” ले चल रे मन बचपन की ओर ”

उर्मिला फुलवरिया
उर्मिला फुलवरिया
सुरति के मोखों से मैंने झाँका
तेरे अस्तित्व को मैंने अमूल्य आँका
सोया बचपन चिरनिन्द्रा से फिर से जागा
अठखेलियाँ करते-करते तेरे पीछे भागा
विकल लोचन दृगअम्बु से स्निगध हो गये
अदभुत दृश्य से अवनी मुह्मामानी हो गई
एहसास हुआ अम्बा का अंक और परस हो जैसे
संपोषित,मृदुला सरस रव आ रहा सद्म से हो जैसे
उस आलय में गूँज रहा था स्वर भगिन का
सुरपुर सा स्वच्छन्द निर्मल माहौल बन गया सदन का
उस वापिका कुसुम का किसलय फिजा में था उत्कीर्णकारी
जग जननी सा स्वरूप था उसका अवतारी
वीथिका -वीथिका अटल करना,संग कलोले करना
रूठना और मनाना,पल में रोना और हँसना
निर्भ्रांत बचपन प्रगाढ़ प्रेम की थी वो नगरी
मिथ भगिन स्नेह की नहीं रीतेगी घघरी
धुँधला सा बचपन नयनों में वर्तमान बन छा गया
प्यार अपना नयनों में अश्क बनकर आ गया
प्रतिपल तेरी बैखरी कानों में कुछ कहती है
तु सखी बन हर पल मेरे संग दिल में रहती है ।।

उर्मिला फुलवारिया
पाली-मारवाड़ (राजस्थान)

मोखों-झरोखो, मुह्मामानी-मोहित हो गई, वापिका-नवल, वीथिका-गली
मदृला-धीमी, किसलय-कोंपल, उत्कीर्णकारी-क्रान्ति बिखेरने वाली, मिथ-परस्पर
निर्भ्रांत-निश्चित रूप से, चिरनिन्द्रा-गहरी निन्द, कलोले-खेलना, अंक-गोद
अटल-घूमना, घघरी-घड़ा, अश्क-आँसू, बैखरी-वाणी

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