क्या अभिव्यक्ति केवल दिल्ली की होती है?

tribhuvanमैं किसी भी तरह की अभिव्यक्ति की आज़ादी के हनन की निंदा करता हूं और यह मानकर चलता हूं कि ऐसे निंदनीय काम करने वाले इंदिरा गांधी के नक्शे-पा पर ही चल रहे हैं। और ये लोग उसी गति और गंतव्य को प्राप्त होंगे, जिस परिणति को 1975 के बाद 1977 के आम चुनाव में हमारी साहसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी वह राष्ट्ररक्षक सरकार प्राप्त हुई थी, जिसे दुनिया की सबसे ताकतवर सरकार माना जाता था। आप इस समय ज़रा उस वामपंथी बंगाल को भी याद कर लें, जहां सबसे पहले सलमान रुश्दी के उपन्यास “सैटानिक वर्सेज” पर रोक लगाई गई थी और उस वामपंथ का ऐसा तिरोहन हुआ कि आज वह अपने अस्तित्व के लिए दुनिया भर में छटपटा रहा है।
क्षणभंगुर विचारधाराएं, जितनी भी हुआ करती हैं और जैसी भी होती हैं, वे सत्ता प्राप्त करती हैं तो अपने विचारों का प्रतिकार और प्रतिरोध बर्दाश्त नहीं कर पातीं। जैसे किसी की नई कार पर कोई डेंट लगा दे, ठीक वैसे ही इन लोगों को लगता है कि उनके विचार, उनकी किसी गतिविधि या उनके किसी अपसांस्कृतिक, अमानवीय, असमकालीन और अवांछित कर्म पर टिप्पणी, उसकी कवरेज, उसका दिखाया जाना या लोगों को रौशन करना, बहुत बुरा और असहनीय लगता है। कोई टीवी चैनल स्वयं ग़लती कर सकता है, वह ग़लती सभी कानूनों से परे मानी जा सकती है, लेकिन वह चैनल यह मानकर चलता है कि जब उसके लिए सुखद परिस्थितियों वाली कोई सरकार आएगी तो वे जरा अलग अंदाज की रिपाेर्टिंग और अलग तरह से अलग तेवर से काम करेंगे।
क्या यह हैरानीजनक नहीं है कि एक टीवी चैनल जो अपने आपको बरबस और सहज ही निरपेक्ष मानकर चलता है, उस चैनल में काम करने वाले ज्यादातर लोगों के जीवन साथी एक ही दल के प्रमुख महिला या पुरुष नेता होंगे? शादी करना एक व्यक्तिगत सवाल है और इसकी स्वतंत्रता हर किसी को होनी चाहिए, लेकिन एक तटस्थ और निर्भीक खबर देने वाले चैनल के प्रबंधन को यह अधिकार अपने किसी कर्मचारी को कभी नहीं देना चाहिए कि वह किसी सत्तारूढ़ दल के नेता के साथ रिश्तेदारी करे। क्या आप अपने किसी रिश्तेदार या दोस्त के खिलाफ कभी लिख सकते हैं? अगर आपकी मित्रताएं सहज होने लगती हैं और वे एक प्रोफेशनलिज्म की मर्यादाओं को तोड़ती हैं तो जाहिर है, आप पत्रकारिता के मानदंडों से समझौता कर रहे हैं।
दिल्ली का माइंडसेट मुझ ग्रामीण पत्रकार के माइंडसेट से कहीं अधिक ब्रॉडर और वाइब्रेंट होता है, लेकिन तीस साल पत्रकारिता करने के बाद मेरी यह दृढ़ मान्यता है कि हम किसी से छोटा सा गिफ्ट भी ले लेते हैं तो उसके खिलाफ़ लिखते समय आत्मा मना करती है। मैं यह भी जानता हूं कि हम लोग अपनी तरह की मर्यादाएं अपने लिए कायम करते हैं, लेकिन यह सच है कि अगर मेरी पत्नी किसी पार्टी की नेता है या कोई महिला किसी मीडिया चैनल में किसी प्रभावी पद पर है तो वह अपने पति की पार्टी या उसके खिलाफ़ ऐसा कुछ नहीं कर सकती, जैसी पाठक, रीडर या व्यूअर को उम्मीद हुआ करती है। हालांकि ऐसे गिनेचुने अनुपम उदाहरण भी हो सकते हैं, जो बहुत मर्यादित होते हैं, लेकिन सच में हम सब जानते हैं, आज हमारे चारों तरफ ऐसा कुछ नहीं है।
और मुझे दिल्ली की एक चीज़ तो आज तक कभी समझ ही नहीं आई। एनडीटीवी के ख़िलाफ़ फ़ैसला होता है तो जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तिरोहत हो जाती है। किसी और चैनल या अख़बार को लेकर कोई कार्रवाई होती है देश भर में चीखोपुकार मचती है। इस देश में छोटे-छाेटे गांवों, कस्बों और शहरों में आए दिन पत्रकारों की आवाज़ें घाेंट दी जाती हैं। चाहो तब उनका सम्मान धूल धूसरित कर दिया जाता है। जेल भेजते देर नहीं लगाई जाती। लेकिन दिल्ली का कोई चैनल ऐसा हाहाकर कभी सुबकी जैसा भी नहीं लगता। दिल्ली नगर निगम में कोई गड़बड़ हो तो वह नेशनल न्यूज होती है, लेकिन मेरे प्रदेश का कोई बहुत बड़ा स्कैंडल भी जगह नहीं बना पाता। क्यों भाई?
