हिंदी हो गयी हिन्दा, अपने देश में शर्मिंदा..

अमित टंडन
अमित टंडन
अमित टंडन, अजमेर
कौन कहेगा कि हम हिंदी भाषी राष्ट्र के बाशिंदे हैं.. सिर्फ सरकारी दफ्तरों के नोटिस बोर्ड पे, या बैंकों पर लगी दीवार पट्टियों पर लिखी इबारत कि “हिंदी हमारी भाषा है..अपने काम में इसी का उपयोग करें..” देख कर दिल खुश कर लेते हैं कि हम हिंदी भाषी हैं..
वरना तो हम हिन्द के बेटों ने हिंदी की बिंदी उड़ा रखी है और उसे विश्व में शर्मिंदा कर रखा है..
ये कुछ बड़े शहरों के लोग, ये कुछ “सेलिब्रिटीज़”, ये चंद अरबपति उद्योगपति, ये भारत की जनसंख्या की तुलना में गिने-चुने तथाकथित “हाई सोसाइटी” के लोग, कुछ दिखावटी नेता और अमीर माँ-बाप की नाजों से पली औलादें.. जो भारत को ढंग से जानती नहीं और मीडिया के सामने देश भक्ति का ढोंग करती हैं.. ये लोग जो भारत की संस्कृति, संस्कार, शुचिता-संचिता और सौहार्द्र के “स” से वाक़िफ़ नहीं हैं, वो किसी तथाकथित समाजसेवी संस्था (जिसे अधिकतर तो खुद ही “क्लब” का नाम देते हैं) के सहारे भारत की गरीबी को दूर करने का दिखावा करते हैं.. दिन में किसी सरकारी अस्पताल में मरीजों को पचास रुपये के फल बांटे हैं, और उसके बाद मीडिया का मजमा इकठ्ठा कर के हज़ारों रूपये की तारीफ़ मुफ्त में बंटोर लेते हैं…
दस मिनट की समाज सेवा में भी मीडिया के सामने वक्तव्य अंग्रेजी में ही देते हैं..
उधर देखिये फिल्मी कलाकारों को.. हिंदी की खाते-कमाते हैं और हिंदी बोलने में ही शर्म आती है..
फिल्म जगत में अच्छी हिंदी बोलने वाले उँगलियों पे गिन लीजिये. (इनमें उर्दू को भी शामिल समझा जाये, क्यूंकि वो भी हमारी ही भाषा है…) बाकी फिल्मी कलाकारों को तो साक्षात्कार के समय हिंदी बोलने में अपनी तौहीन महसूस होती है,…ज़रा-सा हिंदी में बोलने को कह दो तो ऐसी अदाएं दिखाएँगे कि गोया हिंदी नहीं आना कोई शान की बात हो गयी… उन्हें क्या पता कि ये शान की नहीं बेशर्मी की बात है…
छोटे गाँव-शहर के युवा पढ़-लिख के नौकरी के लिए बड़े शहरों को जाते हैं, तो बड़ी-बड़ी कम्पनियों में सिर्फ इसलिए खारिज कर दिए जाते हैं कि आप तो हिंदी में बात करते हो अंग्रेजी नहीं आती…. लिहाज़ा कम पढ़े-लिखे और बड़े शहर के बिगडैल युवा भी कई बार अच्छी नौकरी सिर्फ इसलिए पा जाते हैं कि वो अंग्रेजी बोलना जानते हैं… ऐसे में हिंदी भाषी युवा का सारा शोध, ज्ञान, शिक्षा सब धरा रह जाता है और वो इस नाइंसाफी के लिए कुछ कर भी नहीं पाता…
दूर क्यूँ जाएँ, देश के कर्णधार, हमारे नेता.. उनके भी यही हाल हैं.. सबके नहीं तो भी अधिकतर को तो हिंदी आती ही नहीं.. मुझे याद है जब महीने-पंद्रह दिन को श्रीमान इन्द्र कुमार गुजराल साहब प्रधानमन्त्री बने थे तो संसद में अपने शपथ ग्रहण के दौरान भाषण में उन्होंने जो हिंदी की इज्ज़त उतारी थी.. पूरा भारत शर्मिंदा हुआ था..
