दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़बाँ और

पुस्तक समीक्षा
-राजेश चौधरी, चित्तौड़गढ़

हिन्दी पट्टी में दलित आत्मवृत्त-लेखन महाराष्ट्र की तुलना में देर से शुरू हुआ और अब भी संख्यात्मक दृष्टि से कम है। भँवर मेघवंशी का आत्मवृत्त पिछले दिनों प्रकाशित हुआ है, जो कि इस अभाव की एक हद तक पूर्ति करता है। इसे लेखक का सम्पूर्ण आत्मवृत्त कहने के बजाय एक अंश कहना ज्यादा ठीक होगा; क्योंकि इसमें उनकी छठी कक्षा से लेकर 2013 तक के जीवनानुभव हैं। 2013 के बाद एक लम्बी पारी वे और खेलेंगे; उसके दस्तावेजीकरण की प्रतीक्षा हमें रहेगी।
‘मैं एक कारसेवक था’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से लेखक के जुड़ाव, संघ के जाति आधारित दुराव परिणामत: भँवर का उससे अलगाव, तदनंतर भटकाव और अंतत: एक उचित निश्चय पर ठहराव (टिकाव) को समेटे हुए है। साथ ही इसमें मौजूदा दौर के दलित प्रश्नों, सांप्रदायिकता, राजनीति, धार्मिक पाखंड पर भी तीखी एवं प्रामाणिक टिप्पणियां हैं।
साहित्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी एवं सामाजिक कार्यकर्ता स्व. खेमराज चौधरी की तरह भँवर मेघवंशी को भी बचपन में संघ ने आकर्षित किया। छठी कक्षा से शाखा में जाने वाले भँवर सामान्य स्वयंसेवक के स्तर से ऊपर उठकर जिला कार्यालय प्रमुख बने। यहाँ तक कि मस्जिद ध्वंस और मंदिर निर्माण हेतु कारसेवा करने अयोध्या के लिए रवाना हुए, हवालात में बंद रहे। प्रश्न है कि अपने पिताजी के मना करने के बावजूद भँवर संघम् शरणम् क्योंकर हुए? जवाब है-`आँखिन देखी` को ही प्रमाण मानने की जिद। सवाल यह भी है कि अपने मूल एजेंडा को लम्बे समय तक छिपाए रखने वाली संघ-विधि की कोई काट है? या हो ही नहीं सकती?

संघ प्रभाव में कारसेवक लेखक ने ट्रेन में मुस्लिम यात्रियों को चिढ़ाने के लिए ‘भारत में यदि रहना होगा…..’ जैसे नारे जोर-शोर से लगाए। इस प्रभाव बल्कि कहें दुष्प्रभाव के कारण उनके मन में संदेह पैदा हुआ कि “मेरे तो अपने ही घर में सब कांग्रेसी भरे पड़े थे। तो क्या मैं राष्ट्र द्रोहियों के खानदान से हूँ?” (पृ.51)। दुष्प्रचार के चलते उन्हें अपने गाँव के आयुर्वेदिक औषधालय का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी अमीर खान ‘दुश्मन’ दिखाई दिया लेकिन इन सबके बावजूद भँवर मेघवंशी में कभी-कभी ही सही, पर सर उठाने वाली प्रश्नाकुलता की सतत उपस्थिति रही। भूगोल के शिक्षक शाखा में सूर्यनमस्कार के दौरान हनुमान जी द्वारा सूर्य का गोला निगल जाने की कथा सुनाते थे और कक्षा में भूगोल के मुताबिक सूर्य को आग का गोला कहते थे। अन्य स्वयंसेवकों ने भले ही इस बात को चुपचाप हजम कर लिया हो पर भँवर का प्रश्न था कि “सूर्य आग का गोला है या देवता?” (पृ.22)। कारसेवकों के जत्थे को `प्रचारक` जी ने विदाई दी पर वे ट्रेन में नहीं चढ़े। लेखक के मन में प्रश्न था- `प्रचारक जी क्या यहीं रहेंगे?` (पृ.15)। शाखा में जाते रहने के बावजूद प्रश्न तो थे ही कि- “भारत माता के हाथ में भगवा झण्डा क्यों है? राष्ट्रध्वज तिरंगा क्यों नहीं?’’ (पृ.43) और ‘’भारत में तो हिन्दू बहुसंख्यक हैं फिर असुरक्षित कैसे हैं?’’ (पृ.47)