आप कस्बों, गांवों और छोटे शहरों के जुझारुओं का हौसला देखिए, वे अपनी कथित ख़राब छवि के साथ लड़ते रहते हैं। ठीक ऐसा ही राजनीतिक कार्यकर्ताओं के भी साथ भी होता है। वे गुंडा एक्ट में पाबंद कर दिए जाते हैं। झूठे मुकदमे कर दिए जाते हैं। और आप हाल देखिए, एनडीटीवी या बाकी नेशनल चैनल जब चुनाव की रिपोर्टिंग करते हैं तो साफ़ कहते हैं कि इस बार इतने आपराधिक चेहरे चुनाव मैदान में हैं। दिल्ली का एक अदना सा आरटीआई कार्यकर्ता, जो कल तक राजस्थान के आदिवासी इलाकों के ग्रामीणों में जूझने वाले लोगों की साहसी आवाज़ बनने वाली अरुणा रॉय की नकल करके मैगसायसाय अवार्ड लेता है और कुछ चैनलों की मदद से दिल्ली के लेागों को बेवकूफ बनाकर सरकार बना लेता है, उसका बयान तो हर दिन टीवी चैनल पर जगह पाता है, लेकिन अरुणा राय के आंदोलन के सिर में पड़ी लाठी भी उस चैनल की खबर नहीं बनती। क्यों रवीशकुमार? क्यों बरखादत्त? क्यों प्रणय रॉय? क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटना नहीं है? अगर एक संघर्ष को आप आवाज़ नहीं दे सकते या आवाज़ देने में विफल रहते हैं तो फिर आपको क्या अधिकार है कि आप एक पिन चुभने पर कसमसाएं?
दिल्ली के बिग-बिग मीडियापर्सन को राजस्थान, पंजाब या किसी दूसरे राज्य में लोकल रिपोर्टिंग करने वाला पत्रकार बहुत बौना लगता है। उन्हें प्रदेशों से निकलने वाले अख़बार भी वर्नाकुलर और लोकल मीडिया लगता है। हम देखते हैं कि आए दिन बहुत सी तरह की दिक्कतें, प्रदेश-जिला और अन्य स्तरों पर मीडिया के लोगों को आती रहती हैं, लेकिन सब लोग उन्हें प्रोफेशनली हैंडल करते हैं। उस समय न कहीं से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बरखा होती है, न कहीं से कोई रवीश प्रकट होता है। ज़मीन के लड़ाके गुंडे और आपराधिक तत्व घोषित कर दिए जाते हैं। उनके साथ कोई खड़ा नहीं होता।
बड़े चैनल, बड़े नेता और बड़े लोग सब सम्मोहित चालाकियों से इज्जतदार बने रहते हैं। दिल्ली में हुआ बलात्कार बलात्कार होता है और इस देश के बाकी हिस्सों में हर रोज बेटियों पर होने वाले ज़ुल्म किसी गणना में ही नहीं आते! अभिव्यक्ति सिर्फ़ दिल्ली की होती है, इस देश के और किसी गांव या शहर को अभिव्यक्ति का जैसे कोई अधिकार ही नहीं। दिल्ली की एक आईपीएस किरण बेदी हो जाती है और राजस्थान, मध्यप्रदेश या केरल की कोई जांबाज आईपीएस ऑफिसर अपना सर्वस्व दांव पर लगाकर भी अपना नाम नहीं बना पाती। सुदूर इलाकों में काम करने वाले काबिल और ईमानदार आईएएस हाशिए की पोस्टिंग पाते हैं और दिल्ली के जुगाड़ू इंटरनेशनल कान्फ्रेंस में कॉलर ऊंची रखकर बेस्ट सेलर राइटर्स का तमगा पाते हैं।
कुल मिलाकर, एनडीटीवी के खि़लाफ़ सरकार की इस कार्रवाई का इस रूप में स्वागत होना चाहिए कि सत्ताधीश अगर इस तरह खुलकर अपने आपको निरावरण नहीं करेंगे तो वे अधिक देर तक अपने आपको स्थापित रख पाएंगे। अब उन्होंने स्वयं अपने जहाज में छेद करने शुरू किए हैं। आप अगर अपनी सजगता, चेतना और जुझारूपन से किसी को रोक नहीं सकते तो कम से कम वे जब अपने जहाजों के पैंदों में स्वयमेव अपनी दुर्लभ बेवकूफ़ियों के बरमे चलाने लगें तो उनका स्वागत न करना भी उतनी ही दुर्लभ बेवकूफ़ी होगी!

वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन जी की फेसबुक वाल से साभार

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