्रात: व सांयकाल करीब नौ सौ लोगों को भोजन वितरित किया जाता था। इसका सालाना खर्च 5000 रुपये था। शायद बहुसंख्यक लोगों की भावना की कद्र करते हुए ही देगों में मांस के स्थान पर मेवा, मिष्ठान, चावल आदि के पकाने की परम्परा है।
इस्लामी कलेंडर के शव्वाल माह की 5 तारीख को ख्वाजा साहेब के गुरु ख्वाजा उस्मान हारूनी, 14 रबी प्रथम को ख्वाजा साहेब के शिष्य ख्वाजा कुतुबुद्दीन, 19 रजब को ख्वाजा साहब की पुत्री बीबी हाफिज जमाल और 19 रजब को अजमेर के तारागढ़ के किले में सैय्यद मीर हुसैन खंगसवार अथवा मीरा साहब का उर्स मनाया जाता है। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि अन्य धर्मों में प्राय: जन्मोत्सव मनाने की परम्परा है जैसे रामनवमी जन्माष्टमी, बुद्घ जयन्ती, महावीर जयन्ती आदि किन्तु सूफी मत में उर्स अथवा पुण्य तिथि को अधिक महत्व दिया गया है।
– देवी सिंह नरूका
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