यद्यपि आखिरी व जोरदार झटका तब लगा जब दलित स्वयंसेवक, जिला कार्यालय प्रमुख भँवर मेघवंशी के घर बना खाना संघ के पदाधिकारियों ने पैक करवाकर रास्ते में फैक दिया, पर उनके मन में हल्के-हल्के झटके शाखा-जीवन की शुरुआत से ही लग रहे थे। अत: संघनिष्ठ से संघ-शत्रु मानसिकता की निर्मिति केवल इस घटना का ही परिणाम नहीं है, अपितु अनजाने ही इसकी भीतरी तैयारी थी। दलित के घर बना खाना फेंक देना वैसा ही व्यक्तिगत अपमान था जैसा कि गांधी जी को गोरों द्वारा दक्षिण अफ्रीका में प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर करना। यहाँ भँवर मेघवंशी को गांधी जी के समकक्ष ठहराने का इरादा नहीं है। समानता है तो व्यक्तिगत अपमान के रचनात्मक रूपान्तरण में। बाद में लेखक ने यह जाना कि दलित व पिछड़े स्वयंसेवक संघ के औज़ार मात्र हैं, निर्णायक नहीं; इसलिए संघ ने अपने 90 वर्षों के जीवन काल में छुआछूत और भेदभाव खत्म करने का आंदोलन नहीं चलाया(पृ. 138)। भँवर का ध्यान इस बात पर जाता है कि संघ-दीक्षित पिछड़े व दलित मुसलमानों से भी लड़ते हैं और आपस में भी। श्रेष्ठ हिन्दू कहलाए जाने की ग्रंथि से पीड़ित पिछड़ी जाति के संघ-सेनानी दलितों पर अत्याचार करने में अगली पाँत में हैं। सुलिया गाँव की घटना इसका परिणाम है।

संगठित धर्म, चाहे कोई सा भी हो; हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई-सब जगह एक सा ही रूढ़िवाद, अतार्किक चमत्कारवाद है। संघ परिवार से मोहभंग होने के बाद ईसाई बनने की कोशिश में भँवर ने यह जाना कि “मुक्ति किसी भी धर्म में नहीं बल्कि मुक्ति तो इन सबसे मुक्त हो जाने में है।(पृ.83) समकालीन धार्मिक पाखंड के नमूनों-चिमटा बाबा, रँगीले शाह, रंडीशाह, आसाराम, नित्यानन्द, खड़ेश्वरी महाराज, डेरा सच्चा सौदा, सतलोक और धार्मिक अंधता के चलते उनकी इनकी फलती-फूलती दुकानों को देखकर लेखक यह उचित टिप्पणी करता है कि “अपने आपको जगतगुरु कहकर पीठ ठोकने वाला हमारा देश दुनिया का सबसे पाखंडी देश है।”(पृ.119)

धर्म की शोषणकारी भूमिका दाता पायरा गाँव के यज्ञ-प्रकरण में दिखाई देती है। बाबा जी के आश्रम के लिए श्रमदान दलित करें, यज्ञ के लिए लकड़ियाँ दलित काटे और लाएँ, चंदा दें। बस! इतना बहुत है। यज्ञवेदी पर दलित का क्या काम? जरा गोरख पांडेय की `स्वर्ग से विदाई’ कविता याद कीजिए। हालांकि न भँवर के लिए न हमारे लिए यज्ञ स्वर्ग है, पर सार्वजनिक स्थल पर सभी की भागीदारी संवैधानिक अधिकार है- लिहाजा लेखक ने बिगुल बजा दिया।

तो क्या भँवर में नकार ही नकार है? नहीं- स्वीकार भी है। सैलानी सरकार के प्रति उनका लगाव इसका द्योतक है। कर्मकांड से दूर, सब जाति धर्म के लोगों को इंसानियत और भाईचारे का संदेश देने वाले ये सूफी दरवेश भँवर मेघवंशी के दिल के करीब हैं। जाहिर है भक्तिकालीन संतों की तरह धर्म को लोकजागरण का जरिया बनाने वालों से ही उनकी पटरी बैठती है।

मजदूर किसान शक्ति संगठन से लेखक का जुड़ाव ‘लाल सलाम’ से ‘जय भीम’ की रिश्ता समझा जाना चाहिए। संगठन का ‘न्याय समानता हो आधार’ नारा उन्हें आकर्षित करता है और नारा लगाने वालों की ईमानदारी उन्हें अपने साथ खींच ले जाती है। बचपन में संघ-पोषित सांप्रदायिकता नौशाद आलम के निकट संपर्क से ढह जाती है और नव-विकसित साम्प्रदायिकता-विरोधी चेतना कलंदरी-मस्जिद प्रकरण में असली शत्रुओं की पहचान करती/कराती है। भीलवाड़ा-मांडल में फैली साम्प्रदायिकता का मुक़ाबला करती है।

