बात शुरू करने से पहले ही स्पष्ट कर देना उपयुक्त समझता हूँ कि न तो मैं सेक्यूलर हूँ और न ही संप्रदायवाद का हितैषी। आज भारत में जो सरकार कार्य कर रही है वह अपने आप को सेक्यूलर बताती है तथा समय कुसमय पर जोर शोर से सेक्यूलर होने तथा बने रहने की घोषणा भी करती है तथा जो उसके सेक्यूलरिज़्म से इत्तेफाक नहीं रखता है उसे सांप्रदायिक करार देने में एक क्षण भी नहीं लगाती।
किंतु हमें इस सेक्यूलरिज़्म को सही मायनों में समझने के लिए थोड़ा अतीत में जाना पड़ेगा। जब भारत का स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। अंग्रेज जब भारत छोड़ने को मजबूर हो गए तब उन्होंने जिस प्रकार से अन्य उपनिवेशों को ध्वस्त करते हुए उन्हें छोटे छोटे टुकड़ों में बांट दिया तब वे भारत को किस प्रकार अखण्ड रहने देते। अंग्रेजों की इस चाल में सबसे पहले आने वाले वे काले अंग्रेज जो भारत में अंग्रेजों के भारत से चले जाने के तो पक्षधर थे किंतु अंग्रेजी राज के पुरजोर हिमायती थे। आज जब इतिहास को उलट पलट कर देखते हैं तो देश यह पूछने को विवश हो जाता है कि यदि नेहरू के स्थान पर जिन्ना इस देश के प्रधानमंत्री हो गए होते तो क्या अनर्थ हो जाता? नेहरू के द्वारा किसी मुसलमान को देश का प्रधानमंत्री नहीं बनने देने और उसके लिए देश के दो टुकड़े मंजूर कर लेने को क्या कहा जाए सेक्यूलरिज़्म अथवा सांप्रदायिकता?
इस देश का जनमानस जितना शांत है उतना विश्व में किसी दूसरे देश में नहीं पाया जाता है चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। जहाँ तक आसाम के दंगों का प्रश्न है तो उसको भी पड़ौसी देश के कुछ हिंसा के पुजारियों द्वारा समर्थन एवं अफवाह फैलाने का कुकृत्य ही समझा जाना चाहिए। किंतु यहाँ सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जब 2002 में गुजरात में हिंसा फैली तो केवल एक दिन के पश्चात् ही वहाँ पर दंगों को पूर्णतया नियंत्रित कर लिया गया तथा प्रशासनिक स्तर पर ऐसे प्रयास किए गए कि आज दस वर्षों के पश्चात् भी गुजरात में एक भी दंगा नहीं हुआ और वह विकासपथ पर निरंतर अग्रसर है तथा वहाँ पर केन्द्र के शासन के मतानुसार ‘सांप्रदायिक’ शासन है। परंतु असम आज दो महीने से जल रहा है और उसकी आग दिनबदिन पूरे देश में फैलती जा रही है तथा वहाँ पर सेक्यूलर शासन है। यह महज संयोग की कहा जाएगा कि जब गुजरात में हिंसा हुई थी तब गुजरात एवं केन्द्र दोनों में ही भाजपा का शासन था और अब जब असम में हिंसा हुई तो राज्य एवं केन्द्र दोनों ही कांग्रेस द्वारा शासित हैं।
अब देश और दुनिया में यह स्थापित हो चुका है कि वर्तमान केन्द्र शासन किसी भी कौम की हिमायती नहीं है। वह तो केवल वोटों की राजनीति ही करना चाहती है। अब समय आ गया है कि प्रत्येक भारतवासी को अगले आम चुनाव में यह पुरजोर घोषणा करनी होगी कि हमें इस देश में सेक्यूलरिज़्म नहीं चाहिए बल्कि नेशनलिज़्म चाहिए और जो पार्टी अथवा दल नेशनलिज़्म की बात करेगा हम उसी को अपना कीमती वोट देंगे, परिणाम चाहे कुछ भी हो।
-स्वतन्त्र शर्मा
रिसर्च स्कॉलर
1 thought on “सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता”
Comments are closed.
हमें नकारात्मकता छोड़ कर सकारात्मक दिशा में अग्रसर होना ही होगा…….
हमें नेशनलिज्म को अपनाना होगा नाकि राजनीतिज्ञों के सेकुलरिस्म को जिस को वे अपने स्वार्थ हेतु अब तक प्रयोग करते आये हैं…..