पत्रकारिता दिवस: शुभकामनाओं का नहीं , संवेदनाओं का काल है

यह संक्रमण काल है । संक्रमण बीमारी का । कोरोना का । संकट काल है । सब कुछ लॉकडाउन है । बंद है । बाज़ार अधखुले से है। बाज़ारों को इंतज़ार है ग्राहकों का । ऐसे में आज पत्रकारिता दिवस भी है । आज शुभकामनाएं का अवसर नहीं है । संवेदनाओं का है । पत्रकारिता संकट में है। अख़बार उद्योग ख़ुद को बचाने की जद्दोजहद में है। बिज़नेस ख़त्म हो रहे है। घाटे बढ़ रहे है। प्रसार कम कर दिया है । पन्ने भी घट गए हैं । संक्रमण का सबसे घातक हमला है । पत्रकारों पर । अख़बार / मीडिया में काम करने वालों पर । लॉकडाउन अभी ख़त्म नहीं हुआ है । कल क्या होगा ? कोई नहीं जानता । नौकरियाँ जाने लगीं हैं । सभी संस्थानों ने छँटनी की लिस्ट बना ली है । कई संस्थानों ने अपने एडिशन बंद कर दिए है । यह वज्रपात है । पत्रकारों पर । पत्रकारिता पर । अख़बारों का अपना संकट है । अस्तित्व बचाने का । पैसा लाएँ कहाँ से ? बग़ैर विज्ञापन अख़बार सिर्फ़ घाटे का सौदा है । वेतन बाँटेंगे भी तो कहां से । लिहाज़ा वेतन कम होने लगे । इन्क्रीमेन्ट रूक गए । इतना भर काफ़ी नहीं था तो अब लोग हटने लगे । जिनके हाथ में कलम थी अब वे बेरोज़गारी से जूझ रहे है। एक बड़ी जमात खड़ी है । अपना अस्तित्व तलाशने में । दूसरों के लिए अड़ने वाले , लड़ने वाले आज बेबस हैं। लाचार है। यह कैसा कालखंड है । यह कैसा संकटकाल है ? यहाँ हर कोई डरा हुआ है । ख़ुद से भी । आने वाले कल से भी । यह सचमुच शुभकामनाओं का समय नहीं है । कलम लड़खड़ा रही है । घरों में मायूसी बढ़ रही है । यह मृत्यु से बड़ा संकट है । मौत के तो 13 दिन बाद जीवन चलने लगता है । यहाँ जीवन रूक रहा है । थम रहा है । भविष्य भयावह है । पत्रकारों के लिए कोई सरकारी पैकेज नहीं है । राहत नहीं है । अख़बार इंडस्ट्री को लेकर कहीं कोई चिंता नज़र नहीं आ रही । सामने दिख रही है लटकती तलवार । भविष्य की मायूसी । घर में उदासी । लटकते चेहरे । बंद करिए व्हाटसप पर बधाइयों का सिलसिला । यह झूठ है । फ़रेब है । यह वक्त संघर्ष का है । साथ खड़े रहने का है । अस्तित्त्व बचाने का है …।मृत शैय्या पर पड़ी पत्रकारिता को बचाने का है ….।

