आज अचानक तुम इतनी उदास कैसे हो गई? पूछते हुए मैंने माँ के कंधे पर हाथ रखा और आंखों में देखा। मगर यह क्या! आज वह तेज़, हौसला, साहस कहाँ खो गया, जो हर रोज मैं उनकी आंखों के सहारे स्वयं में भरती आई हूँ। क्या बात है माँ, आज आप इतनी हताश कैसे नजर आ रही हो?
अश्रु की वो झड़ी पोछते हुए माँ ने मेरे सर पर हाथ फेरा और सीने से लगा लिया। बेटी आज फिर मेरा मन झंझोर उठा। जब प्रातःकाल की खबर में पढ़ा, कैसे एक मासूम के साथ कुछ दरिंदों ने इंसानियत का कत्ल कर बलात्कार जैसे घिनौने अपराध को अंजाम दिया। क्या बीती होगी उस मासूम पर जो बचपन की खिलखिलाहट में इस घिनौने पाप के चंगुल में फस गई! कैसे मनुष्य औरत जात को आज केवल हवस का एक खिलौना बना बैठे हैं, कैसे अपनी इच्छा की नाजायज भूख में औरतों को नोच खाने की नजरों से देखा और छुआ जाता है। क्या औरत होना एक अपराध है? हमने तो नहीं चाहा कभी किसी मर्द को शारीरिक और मानसिक रूप से चोट पहुंचाना, उसके स्वाभिमान का अपनी हवस की भूख में हनन करना। फिर क्या अपराध रहे होंगे हमारे कि हर रोज बस, ट्रेन, सड़क,स्कूल, ऑफिस में हमारी इज्जत के चिथड़े उड़ा दिए जाते हैं। माना मनुष्य जाति में हम माँ, बहन, पत्नी, बेटी है। तो बस इतने से गुनाह की इतनी बड़ी सजा कि उसका बदला बलात्कार जैसे घिनौने काम से लिया जा रहा है? काश अब किसी बेटी का जन्म इस निर्दयी संसार में ना हो, वरना कल फिर एक सुबह होगी और फिर एक खबर।
– अभिमन्यु जैन।