रिष्तों के बिना मनुष्य जीवन का कोई मौल नहीं

photo not availableरिष्तों के बिना मनुष्य जीवन का कोई मौल नहीं है। रिष्तें नहीं तो मानव और पषु में कोई भेद नहीं रहता। मनुष्य जन्म लेता है और रिष्तें की डोर में बंधता है, जो मृत्यु के बाद भी नहीं छुटता और पूर्वज के नाम से अगली पीढ़ी से जुड़ जाता हैे। शायद यही कारण है कि रिष्ता राजस्थानी लोकसाहित्य और संस्कृति की भी सबसे बड़ी पहचान बन गए। अगर इनसे रिष्तों को अलग कर दे तो वही स्थिति हो जाएगी जैसे बागों से फूलों को अलग कर दिया हो।

लोककथाओं में रिष्तों की महक
राजस्थानी लोककथाओं में यहां की संस्कृति में रचे-बसे रिष्तों की सुहावनी महक भरी पड़ी है। बचपन में न जाने कितनी बार एक कथा सुनी कि एक भाई अपनी लाड़ली बहन के सुहाग की रक्षा के खातिर सात समंदर पार जाता है और मुर्दों को जीवित करने वाली एक चमत्कारी बुढ़िया के घर बारह महीने सेवा-चाकरी करके बुढ़िया को अपनी बहन के सुहाग की रक्षा करने के लिए राजी कर लेता है।
ये कथा कहानियाँ कितनी सच है और कितनी कल्पना येे तो उस वक्त भी नहीं जानते थे और आज भी नहीं जानते है, पर आज इतना जरूर समझ में आ गया कि ये लोकवार्ताएं ही है जो हमें अपनी परम्पराओं और रिति-रिवाजों से जोड़ कर रखती हैे। राजस्थानी लोकसाहित्य में केवल रिष्तों-नातों को वर्णन ही नहीं है बल्कि यहां रिष्तों की मर्यादा का भी बाखूबी चित्रण देखने मंे आता है, जो हमें सीख देता है कि किस तरह से रिष्तों में हमेषा मिठास भरी रह सकती है और वे कौनसे कारण है जिसकी वजह से रिष्ते-नाते अपनी मीठी महक गवां सकते है।
राजस्थान की एक कहावत है-‘जवांई माथा रो मोड़ व्हे।‘
जवांई यानी कि दामाद लोगांे को अपनी पेट जाई औलाद से भी अधिक प्रिय लगता है। इतना आदर-मान लाड़-प्यार और किसी रिष्तें में देखने में नहीं मिलता। पर इस मान की भी एक मर्यादा होती है, जिसका सुंदर सा उदाहरण इस लोककथा में नजर आता है।
राजस्थान की रजवाड़ी परम्परा है कि दामाद के भोजन की थाली में कम से कम पाँच कटोरियां होनी ही चाहिए। एक दामाद ससुराल में आवभगत से ऐसा खुष हुआ कि वहीं डेरा डाल की बैठ गया। कथा में बताया जाता है कि धीरे-धीरे मान भी घटता गया और भोजन की थाली से कटोरियां भी, पर वो इस बात को नहीं समझ पाता है। एक दिन गुस्से में सासूजी थाली में जवार की रोटी के साथ गरम-गरम बेसन का लपटा (प्याज और बेसन को मिला कर बनाई जाने वाली एक खास किस्म की सब्जी) परोस देती है, जिसमें रोटी का कौर घूमाते हुए दामाद व्यंग्य कसता है-‘ठण्डो व्है नीं रै म्हारा सासूजी रा लपटा।‘
अर्थात- मेरे सासूजी के बनाएं लपटे ठंडा हो जा।
तो इसके जवाब में चूल्हे में चिमटा ठपठपातें सासूजी के मुंह से मजाक में निकल जाता है-‘एक म्हीनो और आठ दिन व्हैग्या, अबे तो जा नीं रे नकटा‘।
अर्थात- एक महीना और आठ दिन हो गए, अब चला जा बेषरम।
ऐसी ढेरों वार्ताएं है जो सीख देने के साथ ही हँसाती भी है, गुदगुदाती भी है और कभी-कभी तो रूला भी देती है। राजस्थानी लोकसाहित्य के खजाने में रिष्तों-नातों को जो भंडार भरा है इनकी खट्टी-मीठी महक इतनी मनलुभावनी है कि सुनने-पढ़ने वाला आसानी से छोड़ कर उठ ही नहीं सके।