अक्षरशः सत्य है ये पीड़ा और विडम्बना देश भर में कार्यरत असंख्य श्रम जीवी,पत्रकारों और समाचार-पत्रों के दीगर कर्मचारियों की है जिसे जानने और जिस पर एक्शन लेने की सुधि हुक्मरानों ने लेना अभी तक मुनासिब नहीं समझा है इन तथाकथित परेशान करने वालों से त्रस्त लोग भले ही कुछ भी सोचें पर वास्तव में लोकतंत्र के इस चतुर्थ स्तम्भ से सम्बद्ध व्यक्ति आज असहाय और विचलित नजर आ रहे हैं उनकी बात अलग है जिनके पास आय के अन्य श्रोत (काम धन्धे) हैं परन्तु वर्तमान सरकारें चाहे केन्द्र की हो या राज्यों की कोई भी सरकार समाचर पत्र कर्मियों के प्रति संवेदनशील नहीं दिखाई दे रहा है
पत्रकार संगठन भी हताश और किम कर्तव्य विमूढ़ से नजर आरहे है वही सरकार भी सोच रही है कि किस किस युनियन की माँग पूरी करें देश की हर गली शहर व राज्यों में अनगिनत पत्रकार संगठन कुकुरमुत्तों (एक पौधा) की मानिन्द पैदा हो गये हैं जो बिना खाद पानी के संसाधन विहीन होने के बावजूद पनप रहे हैं ना उनके पास संख्या बल है ना ही सकारात्मक सोच पर जिन लोगों को उनके द्वारा उपकृत किया जा रहा है वो तथा कथित उनके लिये सदा सहायक बने रह्ते हैं और गाहे ब गाहे इस ऋषि कर्म से निम्न स्तर पर लाभान्वित भी होते रह्ते है परन्तु फिलहाल उस पर चर्चा करना उपयुक्त तथा समयोचित नहीं है इस लिये विषय से भटकने के बजाय ध्यान इस बात पर केन्द्रित किया जाना श्रेयस्कर होगा कि किस तरह पत्रकारों व पत्र कर्मियों को इस विषम परिस्थिति से उबारा जाय पत्रकारों का सम्बल पत्रकार संगठन होते हैं जो उनके हितार्थ कार्यरत रह्ते है इनमे अनेक प्रतिष्ठित संघटन हैं जो दशकों से अपना दायित्व पूरी निष्ठा से निभा भी रहे हैं उदाहरण के तौर पर “इण्डियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट “(आई एफ डबलू जे) और “जर्नलिस्ट एसोसिएशन आफ राजस्थान “(जार) सहित विभिन्न राज्यों के प्रादेशिक संगठन ….किन्तु वैचारिक मतभेदों और निजी हितों के चलते पत्रकार संघटन कभी एकजुट और एक राय नहीं हो पाते हैं और पुराने समय की देशी रियासतों की तरह ही अपनी जंग अपने स्तर पर ही लड़ रहे है और इसी कारण देश की शक्तिशाली सरकारें उन्हे लगातार नजरअंदाज करती रही हैं और पत्रकारों दशा परिस्तिथियों और आर्थिक स्थितियों में सुधार समाचार पत्र समूहों की कृपा दृष्टि पर निर्भर व अवलंबित होकर रह गया है और इस सर्व कालिक सत्य के समक्ष नत मस्तक होने को पत्र कर्मी विवश हैं……एक पत्र समूह के मालिक और वरिष्ठ पत्रकार की बात मुझे समयो चित लग रही है कि इन तमाम पत्रकार संगठनों को एक जुट कर एक महा संगठन निर्माण किया जाय जिसमे सभी संगठनो के प्रमुख पदाधिकारी शामिल होकर एकराय बना कर पत्रकार व श्रम जीवी कर्मचारीयों का हित साधे तो कदाचित सरकार कुछ करने हेतु बाध्य हो पायेगी अन्यथा अपनी अपनी लड़ाई लड़ रहे संघटन कभी सफल नही हो सकेंगे
और हम जहाँ थे वहीं रह जायेंगे और सियासी नेता हमारे प्रति झूठी सहानुभूति दिखा कर हमारे आंसू एसे ही पोंछ्ते रहेंगे और दुनिया के सामने महान बनते रहेंगे 🙏🏻………ये विषय सर्व कालिक है और समस्या विराट है जिस पर जितना लिखे कम ही है ….परन्तु प्रयासों को गति दिये बिना हम सफलता की परिकल्पना आखिर कैसे कर सकते हैं????????

प्रस्तुति डॉ. राशिका महर्षि

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