वैचारिकी-दफन होते सवाल

रासबिहारी गौड
जी,हाँ..! यह सब नहीं कहना चाहिए..! नेगेटिविटी फैलाने का आरोप लग सकता है। विचार धारा विशेष से जोड़कर हर धारा से काटा जा सकता है। अंध विरोध बताकर उपहास उड़ाया जा सकता है। कम अक्ल, बुद्धिजीवी, टुकड़े टुकड़े गेंग के साथ देश द्रोही का खिताब भी मिल समता है। अंधी आँखों पर काले चश्मे की तोहमत गढ़ी जा सकती है।
पर फिर भी बात कहने का रिस्क उठाना ही पड़ेगा, वरना कल नस्ले हमारे गूंगे बहरे होने पर सवाल करेंगी..। अंधा होना मंजूर है, पर गूंगा-बहरा मर जाना स्वीकार्य नहीं। स्वर की गूंज अंधेरों के बीच भी जिंदा होने का पता बताती है।
एक महामारी जो दुनिया के सामने उसके अस्तित्व से खेल रही है और दुनिया के बड़े आका अपने तमाशे सजा रहे हैं। सर्कस में होने वाला “मौत के कुएं का खेल ” जीती जागती जिंदगी में दिखाया जा रहा है। इस खेल में तालियां भी उन्ही से बजवाई जा रही है जिन्हें मरने के लिए खेल में धकेल दिया गया है। खेल को लेकर पूछे जा रहे सवाल मदारी के कानों में चुभ रहे हैं ।दर्शकों के हाथ मे पत्थर थमा दिए है जो सवालों के चेहरों को लहूलुहान कर रहे हैं। बावजूद इसके, ‘मौत के कुएँ’ से मौत की आवाज आ रही है। वह आवाज ही सवाल है। ये अलग बात है कि हुजूम के शोर में उसे सुना नहीं जा रहा…। अरे मदारियों..! मौत की आवाज को कब तक अनसुना करोगे..? वह तो एक दिन तुम्हारी चौखट पर भी आनी है।
आप, हम, सब इस कुएं में उतारे जा चुके हैं। हम अपनी मौत के लिए आपस मे एक दूसरे को दोषी मान रहे हैं। कुएं के बाहर खड़े मैनेजर तमाशे में अपने आँसू शामिल कर उसे और रोचक बना रहा हैं। गिरगिट और मगरमछ दोनों शर्मिंदा हैं। पर सवाल अनुत्तरित का अनुत्तरित ही है कि केरोना- कहर की चेतावनी से लेकर सांध्यकालीन चमत्कार तक हुई देरी में यह सारा तमाशा किसने खड़ा किया ?
आप चाहे तो जयजयकार कर सकते हैं..। पर सवाल दफन नहीं होते, वे कब्रों से निकलकर हमारे सामने खड़े हो ही जाते हैं।

*रास बिहारी गौड़*

error: Content is protected !!