दादा पंडित राम नारायण उपाध्याय : स्वर्णिम स्मृतियों से

ये उस समय की बात है जब कंप्यूटर को वातानुकूल में ही रखा जाता था और उसे छुने के लिए भी पहले हतेलियों से धूल झटकनी पड़ती थी। सदी बदल रही थी इक्कीसवीं सदी का प्रारम्भ था बात होगी सन 1999 – 2000 की अब मैं भावनाओं को बहुत अच्छे से समझने लग चुका था।

मेरे बड़े दादा “दादा राम नारायण उपाध्याय” पद्मश्री थे उन्होंने निमाड़ के साहित्य के लिए बहुत सार्थक प्रयास किए थे, दादा ह्रदय से बहुत नेक व प्रसन्नचित्त थे। अपने मित्रों को हास्य प्रसंग सुनाना और ठहाके लगा कर हँसना उनका स्वभाव था। उनकी लेखनी अति सटीक थी, कम शब्दों मे बड़ी-बड़ी बातें लिख जाते थे। मुझे बहुत अच्छे से याद है दादा का जन्म दिन 20 मई को एक उत्सव के समान मनाया जाता था। दादा खुद उनके जन्म दिन की तैयारी दो तीन दिन पूर्व से प्रारम्भ कर देते थे। नया धोती कुर्ता बनवा के रखते थे या किसी ने जो उपहार स्वरूप दिया हो उसे जन्म दिन पर पहनने के लिए रख देते थे। घर में जन्म दिन के एक दिन पहले बहुत सारे आम ला कर रख दिये जाते थे और उन आमों का रस बनवाया जाता था। दादा के जन्म दिन पर सुबह से ही घर के सभी के चेहरों पर एक अलग ही खुशी रहती थी। दादा सुबह सब से पहले उठ कर तैयार हो जाते थे और सुबह से ही परिवार के सभी सदस्यों को भेंट स्वरूप कुछ न कुछ राशि जरूर देते थे कभी-कभी तो ऐसा भी हुआ है कि जो सदस्य आगर देर तक सो रहा हो उसे भी नींद में ही भेंट दे देते थे।यहाँ तक कि हमारे मोहल्ले के सफाई कर्मचारियों को भी सुबह से ही भेंट मिल जाती थी “लो गोपाल भाई भेंट लेलो आज जन्म दिन है मेरा” आज के दिन सुबह से ही मेहमानों की आवक-जावक रहती थी, दादा से हर वो व्यक्ति मिलने आता था जो उनसे स्नेह रखता था। हर कोई कुछ न कुछ जरूर लाता था कोई मिठाई तो कोई पुष्प हार हम बच्चे तो दोनों से ही खुश हो जाते थे। कलेक्टर साहब, एस पी साहब, कई विभागों के जिलाधिकारी, नगर के साधारण आदमी से लेकर नगर सेठ तक। पार्षद, विधायक, सांसद सभी मिलने आते थे। चारों धर्मों के धर्मगुरु भी आते थे । दादा को सब, व सब को दादा प्रिय थे। आज के दिन मुझे उठने के पहले ही भेंट मिल गई थी मैंने बहुत पहले ही सोच रखा था आज दादा के लिए कुछ न कुछ “भेंट” मैं भी लेकर जाऊँगा, सुबह बाजार खुलने से पहले ही दो चक्कर लगा दिए कि दुकानें खुली या नहीं, दुकान खुलते ही दादा के दिये रुपयों से ही मैंने दो कलमें स्याही की व दवात खरीदीं, वो दुकान भी खास थी दादा वहीं से अपनी कलम खरीदते थे, जिससे मुझे दादा की पसंद की कलम खरीदने में दुकानदार ने मदद की । घर पहुँच कर मैंने दादा को वो कलम भेंट की, दादा बहुत खुश हो गए और कहा तुने तो मुझे वही भेंट दी जिसकी मुझे सदा जरूरत रहती है और उन्होंने सब के सामने मुझे गले लगाया और फिर से मुझे वो कलम से दुगनी राशि दी, और दादा ने उसी समय उन कलमों में स्याही भर कर उपयोग में लेना शुरू कर दिया।

दादा से मैंने सीखा है स्नेह, स्नेह से ही बढ़ता है। मुझे दादा के 20 जून 2001को दुनिया से जाने के बाद पता चला कि 9 माह के जिस नन्हें बच्चे से निमड़ी लोक संस्कृति न्यास का दीप जलाकर उद्घाटन कराया था वो मैं था ।

अनिमेष उपाध्याय 9406605051

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