फिर भी मैडल की आस क्यों

ओम माथुर
ओम माथुर
अजीब देश है हमारा। यहां खिलाड़ी तैयार करने पर सरकार पैसे खर्च नहीं करती। लेकिन मैडल जीतने वाले खिलाडियों को करोड़ों का इनाम दे देती हैं। जहां खेल सँघ खिलाड़ी नहीं, ऐसे लोग चलाते हैं जिनका खेलों से कोई वास्ता नहीं होता। जहां विदशोँ मे खेल आयोजनोँ मे खिलाडियों से ज्यादा अधिकारी जाते हैं। जहां उस किक्रेट के अलावा किसी खेल की कद्र नहीं हैं, जिसे पूरी दुनिया मे एक दर्जन देश भी नहीं खेलते। फिर भी हम ओलंपिक सहित बडे खेल मेलोँ मे मैडलोँ की उम्मीद करते हैं? जिस देश की अधिकाँश स्कूलोँ मे खेल मैदान नहीं है। पाठ्यक्रम मे खेलोँ का कोई स्थान नहीं है। बच्चों को खेलोँ मे भाग लेने के लिए प्रेरित नहीं किया जाता। हम मे से कितने अभिभावक अपने बच्चों को खेलने देते है। स्कूल से आते ही ट्यूशन पर भेजने की चिन्ता सताती है। पढोगे लिखोगे बनोगे नवाब,खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब आज भी हमारे जहन मे हावी है। फिर भी हम मैडल की उम्मीद करते हैं? अभी और पहले भी ओलंपिक मे जो खिलाड़ी मैडल जीतकर लाए हैं, वह उनकी अपनी मेहनत का नतीजा है। सरकारी स्तर पर उन्हें विशेष मदद तैयारी के लिए नहीं मिलती। खेलोँ को लेकर सरकार अगर वाकई गँभीर है तो उसे 2020 के आगामी लँदन ही नही, बल्कि अगले चार ओलंपिक के लिए नीति बना कर तैयारी शुरू करनी चाहिए और इसमें पूर्व खिलाडियों को जोडा जाना चाहिए ना कि राजनेताओं और अधिकारियों को। खेलोँ के लिए बजट बढाना और खिलाडियों को सुरक्षित भविष्य देना भी जरूरी है।

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