नाग पंचमी के झूले

बात शायद उस समय की होगी जब ब्लेक एंड व्हाइट टीवी की जगह सब बी.पी. एल. के कलर टीवी ले रहे थे और साथ में रिमोट जैसा नया यंत्र भी उपलब्ध हो रहा था।

” बाल्यावस्था की स्वर्णिम स्मृतियों से”।

अनिमेष उपाध्याय
खण्डवा शहर में त्योहारों के मौसम श्रावण में कई प्रकार के मेले लगते थे जैसे राम सप्ताह का मेला गांधी भवन में ,गुरुपूर्णिमा का मेला दादा जी दरबार के आसपास, नागपंचमी का मेला रामेश्वर कुंड पर।
मेरे लिए एक मेला बहुत खास था क्योंकि मेरे जहन में मेले से मतलब सिर्फ झूले से ही हुआ करता था। नागपंचमी के समय बड़े बम पर बगीचे के सामने बहुत से झूले आते थे जैसे चार डोली वाला रा़ईं झूला, हाथी घोड़े वाले गोल झूले। ये सब हाथ से चलाने वाले झूले होते थे।अब तो शायद ये झूलों को देखे बारसों हो गए । मेरा पसंदीदा झूला वो चार डोली वाला लकड़ी का झूला था जिसमें मुझे बैठ के बहुत खुशी होती थी।
घर में, मैं सबसे ज्यादा मेरे दादा का लाड़ला था जिन्हें हम सब बाबूजी के नाम से ही संबोधित करते थे। बाबूजी को जैसे ही पता चलता या वो बड़े बम से देख कर आते कि झूले आ गये हैं वो वैसे ही मुझे ढूँढ कर मुझे उन झूलों में झूलने के लिए पैसे दे देते थे, महज 1 रुपये में , मैं शायद 2 बार झूल लेता था। और मन करता तो अपने बड़े दादा से 1 रुपया मांग लेता और फिर झूलने चले जाता । कभी और मन करता तो शाम को मेरे पिताजी के कार्यालय से आने का इंतजार करता और उनसे रूपया मांग कर फिर चले जाता।
पता नहीं उन झूलों में क्या आनंद मिलता था कि गांधी भवन में लगे मेले के झूलों से भी अच्छे ये झूले लगते थे । झूले चलाने वाले भैया को भी मैंने मोह लिया था, कभी पैसे नहीं भी होते तो यूँही बैलेंस बनाने के लिए खाली डोली में मुफ्त में ही बिठा लिया करते थे और कई-कई बार झूले की बारी खत्म होने पर भी मुझे बैलेंस बनाने के लिए दूसरे चक्कर में भी बैठे रहने देते थे । वैसे मैं उनका एक हमेशा का ग्रहक भी था और मेरे झूले पर बैठने और जोर-जोर से चिल्लाने से- “और जोर से ,और जोर से और तेज़” उनके झूले के पास और ग्राहक आ जाते थे । वैसे भी मेरा मन पढ़ाई से ज्यादा खेल-कूद में ही रहता था, इन झूलों के चक्कर में, मैं दिन- दिन भर घर ही नहीं आता था, स्कूल से सीधे इन झूलों पर ही जाता था। हमेशा इन सब के लिए पैसे तो मैं दादा या बाबूजी या पापाजी से ही मांँगता था, मम्मी से कभी बचपन में खेलने-कूदने या ऐसी चीजों के लिए पैसे नहीं माँंगे क्यों कि वो सारी जरूरतें मेरे दादा- बाबूजी ही पूरी कर देते थे ।
एक बार छुट्टी के दिन मैं कईं घंटों तक खाना- पीना भूलकर “झूला ” झूल रहा था, थोड़ा एहसास मुझे भी हुआ कि बहुत ज्यादा देर हो गई है लेकिन वो झूले वाले ने मुझे बैलेंस के लिए बिठाये रखा, थोड़ी देर बाद झूले पर से मेरी नजर मम्मी पर गयी। मम्मी के हाथ में सफेद रंग का मेरा ही बैल्ट था । वो बैल्ट देख कर मेरे मन में ख्याल आया कि मेरी ढीली पेंट के लिए लाई होगी। लेकिन मम्मी ने झूला रुकवाया, मेरी नजर मम्मी पर थी, मम्मी ग़ुस्से से लाल थी जैसे ही मैं झूले से नीचे उतरा, मम्मी मुझे पकड़कर घर ले गयी और एक कमरे में बंद कर के बैल्ट से बहुत पिटाई की। मुझे करीब 1 घंटे तक कमरे में बंद रखा, इतने में किसी मेहमान का आना हुआ। मम्मी को मेहमान से बातों में लगा देख बाबूजी ने कमरे का दरवाजा खोल दिया। मैंने मौका देखते ही बेल्ट को छिपा दिया ।शाम को डर के मारे घर से बाहर ही नहीं निकला। रात में लगा कि फिर से क्लास लगेगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, आराम से नींद ली और सुबह से फिर वही स्कूल के बाद वही झूले पर। लेकिन अब झूले पर वो मजा नहीं आ रहा था। धीरे-धीरे झूले पर झूलना बन्द हो गया और कुछ सालों बाद वो झूले आना भी बंद हो गए।
वैसे आज भी, वैसे ही झूलों को याद करता हूँ। जब भी नागपंचमी आती है हर साल यह किस्सा हमेशा याद आता है। वो झूले अब नहीं रहे। यहाँ तक कि गाँवों के जतरा (मेले) में भी वैसे झूले अब दिखाई नहीं देते। जब भी किसी मेले में जाता हूँ तो मेरी नजरें उन लकड़ी के रा़ईं झूले को खोजती हैं ।

अनिमेष उपाध्याय
9406605051

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