चेतना, चेतन्यता और चेतना चरित्र

डा. जे.के.गर्ग
कोई भी मनुष्य किसी विषेले अथवा हानिकारक पदार्थ या घटना से बचने के लिए अपने किसी अंग को तब तक नहीं हिला सकता,जब तक कि उसको यह ज्ञान न हो जाये कि कोई विषेला/ हानिकारक/प्राण घातक पदार्थ उसके सामने है और उससे बचने के लिए वह अपने अंगों को काम में ला सकता है। इस सन्दर्भ में हम एक ऐसे आदमी के बारे में सोचें जो नदी की तरफ जा रहा है और वो चलते चलते नदी के किनारे के बहुत नजदीक पहुच जाता है उसके कुछ कदम उसे नदी में गिरा सकते हैं और वो नदी मे डूब कर मर सकता है जैसे ही उसकी चेतना में यह ज्ञान पैदा होता है तो उसी वक्त उसके कदम रुक जाते है और उसकी चेतना उसे बताती है कि वो जमीन पर तो चल सकता है किन्तु पानी पर नहीं | इसीलिए कोई भी मनुष्य किसी विषेले अथवा हानिकारक पदार्थ या घटना से बचने के लिए अपने किसी अंग को तब तक नहीं हिला ता है जब तक कि उसको यह ज्ञान न हो जाये कि कोई विषेला प्राण घातक पदार्थ उसके सामने है और उससे बचने के लिए वह अपने अंगों को काम में ला सकता है।

प्राचीन काल से ही प्रमस्तिष्क प्रांतस्था (cerebralcortex) को चेतना का स्थान माना गया है। पेनफील्ड और यास्पर्स के मतानुसार चेतना का स्थान चेतक (thalamus) , अधश्चेतक (Hypothalamus) और ऊपरी मस्तिष्क के ऊपरी भाग के आसपास है । पेनफील्ड और यास्पर्स मस्तिष्क के इन भागों को और उनके संयोजनों को स्नायुओं के संगठन का सर्वोच्च स्तर मानते हैं। पूर्व ललाट क्षेत्र तथा अधश्चेतक के बीच बहिर्गामी नाड़ियों द्वारा संयोजन है। संयोजन प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष है। परोक्ष संयोजन पृष्ठ केंद्रक के द्वारा होता है। इन नाड़ियों का संबंध पौंस (Pons) से भी है।

निसंदेह चेतना मनुष्य का वह गुण है जो उसे जीवित रखती है और जो मनुष्य को व्यक्तिगत सम्बन्ध में तथा अपने वातावरण के सम्बन्ध में, ज्ञान कराती है । इसी ज्ञान को विचारशक्ति (बुद्धि) कहा जाता है। यही विशेषता मनुष्य में ऐसे काम करती है जिसके कारण वह जीवित प्राणी समझा जाता है। मनुष्य अपनी कोई भी शारीरिक क्रिया तब तक नहीं कर सकता जब तक कि उसको यह बोध पहले न हो कि वह उस क्रिया को कर सकेगा।

चेतना— मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण

मनोविज्ञान की दृष्टि से चेतना मानव में उपस्थित वह तत्व है जिसके फलस्वरूप मानव को सभी प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं। चेतना के कारण ही हम देखते,सुनते औरसमझते हैं और एवं अनेक विषय पर गहन चिंतन भी करते हैं। इसी के कारण हमें सुख-दु:ख की अनुभूति होती है और हम इसी के कारण अनेक प्रकार के निर्णय कर अपना लक्ष्य निर्धारित करते हैं और उस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्रयास भी करते हैं । आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के विचारों से‘चेतना वह तत्व है जिसमें ज्ञान की,भाव की और अभिव्यक्ति की अनुभूति है”। जब हम किसी पदार्थ को जानते हैं या पहचानते हैंतो हमे उसके स्वरूप का ज्ञान भी होता है,उसके प्रति हम में प्रिय अथवा अप्रिय के भाव भी सर्जित होते है और उसके प्रति इच्छा या अनिच्छा उत्पन्न होती है, जिसके कारण या तो हम उसे अपने समीप लाने का प्रयास करते हैं अथवा हम अपने आपको उससे से दूर रखते हैं।

स्मरणीय रहे कि मानव चेतना की तीन विशेषताएँ होती है 1. ज्ञानात्मक 2. भावात्मक और 3.क्रियात्मक

