शिक्षा के लिये मिलने वाले कर्ज का काला सच

हमारे देश में शिक्षा के नाम पर हर क्षेत्र से टैक्स के रूप में अरबों रु. लिया जा रहा है, मगर क्या वह वास्तव में उन जरूरतमंद बच्चों तक पहुँच रहा है? या पहुँचाते वक्त  बीच में आने वाले माध्यम द्वारा किस अव्यवहारिक पूर्ण तरीके से पहुँचाया जा रहा है? सरकार द्वारा यह कानून तो लागू कर दिया गया कि शिक्षा बच्चों का हक है और बच्चों को किसी भी हालात में इससे महरुम नहीं किया जाना चाहिये | इस सहूलियत के लिये केन्द्र सरकार ने बैंक को ७५% बैंक गारंटी उपलब्ध कराई है| मगर यह बैंक के अधिकारी जरूरतमंदों को कर्जा कुछ इस प्रकार देते हैं कि जैसे वे उस अभिभावक व बच्चे को अपनी जेब से पैसा दे रहे हों| सबसे बड़ी बात यह है कि अधिकारी समय इतना लेते हैं फीस जमा करने के लिये अभिभावकों को साहूकारों से ३ से ५% प्रति महीना ब्याज पर कर्जा लेकर बच्चों की फीस जमा करनी पड़ती है और अगर किसी बैंक ने कर्ज पास भी कर दिया तो ड्राफ्ट देते समय अभिभावक से यह लिखवा कर लिया जाता है कि इस वर्ष की तो हम फीस दे रहे हैं मगर अगले वर्ष की फीस आपको अपनी जेब से देनी होगी यानि बैंक के अधिकारी अभिभावकों की मजबूरी का फायदा उठा कर ब्लैकमेल करते हैं और अभिभावक यह सोच कर कि चलो “डूबते को तिनके का सहारा” कहावत  को चरितार्थ करते हुये बैंक द्वारा लगाई गई इन शर्तों को मन्जूर करते हुये लिख कर देते हैं| यह सब कृत्य अधिकारियों की उस मानसिकता को दर्शाता है जिसमें यह नजर आता है कि यह कर्जा बैंक नहीं बल्कि वे  खुद अपनी जेब से दे रहे हैं| यहाँ अधिकारी ऐसी परिस्थिती पैदा कर देता है कि अधिकारी अगर अभिभावक से कहे कि मेरे जूते पर पड़े थूक को चाटो तो अभिभावक अपने बेटे के भविष्य (जबकि वह भविष्य बेटे का भविष्य नहीं बल्कि देश का भविष्य है) के लिये यह कृत्य भी करने को तैयार हो जायेगा| क्या हमें ऐसे अधिकारियों को उनके इस कृत्य के लिये माफ कर देना चाहिये? इस प्रकार का एक मामला हमारे पास इलाहाबाद से आया है जिसमें बैंक ने (बैंक का नाम हम अभी नहीं ले रहे क्योंकि बैंक ने अपनी गलती मानते हुये इस  मामले को सुलझाने का आश्वासन दिया है) शिक्षा संबंधी कर्जे के लिये आये एक आवेदन को तीन महीने के बाद तब पास किया जब कॉलेज का इम्तिहान शुरू होने वाला था जब अभिभावक बैंक का ड्राफ्ट लेकर कॉलेज पहुँचा तो उसे पता चला कि अब कॉलेज में दाखिला नहीं कर सकते क्योंकि कल से इम्तिहान शुरू हैं इसलिये अब आपके बच्चे का साल खराब हो जायेगा, फिर कॉलेज ने ही सहयोग देते हुये उस बच्चे को अपनी दूसरी शाखा जयपुर में जहाँ अभी इम्तिहान दिया जा सकता था वहाँ हस्तांतरित कर दिया, जिसकी वजह से बच्चे का वर्ष बच गया|

ड्राफ्ट देते समय बैंक ने अभिभावक से लिखवा कर लिया कि बैंक सिर्फ इसी वर्ष यानी १ वर्ष की फीस देगा अगले वर्ष की फीस अभिभावक को देनी होगी जो अभिभावक ने मजबूरी वश लिख कर दिया था, जिससे बच्चे का भविष्य खराब न हो सके| जब यूनिट हस्तांतण करने की बात अभिभावक ने बैंक से कही तो बैंक ने कहा कि आप दोनों कॉलेज से संबंधित मामले में आवश्यक पत्र लिखवाकर हमें दे दें, जब वह पत्र लिखवाकर बैंक में जमा किया गया तो बैंक अधिकारी ने कहा कि हम आपको कर्जा continue नहीं दे सकते, आपको यह कर्जा वापिस करना होगा और खाता बंद करना होगा| जिसका मतलब है कि एक गरीब अभिभावक ऐसा कार्य कर नहीं पायेगा क्योंकि अगर उसके पास पैसा होता तो वह कर्जा लेता ही क्यूँ, मतलब उसे अपने बच्चे का भविष्य एक अधिकारी के अहम और लापरवाही की वजह से खराब करना पढ़ रहा है| यहाँ अगर एक झोपड़पट्टी में रहने वाला बच्चा अगर पढ़ना चाहता तो वह तो कभी जिन्दगी में पढ़ ही नहीं पाता| यहाँ एक ही संस्था के दोनों कॉलेज हैं तो नये कॉलेज के नाम पर कर्ज लेने की आवश्यकता क्या है? संस्था को तो केवल फीस से मतलब है चाहे छात्र संस्था के किसी भी कॉलेज में क्यूँ न पढ रहा हो| एक अभिभावक के सामने अगर कोई अधिकारी ऐसी स्थिती पैदा करे तो इसका मतलब साफ है कि अधिकारी अभिभावक से अर्थ की माँग कर रहा है मगर ज़बान से कह नहीं रहा है|

क्या बैंक के अधिकारी की लापरवाही और अहम के कारण इस बच्चे का भविष्य खराब होना सही है? क्या अभिभावक को बैंक के अधिकारी द्वारा इस तरह जलील करना, परेशान करना और देर करना उचित है?

हो सकता है कि हमारी संस्था के द्वारा बीच में पड़ने पर यह मामला सुलझ जाये मगर हमारे देश में लाखों बच्चों और अभिभावकों के साथ इस प्रकार का कृत्य किया जा रहा है, हमें उन्हें ससम्मान यह हक “शिक्षण कर्ज” प्राप्त करने का प्रयत्न करवाना चाहिये| हमें एक जुट होकर और इन अधिकारियों को इनके कार्यों संम्बंधी जिम्मेदारियों के प्रति ध्यान दिलाना चाहिये|

जय माँ भारती

भ्रष्टाचार विरूद्ध भारत जागृति अभियान

www.bvbja.com

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