क्षमा वाणी हिंदी की जुबानी

रास बिहारी गौड़
रास बिहारी गौड़
जी, हाँ! मैं हिंदी की कविता हूँ। क्षमा- वाणी पर्व पर अपने अपराधों, पापों के लिए क्षमा मांगती हूँ। कविता और अपराध ! ये युग्म विचलित करता है। इसका साकार रूप पीढ़ियों को गूंगा कर सकता है किन्तु स्वम दर्पण होने के दर्प को दर्पण दिखाने के लिए क्षमा मेरी जरुरत है।
मैं संस्कृत के संस्कारों को लेकर जन्मी। प्राकृत, खड़ी बोली से प्राण- तत्व ग्रहण किये। अवधि, बृज, मैथली सरीखी आंचलिक भाषाओं की अंगुली थामे अरबी, फ़ारसी, उर्दू के आँगन में खेलते कूदते पली बढ़ी। आमिर खुसरो से लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र मेरा साज श्रृंगार करते रहे। निराला, बच्चन, महादेवी, अज्ञेय, सहित अनेको बेटों ने मेरा मान बढ़ाया। मुझे कभी कोई क्षमा मांगने की जरुरत नहीं पड़ी। पर अब…?? जब..! !
मुझे पठन-पाठन ,वाचिक, जैसे खाँचो में बांटा गया । पुस्तकों और मंचों का मनमाना वर्गीकरण किया गया। पुरुस्कारों को छद्म- प्रभाव का ग्रहण लगा। मंचो पर मनचले मेरे नियंता बन गए। सत्ता-पदों पर पद गढ़ते-गढ़ते उनके पदों में बिछी रही, तो कभी नुमाईश में सजी नगरबधु सी रसिक लम्पटों के बीच रात- रात भर अपनी लुटती अस्मिता पर आँसू बहाती रही। राजनीती, समाज, धर्म, पूंजी के सारे शिखर मुझे अपने कोठे की लौंडियाँ समझ कर अपने इशारों पर नचाते रहे। इधर जो लोग मेरी गरिमा को लेकर बैचेन थे उन्हें शब्द-संसार से देश निकाला दे दिया या फिर उनकी कलम छीनकर मुकुटों का मोरपंख बना लिया।
आज जबकि, समय की वैश्विक आंधी में सदियों पुराने भाषाई दरख्त रोज ढह रहे हैं। संवाद और संवेदना के लिए कोई अवकाश नहीं है। बावजूद इस सबके मेरे वाहक सतत मुझे अपराध के अंधे कुएं में धकेल रहे हैं। धन-कुबेरों के इशारों पर मेरी नृत्य-मुद्राओं से सिक्के बटोर रहे है। सत्ता के स्वार्थी प्रलोभनों में परजीवी सपने देख रहे हैं। सम्मोहित भीड़ में खोखले उन्माद से विध्वंसी अश्वमेघ रच रहे है या फिर कागज़ पर बिखरी स्व- निजता के शून्य में ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ के मन्त्र की गीता लिख रहे हैं। कुल मिलाकर शब्दों से खेलने वाले मेरी सुचिता से खेल रहे हैं।
मेरे पास उनके अपराधों के लिए क्षमा मांगने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है। जबकि जानती हूँ कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इस पीड़ा को लिखने वाली कलम खुद बाजार के कहने पर मुझे कभी भीड़ में तो कभी नीड में नीलाम करती रहती है। फिर भी एक उम्मीद है कि जिस दिन मेरी पीड़ा को पुरातन भाषा और नई जुबान मिल जायेगी ,वह पुनः वैसे ही खिल -खिल जी उठेगी। पाठक या श्रोता की स्वतः -समझ मेरा मान लौटाएगी। मेरा मुकुट लगाकर शब्दों के सिंहासन पर बैठे स्वम्भू सम्राटों को उनकी जगह दिलवाएगी।शायद वही मेरा क्षमा दान होगा।
पुनश्चय नए उजालों की तलाश में…….
आपकी हिंदी कविता

रास बिहारी गौड़
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