दस-पन्द्रह साल पहले की बात है हमारे यहाँ एक पुराने कपड़ा व्यवसाई बुजुर्ग की सामान्य मृत्यु हो गई। उनके निधन उपरान्त प्रिन्ट मीडिया से जुड़े पत्रकारों ने अपने-अपने अखबारों में लिखा था कि- महान समाजसेवी अमुक का निधन हो गया। निधन का समाचार सुनकर पूरा इलाका, मण्डल और जनपद शोकाकुल होकर दिवंगत के आवास पर दौड़ पड़ा अपनी श्रद्धांजलि देने। यही नही अन्त्येष्टि पर हजारों नम आँखों ने उन्हें अन्तिम विदाई दी। हमें तो बड़ा आश्चर्य हुआ कि सेठ अमुक जिन्हें मैं भी तीस-पैंतीस सालों से जानता था वह कैसे महान समाजसेवी हो गये। हालांकि वह एक पुराने व्यवसाई थे और अमुक प्रसाद कपड़ा वाले के नाम से जाने जाते थे। उनके व्यापार करने का तरीका कुछ अलग हटकर था। उनके यहाँ फिक्स रेट पर पकड़ों की बिक्री की जाती थी।
वह अन्तिम वस्त्र यानि कफन के अच्छे विक्रेता थे। वाजिब कीमत पर मृत शरीर को ढक कर श्मशान तक ले जाने वाले कफन नामक वस्त्र की कीमत वसूलने के बाद ही ग्राहकों को दुकान से जाने देते थे। इनके दुकान की शोहरत दूर-दूर तक फैली हुई थी। गाँव-गिराँव से लेकर कस्बे, बाजारों तक में किसी के यहाँ मैय्यत होने पर लोगों के मुँह से बरबस ही निकलता था कि जाओ जल्दी करो कफन अमुक प्रसाद की दुकान से लेकर आओ। वही अमुक प्रसाद जब स्वयं मरे तब अखबारों में छपा कि महान समाजसेवी अमुक प्रसाद का निधन हो गया। उनके आधा दर्जन पुत्र सन्तानों में एक की धर्मपत्नी माननीय थी। अखबार वालों ने लिखा था कि- समाजसेवी अमुक प्रसाद की पुत्रवधू फलां नेता की धर्मपत्नी माननीय हैं।
अखबार पढ़कर जब मैं सोचने को विवश हुआ कि सेठ अमुक प्रसाद कपड़ा वाले कब से महान समाजसेवी हुए मुझे लगता है कि ऐसा औरों ने भी जरूर सोचा होगा। हो सकता है कि माननीया पुत्रवधू और उसके प्रतिनिधि पति से प्रगाढ़ सम्बन्ध रखने वाले मीडिया परसन्स ने कुछ की एवज में दिवंगत का महिमा मण्डन किया हो। हमारे देहात में कहावत है कि- ’’खाई मीठ कि माई……, जिसकी खाई उसी की दुहाई……, बाप बड़ा न मइय्या, सबसे बड़ा रूपइय्या………।’’
कुछ समय के अन्तराल पर एक अन्य बुजुर्ग का निधन हुआ। उनके निधन पर तो छोटे से लेकर बड़े ब्राण्ड तक के अखबारो ने महिमा मण्डन कर अपने को इस प्रक्रिया के मैराथन में बाजी मार लेने की होड़ लगा दी थी। चूँकि दिवंगत बाहुबली पुत्रों के पिता थे, शायद इसीलिए मीडिया ने महिमा मण्डन का कलमतोड़ जजमेन्ट दिया था। और देता भी क्यों न…….जान है तो जहान है……माफ करियेगा हर किसी को अपनी जान प्यारी होती है। यह बात दीगर है कि लोगों के जीने का अन्दाज अलग-अलग होता है। कुछ लोग सौ-सौ जूता खाये, तमाशा घुस के देखें सिद्धान्त पर चलते हैं जो स्वस्थ एवं दीर्घायु होते हैं और कुछ बेवजह की अज्ञानता में सिद्धान्तवादी बनकर अभावग्रस्त जीवन जीते हैं। इसका जिक्र मैंने मीडिया के संदर्भ में इसलिए किया है कि- शुरूआत से लेकर वर्तमान तक जिसने भी जूता खाकर तमाशा देखने वाला फार्मूला अपनाया है वह बड़े मजे में जिन्दगी जीता है।