पूर्व केंद्रीय मंत्री श्री पी. चिदम्बरम साहब… मजाल है कि हिंदी को तवज्जो दें…
मैं कोई कांग्रेसी नहीं हूँ, पर अपने देश के ढकोसलेबाज़ नेताओं और झूठे देश भक्तों की तुलना में सोनिया गांधी को बड़ा हिदुस्तानी मानता हूँ कि कम से कम वो पढ़ के या देख-देख के ही सही, हिंदी बोलने की कोशिश तो करती हैं.. न सिर्फ कोशिश करती हैं, बोलती भी हैं…
…….दूसरे देशों से ही कुछ सीखें……
हम उर्दू को भी अपनी ही भाषा मान लें… कोई बुराई नहीं है… मेरी तकलीफ अंग्रेजी वालों से है, आज कल उर्दू अलफ़ाज़ हिंदी की बात-चीत में मिश्रित हो गए हैं, उनमें हमें भेद करना भी नहीं है, मगर इस उर्दू-हिंदी मिश्रित भाषा को तो सम्मान मिल जाए… कम से कम हम भारतीय इसे तो अपना लें और इसके उपयोग पे तो कम से कम लोग शर्म ना करें… इस मादर-ए-वतन की भाषा को तो बड़ी-बड़ी निजी कम्पनियों की नौकरियों में हिकारत की नज़र से ना देखा जाए… हमें रूस, जापान, कोरिया, जर्मनी आदि से सबक लेना चाहिए, वहाँ सारे काम सरकारी या गैर सरकारी … उनकी ही भाषा में होते हैं.. संसद में बहस हो या नौकरियों में (कम्पनियों में) मीटिंग … सब काम उनकी अपनी भाषा में होता है … हम तो प्रांतवाद में ही मरे जा रहे हैं.. तामिलनाडू में एक समय में दुकानों के बाहर लगे हिंदी के बोर्ड्स पे कालिख पोत दी गयी थी… सिर्फ उन्हें तामिल भाषा ही चाहिए.. गुजरात में सिर्फ गुजराती, महाराष्ट्र में सिर्फ मराठी, और इसी तरह हर प्रांत वालों को सिर्फ अपनी भाषा ही चाहिए.. हिंदी किसी को चाहिए ही नहीं… कोई ऐतराज़ नहीं किसी भी प्रांत की प्रांतीय या क्षेत्रिय भाषा से… मुझे अपने राजस्थान की मारवाड़ी भाषा बहुत अच्छी लगती है.. में पंजाबी हूँ मगर जितनी भी आती है… दोस्तों से या राजस्थानी लोगों से मारवाड़ी में बात करता हूँ… मगर कम से कम ये तो हो की देश के हर कोने में, हर प्रांत में.. हिंदी को पूरा सम्मान मिले.. जिसे सिर्फ हिंदी बोलनी आती हो, उसे बड़ी कम्पनी नौकरी देने से मना न करे.. सारे काम सरकारी दफ्तरों और निजी कंपनियों में हिंदी में ही हों… ये सुनिश्चित करना तो हुक्मरानों का ही काम है….।
दोष किसका है, मैं नहीं जानता.. जानता भी हूँ तो बोलूँगा नहीं, क्यूंकि सब ही जानते हैं… गलतियां कहाँ हुईं, खामियां कहाँ हैं.. सवाल ये है की क्या हम कभी हिंदी को सही मायनों में अपनी माँ का दर्जा देंगे..? क्या हम हिंदी की बहिन उर्दू को कभी अपनी मौसी का दर्जा देंगे..? कैसे, कब, किस तरह…?

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