लोकगीतों में रिष्तों की मीठी महक
राजस्थानी साहित्य में लोकगीतों का भी भंडार है, जिनमें ब्याव के गीत, नृत्य के गीत, त्योहारों के गीत, देवी-देवताओं के गीत, सांस्कृतिक गीत और भी जाने-अनाजाने कई तरह के गीत है। जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्न है-
मूमल- यह एक ऐतिहासिक प्रेमख्यान गीत है, जिसमें मूमल के नखषिख का वर्णन है। इसको श्रृंगारिक की उपमा भी दी गई है, बोल है-‘म्हारे बरसाले री मूमल, हालेनी ऐ आलिजे रे देस।
ओळ्यूं-इसे बेटी की विदाई के बाद उसकी याद में गाया जाता हैे, बोल है-‘कुंवर बाई री ओळ्यूं आवें ओ राज‘।
चिरमी- इसे बेटी पीहर की याद में गाती है।
ढोलामारू- इसमें ढोलामारू की प्रेमकथा का वर्णन है।
पणिहारी- इसमें राजस्थानी नारी के पतिव्रत धर्म का बखान है।
कुरजां, पपैयो, सुवटिया, कागो, मोरियों, सुपणा, पीपळी, हिचकी और झोरावा आदि प्रेम, विरह और मिलन की तड़प का बखाण करतें गीत है। इन सबके अलावा रिष्तों में खूषबु बिखेरते गीत है, मायरा, दुपट्टा, गाळ, कामण, पावणा, जल्लो-जल्ला और बन्ना-बन्नी आदि। बन्ना-बन्नी का एक गीत है। बन्ना-बन्नी शादी के बाद पहली बार मिलत हैं और उस प्रथम मिलन वेला पर बन्नी पूछती है-
“कुणी आपने जाया, कुणी हुलराया।
कुणीसा री गोद्या खेल्या म्हारा राइवर।।“
अर्थात- किसने आपको जन्म दिया, किसने आपके लाड़-कोड़ किए और किसकी गोद में आप खेले मेरे प्रियतम।
तो बन्ना का जवाब होता हैे-
“मासा म्हाने जाया, दादीसा म्हाने हुलराया।
भुवाजिसा री गोद्या खेल्या म्हारा बनीसा।।
अर्थात- मां ने मुझे जन्म दिया, दादी ने मुझे प्यार किया और बुआ की गोद में खेला।
बन्नी के प्रष्न का जो सुंदर सा जवाब आज की एकल परिवार की परम्परा से एकदम उलट अपनी संस्कृति, परिवार का आपसी प्रेम और भाईचारे को दर्षाता है। इसी गीत में आगे जन्म से लेकर शादी तक के कई प्रष्न बन्नी बन्ना से पूछती कि किसने भोजन कराया, किसने श्रृंगार कराया, किसके साथ खेले, पढने गए, किसने सगाई करावाई, दुल्हा बणाया, बरात चढ़ाई, किसके दरवाजे तोरण मारा आदि। जन्म देने वाले माता-पिता से लेकर काका बाबा, मामा फूफा, सास ससुर साला साली सभी रिष्तों की भूमिका को सुंदर चित्रण इस गीत में है जो इस बात का संदेष देता कि एक बाळक केवल माँ-बाप की ही नहीं सारे परिवार की जिम्मेदारी होता है।
इसके अलावा एक गीत और है-
‘म्हारी देराणियाँ जेठाणियाँ रूसगी सा
म्हारा सासुजी मनावा ने जाय‘।
अर्थात- मेरी देवरानी-जेठानी रूठ गई है और मेरी सासुजी मनाने के लिए जा रही है।
देखने-सुनने में तो ये ही आता है कि रूठने और गुस्सा का हक सासुजी का होता है और मनाने का विभाग बहुओं के जिम्मे पर यहां तो बहुएं रूठी है और सासु मनाने जा रही है, सास बहू के रिष्तें को मजबुत करने के लिए आपस में गहरी समझ पैदा करने की ज़रूरत होती है, एक दूसरे को समझने की ज़रूरत होती है, इसके अभाव में ही सास बहू के रिष्तें गलतफहमियां पैदा होती है। यह गीत सास बहू के रिष्तें के प्रेम को दर्षाता है।