देश के लोकतंत्र में चौथा खम्भा आज कल काफी भौतिक सुख-सुविधा सम्पन्न देखा जा रहा है। सिद्धान्तवादियों की अकड़ खत्म हो चुकी है। वे मृतप्राय से होकर बेनामी जिन्दगी जी रहे हैं। उन्हें अब अवश्य ही यह अफसोस होता होगा कि क्यों नहीं उन्होंने वैसा सब कुछ किया जैसा हर महत्वाकांक्षी सुख-सुविधा भोगी लोग करते हैं। अब पछताये का होत है जब चिड़िया चुग गई खेत यानि जवानी बीत गई बुढ़ापा आ गया। लेटे-लेटे श्मशान का नजारा दिखाई पड़ रहा है और अपने समय के दिग्गज कहलाने वाले कलमकार कुछ इस तरह गा रहे हैं कि- कब मिलिहौ दीना नाथ हमारे…..। यानि हे ईश्वर इस जिल्लत-जलालत भरी जिन्दगी से ऊबे हुए व्यक्ति को अपने पास बुला लो।
नई पीढ़ी की प्रेरणा से बीते कुछ सालो से मैं स्मार्ट फोन का आदी हो गया हूँ। उस पर सोशल मीडिया का एकाउण्ट खोलकर लोगों के कमेण्ट और लाइक्स पाने की ललक लिये अनाप-शनाप लिखकर पोस्ट करता रहता हूँ। नींद खुली नहीं कि मोबाइल डाटा ऑन और लाइक्स, कमेण्ट्स की गिनती शुरू। इसी क्रम में एक पोस्ट देखा- जिसमें लिखा था कि एक बुजुर्ग समाजसेवी का निधन हो गया। सोशल मीडिया में पोस्ट करने वाले ने लिखा था कि- उनके निधन पर हजारों लोगों ने नम आँखों से अन्तिम विदाई दिया। दिवंगत बुजुर्ग अपने जीवन का शतकीय पारी खेलने की तरफ अग्रसर थे। पोस्ट पढ़ा नहीं कि सोच चालू। ऐसा क्यों लिखा गया है तो पता चला कि दिवंगत एक मीडिया परसन के रिश्तेदार थे। वह समाजसेवी क्यों कहे गये- वह सूद पर जरूरत मन्दों को पैसा देने का कार्य करते थे। उनका सूदखोरी का यह धन्धा काफी पुराना था। निधन पर उनके क्लाइन्ट्स कर्जदारों ने शोक जताया था।
अब यदि यह कहें कि मीडिया ने उनका महिमा मण्डन किया था तो शायद यह एक तरफा सोच होगी। मीडिया ने मित्र धर्म का पालन कर अपना फर्ज बखूबी निभाया। अपने मित्र सहकर्मी मीडिया परसन के करीबी रिश्तेदार के निधन पर सूदखोर की जगह समाजसेवी लिखा और कहा तो क्या गलत किया। दोस्त दोस्त के काम आता है यदि मीडिया परसन के रिश्तेदार के निधन पर मीडिया ने इतना अपने तरीके से लिखा और कहा तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। बिरादरी-बिरादरी की बात है यदि मीडिया में यह ब्रदरहुड कायम रहे तो इसकी एकजुटता प्रमाणित हो जाती है। क्योंकि इसकी प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए मीडिया के लोग औपचारिक ही सही कम से कम एक दूसरे मित्र का ख्याल कर रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे- पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही…….।
