‘मोहेंजो दारो’ न बहुत अच्छी फ़िल्म है, न बहुत बुरी

ओम थानवी
ओम थानवी
‘मोहेंजो दारो’ (जैसा कि फ़िल्म का नाम है) न बहुत अच्छी फ़िल्म है, न बहुत बुरी। दिमाग़ घर छोड़ जाएँ तो बग़ैर सरदर्द घर लौट आएँगे।
मेरी मुश्किल यह रही कि दिमाग़ साथ था। वह सजग भी था क्योंकि मैंने सिंधु सभ्यता पर पचास किताबें पढ़ी हैं (तीस घर पर रखी हैं, जिनमें एक मेरी अपनी लिखी हुई है)।
फ़िल्म की सबसे बड़ी – बल्कि भयानक – ख़ामी यह है कि वह हमारी महान सभ्यता की ग़लत या भ्रामक ही नहीं, नितांत उलटी छवि पेश करती है। सिंधु सभ्यता के बारे में कमोबेश सभी विशेषज्ञ अध्येता मानते आए हैं कि वह शांतिपरक सभ्यता थी। खुदाई में अकेले मुअन/मोहनजोदड़ो से जो पचास हज़ार चीज़ें प्राप्त हुईं, उनमें एक भी हथियार नहीं है।
फ़िल्म में घनघोर हिंसा है, हत्याएँ हैं, बाँसों पर टँगी लाशें हैं, राजपाट के षड्यंत्र है, तलवारों की तस्करी है, तलवारों का इस्तेमाल भी है। और तो और संसार की तीन प्राचीन सभ्यताओं में सबसे उदात्त सिंधु/हड़प्पा सभ्यता में परदे पर नरभक्षी भी हैं। मैंने मुअनजोदड़ो में वहाँ का संग्रहालय भी देखा है। फ़िल्म में उन चीज़ों (सामान, वाद्य आदि) की छाया कहीं दिखाई न दी।
सिंधु सभ्यता को जो बात बाक़ी दो महान सभ्यताओं (मिस्र और मेसोपोटामिया/इराक़) से अलग करती है, वह है यहाँ (सभ्यता के मुअनजोदड़ो या हड़प्पा आदि बड़े केंद्रों में) बड़ी इमारतों, महलों, क़िलों, उपासना स्थलों, भव्य प्रतिमाओं आदि के प्रमाण या संकेत न मिलना। इसके बावजूद इन सब चीज़ों में भव्यता दिखाते हुए फ़िल्म हास्यास्पद रूप से हमें एक विराट बाँध का खड़ा होना भी दिखा जाती है – बाँध जो भाखड़ा बाँध से लम्बा है! उसी बाँध के कारण शहर तबाह हो जाता है (खुदा जाने फिर बाक़ी सभ्यता कैसे लुप्त हुई?)
अध्येता बताते हैं कि सिंधु सभ्यता में आकार की भव्यता भले न हो, कला वहाँ महान थी। यहाँ वह भी ग़ायब है। लोग खेतिहर थे। फ़िल्म में नहीं हैं। मुअनजोदड़ो की ख़ास पहचान ईंटों वाले कुएँ (कुछ अब भी मौजूद हैं) और नाला-निकासी (ड्रेनेज) की नहरें मानी जाती हैं। उनकी झलक लाई जा सकती थी।
‘मोहेंजो-दारो’ बनाने वाले पाकिस्तान गए होते तो उस शहर के खंडहर और इलाक़ा देख मुअनजोदड़ो शहर में, और उसके गिर्द, पहाड़ियाँ न दिखाते। उन्हें यह भी पता चल जाता कि मुअनजोदड़ो के नगर नियोजन की एक विशेषता यह भी थी कि कोई घर मुख्य सड़क पर नहीं खुलता था (इस प्रारूप को पाँच हज़ार साल बाद बाद चंडीगढ़ में ली कारबूज़िये ने अपनाया!)
अब सबसे विचित्र चीज़: शोधकर्ताओं ने माना है कि सिंधु सभ्यता में घोड़ा नहीं था, उसे आगे जाकर वैदिक सभ्यता में ही पालतू बनाया जा सका। इसका प्रमाण खुदाई में मिली हज़ारों चीज़ों में शेर, हाथी, गैंडा आदि अनेक पशुओं की आकृतियों के बीच कहीं भी घोड़े की छवि न होना समझा जाता है। पर फ़िल्म एक नहीं, अनेक घोड़े हैं। नायक की बहादुरी नापने के लिए उनकी ज़रूरत थी। उन्हें विदेशी व्यापारियों से जोड़ दिया गया है।
घोड़े, पुजारी, कर्म-भेद, वेश-भूषा, अनुष्ठान आदि सिंधु/हड़प्पा सभ्यता को किसी और सभ्यता (वैदिक संस्कृति?) में रोपने की कोशिश का संदेह खड़ा करती हैं।
और हाँ, यह बताना तो भूल ही गया कि तलवारों से जूझने के लिए निर्देशक ने फ़िल्म के नायक के हाथों में एक ‘त्रिशूल’ भी थमा दिया है। और अंत में ‘गंगा’ मैया भी आ अवतरित होती हैं।
कहा जा सकता है कि फ़िल्म अगर ऐतिहासिक नहीं है और न किसी प्रामणिकता का दावा करती है तो हम क्यों उस पर अपना दिमाग़ खपाएँ? मगर क्या फ़िल्मकार इतने भर से बच सकते हैं? ख़ासकर तब जब बग़ैर दावे के वे फ़िल्म के ज़रिए हमें सिंधु सभ्यता में ले जाने का स्पष्ट उपक्रम करते हैं – आमरी, हड़प्पा, मुअनजोदड़ो, धौलावीरा, सिंधु नदी, सुमेर (मेसोपोटामिया), एकसिंघा, लकड़ी के पहियों वाली बैलगाड़ी, मुहरों आदि के भरपूर हवाले और नाम देते हुए।
मुझे लगता है कि फ़िल्मकार पूरी छूट लेते हुए कहानी को अपनी कल्पना से ज़रूर कहते-दरसाते, पर जब इतिहास का इतना सघन सहारा ले ही लिया तो उसके साथ न्याय न सही, खिलवाड़ तो न करते?

1 thought on “‘मोहेंजो दारो’ न बहुत अच्छी फ़िल्म है, न बहुत बुरी”

  1. Hello sir i like your artical…please share more information about Harrappa Sabhyat…and books name about this subject.. Thanks

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