संघ मार्का हिन्दुत्व के विरोध का मतलब हिन्दू से इतर समुदाय या समुदायों का अंध समर्थक हो जाना नहीं है। समर्थन का आधार न्याय और मानवीयता है समुदाय विशेष नहीं। अपने तमाम संघ-विरोध के उपरांत भी संघ-शिक्षक 16 वर्षीय सत्यनारायण शर्मा की मुस्लिम युवकों बिलकीस व फारुख द्वारा की गई हत्या की उन्होंने कड़ी निंदा की पर इस घटना के बहाने सारे मुसलमानों के विरुद्ध प्रतिहिंसा भड़काने वालों को भी उन्होंने नहीं बख्शा।(पृ.142) इसी तरह 2002 में गोधरा कांड में 60 ट्रेन यात्रियों को ज़िंदा जलाए जाने के विरुद्ध भँवर मेघवंशी ने मजदूर किसान शक्ति संगठन की ओर से निंदा-प्रस्ताव का ड्राफ्ट तैयार किया- लेकिन इस अग्नि कांड की आड़ में गुजरात में हुए/कराए गए राज्य-प्रायोजित नरसंहार के खिलाफ भी उतनी ही निर्भीकता से लिखा, जोख़िम उठाया।

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं सो स्वाभाविक है कि वे बहुत से गैर सरकारी संगठनों के संपर्क में आए होंगे, उनकी रग-रग से वाकिफ होंगे तभी उन्होंने पहचाना कि “सामाजिक क्षेत्र भारतीय समाज का सबसे दोगला क्षेत्र है।” (पृ.122) इस टिप्पणी में यत्किंचित आक्रोश मिश्रित है पर फिर भी काफी हद तक सच है। भगवान दास मोरवाल के उपन्यास ‘नरक मसीहा’ और कुमार प्रशांत के एक लेख ‘मोमबत्तियों का सच’ से इसकी ताईद होती है।

जनधर्मी पत्रकार की भाषा कैसी होनी चाहिए? औसत और साधारण स्तर के पाठक की समझ में आए और लेखक के विशिष्ट व्यक्तित्व का छौंक भी उसमें हो। भँवर मेघवंशी की भाषा प्रवाहपूर्ण है, साथ ही ‘दलित दलाल’, ‘कमल कांग्रेसी’ जैसे नए प्रयोगों की व्यंजकता देखने काबिल है। संक्षेपण और व्यंग्य के मेल से उन्होंने कुछ सूक्तियाँ रच दी हैं।
कारसेवा के दौरान शहीद होने की इच्छा अब तक शहीद हो चुकी थी।(पृ. 21)
दोनों मरने वाले हिन्दू थे। इसलिए ‘शहीद’ हो गए। मुसलमान होते तो ‘ढेर’ हो जाते। (पृ. 61)
प्रशासन में भी पेंट तले बहुतेरों ने निकर पहन रखी है। (पृ.132)
अधिकांश साथी इस दौर में इंसान नहीं रहे थे, सिर्फ हिन्दू हो गए थे। (पृ. 148)
गाँधी के गुजरात को गोडसे का गुजरात बना डाला। (पृ. 126)

राजस्थान विधानसभा के 2013 के चुनाव में भँवर मेघवंशी को भाजपा से टिकट का प्रस्ताव मिला। भाजपा की नीयत तो समझ में आती है पर भँवर ने मना करने में तीन माह क्यों लगाए? इस ऊहापोह, असमंजस के मनोवैज्ञानिक कारण का खुलासा वे करते तो उनके प्रति विश्वास और बढ़ता।

भँवर ने स्वयं आरक्षण का लाभ नहीं लिया है। मेरी जानकारी के मुताबिक उनके बेटे अशोक ने भी रोजगार के सिलसिले में इसका लाभ नहीं लिया। बगैर आरक्षण के ऊंचे, अपेक्षित पद पर पहुँचने वालों और इस दिशा में हो रहे प्रयत्नों की जानकारी वे देते तो ‘अयोग्य’, ‘आरक्षण पर निर्भर’ कहने वालों को एक जवाब यह भी हो सकता था। हो सकता है।

लेखक ने अपने सरोकारों को लिखने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर सक्रिय रहना जरूरी समझा है। लेखन और जीवन में फाँक नहीं होनी चाहिए- ऐसा उनका मानना है। उनका अपने से यह सवाल कि “केवल लिखकर ही मैं अपनी ज़िम्मेदारी से बरी कैसे हो सकता हूँ? (पृ.124)- हम सबका अपने से सवाल होना चाहिए।

‘मैं एक कारसेवक था’/भँवर मेघवंशी/नवारुण प्रकाशन, गाजियाबाद/मूल्य-170.00

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