*विचार – प्रवाह*

नटवर विद्यार्थी
जब एक को देखकर दूसरा भी वैसा ही करता है तब हम “ख़रबूज़े को देखकर खरबूजा रंग बदल रहा है ” वाली कहावत काम में लेते हैं । इसी प्रकार बेचारे एक सीधे – सादे , हानिरहित और शांत प्रकृति के जीव पर भी “गिरगिट की तरह रंग बदलना” कहावत गढ़कर उसे व्यर्थ ही बदनाम कर दिया ।
वस्तुतः खरबूजा और गिरगिट दोनों ही मिलनसार प्रवृति के होते है । इंसान की तरह दोनों हर समय रंग नहीं बदलते । ख़रबूज़े से खरबूजा मिलेगा तो संगत का असर तो आयेगा ही ! इसमें अचरज की क्या बात है ? रंग बदलकर भी खरबूजा अपनी मिठास नहीं छोड़ता ।इंसान तो रंग बदलकर कई बार अपनी मधुरता ही खो देता है । रही बात गिरगिट के रंग बदलने की यह प्राणी भय , क्रोध और काम की उत्तेजना में ही रंग बदलता है और सिर हिलाता है । आचरण या व्यवहार में आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन कर लेना कोई ग़लत भी नहीं है । वैसे ज्यादातर मामलों में गिरगिट अपनी सुरक्षा के लिए ऐसा तरीका अपनाता है और रंग बदलने के पीछे उसकी मंशा किसी को नुकसान पहुंचाने की नहीं होती ।आज का इंसान तो अपनी बात पर भी क़ायम नहीं रहता है , पल भर में पलट जाता है और झूठ को अपना जन्मसिध्द अधिकार मानता है तथा हर समय अपना रंग बदलता रहता है और रंग में भंग डालकर सारा गुड़ गोबर कर देता है । ऐसी स्थिति में गिरगिट तो उससे बहुत पीछे है । भारतीय राजनेताओं का तो यह रोज – रोज का काम है ।किसी कवि ने क्या ख़ूब कहा है –
गिरगिट और खरबूजे से इंसान की तुलना करना पाप है ,
इंसान तो रंग बदलने में गिरगिट और खरबूजे का भी बाप है ।

– नटवर पारीक

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