संलेखना न्यायालय में विचार का विषय ही नहीं

n k jain 1यह धार्मिक अनुष्ठान, मान्यता और विश्वास का प्रतीक हैअभी हाल ही में राजस्थान उच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय के अन्तर्गत जैन समाज में धार्मिक अनुष्ठान की प्रचलित परम्परा संल्लेखना जिसे श्वेताम्बर समाज में संथारा कहा जाता है, को अनुचित मानते हुए इसे गैर कानूनी करार दिया है व इस पर प्रतिबन्ध लगाया है। इस प्रकरण में महत्वपूर्ण व मुख्य बात यह है कि क्या हमारी न्याय प्रणाली न्याय प्रक्रिया, हमारे आस्था और परम्परा पर किसी भी प्रकार का कोई विचार अथवा उसे बहस का विषय बना सकते हैं?
भारतीय संस्कृति में ऐसी अनेक गाथाएं, कथाएं और उदहारण मौजूद हैं जिन पर यदि न्यायालय में बहस हो, तो संभवतया उन्हें साक्ष्य के अभाव में कपोल-कल्पित या अन्य प्रकार से उसका परिहास बनाया जा सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज मनुष्य मात्र, चाहे वह भारतीय हो अथवा अन्य देश का, अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं और परम्पराओं के साथ ही अपना जीवन यापन कर रहा है और उन्हीं की मर्यादाओं में रहकर वह अपने को अनुशासित करते हुए मानव धर्म की पालना भी कर रहा है।
यह उसकी धार्मिक मान्यताएं ही हैं जो उसे सदजीवन, उच्च विचार, त्याग, बलिदान, तपस्या आदि की ओर प्रेरित करती हैं और ये सब उसे अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं से ही मिली हैं। इनमें किसी प्रकार का प्रश्न उत्पन्न करना घोर अनुचित ही नहीं ऐसा कृत्य भी माना जायेगा जिसके कारण हमारी यह बनी बनाई जीवन पद्धति में व्यवधान भी पैदा हो सकता हैं।
जिन क्रियाओं के कारण, बिना किसी दूसरे को दुरूख, तकलीफ या नुकसान पहुंचाए स्वयं की संतुष्टि और आत्म-साधना की ओर बढ़ा जाता है, तो उसमें किसी प्रकार का तर्क, कोई कानून अथवा अन्य मान्यता कारगर नहीं कहला सकती। यह अटूट सत्य है जिसपर कोई बहस संभव नहीं है। यदि उस पर कोई बहस की जाती है और उसके परिणाम में अपने आत्म उत्थान को कानून विरुद्ध अथवा अनैतिक मानने की भूल की जाती है तो यह निरी मूर्खता एवं दिमाग के दीवालियेपन के अलावा अन्य कुछ भी नहीं हैं।
हमारा निवेदन प्रत्येक विचारशील व्यक्ति से है चाहे वह राजनेता हो, धर्मगुरु हो, जिलाधीश, न्यायाधीश, साधारण मानव, मजदूर अथवा किसी भी कैटेगिरी का हो, यह विचार करे की जो क्रियाएं स्वयं के उद्धार, उत्थान के लिए हैं और जिससे दूसरे का अहित नहीं होता है वे क्रियाएं कभी भी अनुचित, गैरकानूनी शब्दों से संबोधित नहीं कि जा सकती हैं।
संल्लेखना, संथारा आदि वे क्रियाएं हैं जो स्वयं के उत्थान के लिए अपनी इंद्रियों को वष में करके बिना किसी को नुकसान पहुंचाने की भावना से की जाती हैं। ये विशुद्ध आत्मोत्थान के मार्ग में प्रवृत आध्यात्म उन्नति के निमित्त से की जाती हैं अतएव इन्हें गैरकानूनी कहना न तो उचित है और न ही धर्म के अनुकूल।
हमारा निवेदन है कि माननीय उच्च्तम न्यायालय राजस्थान उच्च न्यायालय के निर्णय पर स्वयं संज्ञान लेकर जैन व अन्य समाज के धर्मप्रमी बन्धुओं की भावना को आहत होने से बचाए और भारत की न्याय व्यवस्था की गौरवशाली परम्परा का उदाहरण पेश करे।
एन के जैन सीए, पत्रकार

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