मेरे पिता जी का आकस्मिक निधन लगभग 45 वर्ष पूर्व हो गया था। मेरी युवा अवस्था था। मैं शिक्षा ग्रहण उपरान्त जीविकोपार्जन क्षेत्र में पदार्पण कर चुका था। उनके निधन पर हमारे घर में मातम छाया हुआ था। गाँव-देहात का माहौल, हर कोई अपने-अपने तरीके से किसी की मृत्यु पर दी जाने वाली शोक-संवेदना व्यक्त कर रहा था। परिजनों को ढांढस बंधा रहा था……….आदि……आदि……….आदि। लेकिन हमारी काकी को इस बात का बेहद रंज व मलाल था कि हमारे बाबू जी इतनी जल्दी क्यों मर गये…..उन्हें अभी मरना नहीं चाहिए था। कारण यह था कि काकी के बड़े पुत्र जो अभी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे वह कहीं सेट नहीं हो पाये थे। उनसे उम्र में तीन-चार साल बड़ा मैं सेटिल हो गया था।
काकी चाहती थी कि हमारे बाबूजी तब मरते जब उनका बेटा भी कहीं सेटिल हो जाता। यही नहीं ठीक उसी अन्दाज मे हमारे चचेरे भाई भी बाबू जी के निधन पर रूदन-क्रन्दन कर रहे थे और मुझसे व मेरी माता जी से ज्यादा शॉक्ड होकर आँसू बहा रहे थे। यह ठीक उसी तरह का नजारा दिख रहा था जैसा कि- फेसबुक व व्हाट्सएप्प, ट्वीटर व अन्य सोशल मीडिया पर देखने को मिलता है। सोशल मीडिया पर देखे अनदेखे सभी मित्रों द्वारा व्यक्त किये गए आर आई पी, ओम शान्ति…..दुःखद……श्रद्धांजलि…….शत-शत नमन……अल्लाह जन्नत नवाजे… आदि शोक संवेदना के शब्द वाक्य पढ़ने व देखने को मिलते हैं। अच्छा और अजीब भी लगता है जैसे शोक संवेदना व्यक्त करने वाला खुद ही इतना शाक्ड हो गया हो कि जल्द ही हृदयाघात से वह भी परलोकगमन करने वाला हो।
लिखते-लिखते एक वाकया याद आ गया। लगभग चालीस साल पहले की बात है एक रिश्तेदार के यहाँ बुजुर्ग सदस्य की मौत हो गई। वह तीन भाई थे। बड़े भाई की मृत्यु उपरान्त मझले मेरे पास आये, बोले- डाक्टर, डाक्टर जिसे तुम लोग श्मशान दाह संस्कार के लिए ले जा रहे हो वह हमारे बड़े व बुजुर्ग भाई थे। सुबह का मामला है, रूलाई नहीं आ रही है यदि मैं नहीं आँसू बहा पाया तो समाज में गलत संदेश जायेगा। बेहतर यह होगा कि बड़के भइया के निधन पर मुझे भी धाड़ मारकर रोना चाहिए। जिससे लगे कि हम सभी भाई एक दूसरे को काफी चाहते थे, और एक ही माँ-बाप के सन्तान थे। मैंने कहा कि इसमें मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ, तब तपाक से उन्होने उत्तर दिया कि मात्र दस रूपए का सहयोग……..। मैंने उन्हें दस रूपए दे डाला था।
