आजादी की वर्षगाँठ

Ras Bihari Gaur (Coordinator)स्वतंत्रता की 70 वीं वर्षगांठ पर उत्सव के पलों के बीच कुछ अप्रिय सवाल ऐसे झाँक रहे है जैसे किसी मेले को अबोध बच्चे अपनी खिड़कियों से निहार रहे हो। उत्सवधर्मिता की दलीलों में लालकिला से आम जन की जुबान नहीं, सामन्ती अंहकार के स्वर सुनाई दे रहे हैं। अंतर बस इतना है कि इन राजाओं को हमने चुना है। यह नजारा इतना व्यापक है कि संसदीय संस्थानों ईसे लेकर प्राथमिक विधालय की चौपाल तक तिरंगा फहराने वाले हाथ किसी ना किसी पूँजी जनित राजा के ही हैं।आम हथेलियाँ या तो तालियां बजा रही हैं या फिर सावधान खड़े होकर राष्ट्रीय गान गा रही है।
प्रसंगवश, कल अजमेर में मुख्यमंत्री के एट होम कार्यक्रम अर्थातकि स्थानीय महत्व के वी.आई.पी. चोलों के साथ लोकतान्त्रिक शासकों की चाय पार्टी थी। जिसमे संयोग या दुर्योग से मुझे भी उस श्रेणी में गिना गया। अपने खोखलेपन के साथ मैं भी वहीँ अहंकार ओढ़ कर गया था जो उस स्थान की आधिकारिक मांग थी। मुझ सहित सभी को सिंहासन के सामने कालीन बनकर बिछना था, शासक के तेज को निहारना था, हेय दृष्टि में कृपा टटोलते हुए अपने आप को सौभाग्यशाली समझना था। कुल मिलाकर अपनी लघुता और सामंती विराटता के साथ मुझे स्वतंत्रता समारोह का साकार किन्तु काल्पनिक अंग बनना था।
सम्भवतः सत्तर वर्षों में यही सच गढ़ा है हमने भारत की आजादी का। पूंजी व पावर की ताकत के नए साम्राज्य चारो और खड़े हो गए हैं, जहाँ अपने से लघु को लघुतर अहसास परोसा जा रहा है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कौनसा राजनैतिक दल है या कोई समूह।
आजादी के उत्सव का अर्थ संभवतः आजाद पलों में जीना हैं। जहाँ आप अपने आप में पूर्णता के साथ खड़े हो । ना किसी के आका, ना किसी के दास। स्वतंत्र विचरण ,खुले विचार, समग्र जीवन से बने स्वतंत्रता के अर्थ जब निजी अहंकार, अस्वीकृत असहमति ,संगठित शोषण में बदल जाते हैं तब समाज अंतहीन दासत्व के पर्व को भी आजादी का जश्न मानकर आनंदित होता है।
प्रगति, विकास, ऊर्जा जैसे नारो से बना उत्सव “हैप्पी इंडिपेंडेंस” का फैशन बनकर भले ही सॉइल मिडिया या किन्हीं प्रयोजित जलसों में दिख जाए, परन्तु घर, आँगन, गली, चौबारों, में बेपरवाह झूमते बच्चों के हाथों से तिरंगा जरूर छीन लेता है। अभी दो दशक पहले के ये दृश्य आज भी आँखों में कैद हैं जब तिरंगा किसी राजनैतिक आग्रह का प्रतीक नहीं था ।
सत्तर वर्ष के इस पड़ाव पर हमे आजादी को पुनर्परिभाषित करना पड़ेगा। अपने मानसिक दासत्व से मुक्ति पाते हुए नैतिक मूल्यों के समाज को संजीवनी देनी होगी।
फ़िलहाल स्वतंत्रता दिवस की शुभकानाएं के साथ अपना मन बाँटते हुए……

रास बिहारी गौड़
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