दाम्पत्य की अगाढ़ प्रीत को दिखाता गीत है-
‘थाने काजळियो बणालूं, थाने नैणा में रमालूं राज
पलका में बंद कर राखूंली।
अर्थात- तुम्हें काजल बना कर आंखों में बसा लूं और पलकों में बंद कर रखुंगी। यह इतना सुंदर लोकगीत है कि इसका एक एक बोल मानो हृदय में लहरों की भांति हिलारे लेता हो। प्रीत की रीत निराली होती है, आँख में पलक का बाल गीर जाऐ तो सहन नहीं होता है पर यह प्रेम है जो लोककवि से लिखवाता है कि-
‘गोरी पलका में नींद कैयां आवेली
सैंया पलका पालणिया झुलावेली।
अर्थात- नायक पुछता है कि गौरी पलकों में नींद कैसे आएगी तो नायिका कहती है कि सैंया पलकें पालना झुलाएगी।
पति-पत्नी हो कि भाई-बहन, सास-बहू हो कि देवरानी-जेठानी, ननद-भोजाई हो या देवर-भाभी, कौईसा भी रिष्ता उठाकर देखलो राजस्थानी लोकसाहित्य में इनकी मीठी महक के दर्षन हो ही जाते हैं।
पिलंगन ताजन सुती ओ राज
ऊठी छी वीर मिलन
न टूट्यो बाईरो हार ओ राज
हार तो फेर पुओसा
वीरा सूं कद मिलस्या राज
चुग देगी सोनचिड़ी ओ
पो देगो बणजारो राज।
भाई के आने की खबर जब बहन को मिलती है तो वो पलंग पर सो रही होती है, जब वो उतावलेपन में उठती है तो उसका हार टूट जाता। सास ननद हार टुटने का उलाहना देती है तो वो जवाब देती कि हार तो वापस पिरोया जा सकता है पर अगर वीर बिना मिले चला गया तो जाने फिर कब मिलना होगा। इसके अलावा ननद-भावज देवर भौजाई के मधूर रिष्तों के भी दर्षन भी कई गीतों में होते है।
पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढते आए लोकसाहित्य में रिष्तों-नातों के इतने रंग ंभरे है कि अगर अलग करने का प्रयत्न करो तो यूं लगेगा मानो इंदरधनुष से रंगों को अलग कर रहे हो। रिष्तें-नातें तो अपरम्पार है और अपरम्पार है इनकी बातें। लोकसाहित्य के समुंद्र में रिष्तों-नातों के इतने माणक मोती छिपे पड़े है कि जितनी गहरी डूबकी लगाएंगे उतनी ही मुठ्ठी भरेगी। यह राजस्थानी लोकसाहित्य है जो राजस्थानी संस्कृति की कोख से जन्म लेता है और ये वो राजस्थान है जंहा स्वामीभक्ति का इतिहास रचता चेतक जैसा घोड़ा भी रिष्ते की सुगंध बिखेरते नज़र आता है।
साहित्य कैसा भी हो चाहे गद्य या पद्य, बिना रिष्तों के प्रभाव पडे़ उसकी कल्पना कोरी ही होती है। क्योंकि साहित्यकार भी इसी समाज का हिस्सा होते हैं, समाज में रहते हुए उन्हें भांति-भांति के अनुभव होते हैं और वो ही अनुभव कल्पना के घोड़ो पर सवार होकर साहित्य बनते हैं। इस तरह से साहित्य की हर विधा में कहीं न कहीं रिष्तों की झलक मिल ही जाती है। ये अलग बात है कि बदलते समय के समाज की स्थितियाँ और रिष्तों के रूप में बदलाव आता रहता है और इसका प्रभाव साहित्य पर भी पड़ता हैपर फिर भी इसकी मीठी महक कभी छिप नहीं सकती। इसी लिए तो कहा गया है-
‘मोहबत की जब हवा चली
दिल से मिल गए दिल
मीठे होकर देखो,
फिर महक गए रिष्ते।

(Anushree Rathore)

(Rajesh kumar shukla)

error: Content is protected !!