शवयात्रा जारी थी तभी कुछ समय उपरान्त मृतक के मझले भाई नमूदार हुए, यात्रा रोकवाकर जमीन पर शव रखवाया और मृतक के गले लगकर तरन्नुम के साथ रोते हुए गाँव-गँवई की तरह विलाप करने लगे। शव के साथ चल रहे शव यात्रियों ने उन्हें शव से अलग किया और शव को लेकर गन्तव्य तक गये। मैं यहाँ बताना चाहता हूँ कि विलाप का यह परफॉरमेन्स मास्साब ने कैसे किया तो जान लें कि- मेरे द्वारा दिये गए दस रूपए में से नौ रूपए की एक बोतल देसी शराब व 1 रूपए की नमकीन का सेवन सुबह, सवेरे बतौर नाश्ता उदरस्थ किया था। अंगूर की बेटी का असर कुछ इस कदर हुआ कि वह भ्रातृशोक में डूब गये और विलाप की अच्छी प्रस्तुति दी। यह उनका हन्ड्रेड परसेन्ट परफॉरमेन्स था।
लोग उस दिन मास्साब के किये गये उस विलाप को जिसे उन्होंने अपने बड़े भाई के निधन उपरान्त किया था को आज तक नहीं भूल पाये हैं। जब भी किसी की मौत होती है और शवयात्री बनकर मैं अन्त्येष्टि स्थल पर जाता हूँ तो बरबस ही चालीस साल पहले मास्साब के उस विलाप की याद फिर से ताजा हो जाती है। काफी अन्तर रहता है वर्तमान में किसी की आँख से आँसू बहने की कौन कहे नम तक नहीं होती। चिता पर रखे शव को मुखाग्नि देते समय पारम्परिक वैदिक मन्त्रों के बीच रूदन-क्रन्दन यानि बिछोह की पीड़ा कहीं दृष्टिगोचर ही नहीं होती।
अब आइये थोड़ा सा समाजसेवा पर नजर डालें- अपने-अपने तरीके से इण्टरप्रेट करने पर अमुक प्रसाद चूँकि वाजिब कीमत पर कफन बेंचा करते थे इसलिए उन्हें अखबारों में समाजसेवी कहा गया होगा। हाँ यह बात और थी कि बगैर पैसा वसूले वह किसी ग्राहक को कफन लेकर दुकान से जाने नहीं देते थे। बाहुबलियों के पिता इसलिए समाजसेवी कहलाये क्योंकि उनके पुत्रों द्वारा समाज में बढ़ती आबादी यानि जनसंख्या कम करने का बीड़ा उठाया गया था। इसी तरह मीडिया परसन के करीबी रिश्तेदार इस लिए महिमा मण्डित किये गये, क्योंकि वह जरूरतमन्दों को सूद पर पैसा दिया करते थे, कर्जदारों को भले ही ब्याज अधिक देना पड़ता था परन्तु बैंक का चक्कर लगाने से फुर्सत रहती थी। रात-बिरात किसी भी समय सूदखोर का दरवाजा खटखटाने पर ब्याज पर पैसे मिल जाया करते थे। भला बताइये इससे बड़ी समाजसेवा और क्या हो सकती?
शोक संवेदना व्यक्त करने का रिवाज है। अपने-अपने तरीके से हर कोई इस प्रथा में भागीदार बनकर अपना कर्तव्य निर्वहन कर रहा है। मीडिया महिमा मण्डन करके अपना भविष्य देखते हुए ठीक उसी तरह कर रही है जैसे गाँव में काकी और उनके बेटे ने हमारे पिता की मृत्यु उपरान्त अपनी स्वार्थ सिद्धि से चिन्तित होकर दुःख प्रकट किया था। वैसे ही बड़े भाई के देहान्त के उपरान्त समाज में उपहास न हो मझले भाई मास्साहब ने दारू हलक के नीचे उतारकर करूण क्रन्दन किया। चूँकि सांई से सब होत है बन्दे ते कछु नाय……इसलिए देखना अब यह है कि हमारे मरने पर मीडिया किस अलंकार से हमें नवाजेगी और कैसे-कैसे विशेषणों से वाक्य बनाकर लिखेगी……….? यानि उसकी निगाह में मैं किस श्रेणी का प्राणी माना जाऊँगा।
डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
वरिष्ठ नागरिक/स्तम्भकार
अकबरपुर, अम्बेडकरनगर (उ.प्र.)
9125977768