चेतना को दर्शन में स्वयं प्रकाशित तत्व माना गया है। मनोविज्ञान अभी तक चेतना के स्वरूप में आगे नहीं बढ़ सका है। चेतना ही सभी पदार्थो को,जड़ चेतन,शरीर मन,निर्जीव सजीव, मस्तिष्क स्नायु आदि को बनाती है, उनका स्वरूप निरूपित करती है। श्री मेगडूगलके कथनानुसार” जिस प्रकार भौतिक विज्ञान की अपनी ही सोचने की विधियाँ और विशेष प्रकार के प्रदत्त हैं उसी प्रकार चेतना के विषय में चिंतन करने की अपनी ही विधियाँ और प्रदत्त हैं”। अतएव चेतना के विषय में भौतिक विज्ञान की विधियों से न तो सोचा जा सकता है और न उसके प्रदत्त इसके काम में आ सकते हैं। फिर भौतिक विज्ञान स्वयं अपनी उन अंतिम इकाइयों के स्वरूप के बारे में अभी तकएक निश्चित मत स्थापित नहीं कर पाया है जो उस विज्ञान के आधार हैं। पदार्थ,शक्ति,गति आदि के विषय में उन्हें अभी तक कामचलाऊ जानकारी ही प्राप्त हुई है। अभी तक उनके स्वरूप के विषय में अंतिम निर्णय नहीं हुआ है। अतएव चेतना के विषय में अंतिम निर्णय की आशा कर लेना युक्तिसंगत नहीं है।

मनुष्य के चरित्र में चेतना का आधारभूत मोलिक सम्बन्ध है—

चेतना ही आदमी का वह विशेष गुण है जो मनुष्य को जीवित बनाती है,वहीं दूसरी तरफ चरित्र उसका वह संपूर्ण संगठन है जिसके द्वारा उसके जीवित रहने की वास्तविकता व्यक्त होती है तथा जिसके द्वारा जीवन के विभिन्न कार्यो का संचालन कराया जाता हैं।

यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि किसी इन्सान की चेतना और चरित्र केवल उसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं होते। ये बहुत दिनों के सामाजिक प्रक्रम/ सम्बन्धों के परिणाम होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने जींस को स्वयं में प्रस्तुत करता है। वह जींस,और विशेष प्रकार के संस्कारों को पैत्रिक संपत्ति के रूप में पाता है। वह इतिहास को भी स्वयं में निरूपित करता है,क्योंकि उसने विभिन्न प्रकार की शिक्षा तथा प्रशिक्षण को जीवन में पाया है। इसके अतिरिक्त वह दूसरे लोगों से पाप्त शिक्षा आदि को भी अपने में निरूपित करता है, क्योंकि उनका प्रभाव उसके जीवन पर उनके कार्यकलाप,उपदेश तथा अन्य गुणों के द्वारा पड़ा है।

जब एक बार मनुष्य की चेतना विकसित हो जाती है,तब आदमी अपनी खुद की प्राकृतिक स्वतंत्रता खो देता है और वह ऐसी अवस्था में भी विभिन्न कार्यकलापों,सामाजिकता प्रेरणाओं (आवेगों) और भीतरी प्रवृत्तियों से प्रेरित होता है,परंतु वह उन्हें स्वतंत्रता पूर्वक अभिव्यक्त नहीं कर पाता है । वह या तो उन्हें इसलिए मन मे दबा लेता है जिससे कि वे समाज के दूसरे लोगों की आवश्यकताओं एवं इच्छाओं में का बाधक न बनें,अथवा उन्हें इस प्रकार का रूप दे देता है जिससे वह समाज के अन्दर समाजविरोधी न कहलाये |

इस प्रकार मनुष्य की चेतना अथवा विवेकी मन उसके अवचेतन मन, अथवा प्राकृतिक,मन पर अपना नियंत्रण कर लेता है। मनुष्य और पशु में यही तो विशिष्ट अंतर है। पशुओं के जीवन में इस प्रकार का नियंत्रण नहीं रहता, अतएव पशु जैसा चाहते हैं वे वैसा ही करते हैं। मनुष्य चेतनायुक्त प्राणी है,अतएव कोई भी क्रिया या काम करने के पहले मनुष्य उसके परिणाम के बारे में भली प्रकार सोच लेता है।

सकंलनकर्ता एवं प्रस्तुतिकरण —- डा. जे. के. गर्ग

सन्दर्भ—– Anthropology of Consciousness, Journal of Consciousness Studies,Cognition Psyche, Science & Consciousness Review,ASSC e-print archive containing articles, book chapters, theses, conference presentations by members of the ASSC.,Stanford Encyclopedia of Philosophy, Levels of Consciousness, by Steve Pavlina

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